कला सीमाहीन होती है। यह मानवीय सोच की हर कल्पनीय सीमा को पार कर जाती है। कला यदि अनंत ब्रह्मांड है तो संगीत इसकी विशाल आत्मा है। हमने पहले भी सुना है कि संगीत वह धागा है जो भूगोल, भाषाओं और संस्कृतियों के माध्यम से बुना जाता है। यह इससे भी अधिक है। यह आपकी इंद्रियों को शुद्ध करता है और आपको एक बेहतर इंसान भी बनाता है। यदि शब्द आपको सोचने पर विवश करते हैं तो संगीत आपको महसूस कराता है। यह मासूम विस्मय और सराहना को बढ़ावा देता है और आपमें उस बच्चे को जागृत करता है जो नृत्य करना चाहता है। ये विचार और भी जीवंत हो उठते हैं जब आप मंगनियार लोक कलाकार मामे खान (Mame Khan) से मिलते हैं। सूफी-लोक गायक (Sufi-folk singer) के साथ एक दिलचस्प बातचीत–मंगनियारों की मौखिक परंपरा, उनके अवदान और उनमें निहित सांस्कृतिक सम्मिश्रण-विस्मय और प्रेरणा जगाती है और आपका बाल मन नृत्य कर उठता है। सोलवेदा के साथ विशेष भेंट के अंश:
हमें मंगनियार समुदाय की विरासत के बारे में बताएं, जो वर्षों से राजस्थान की समृद्ध संस्कृति का एक अभिन्न अंग रही है?
हमारे समुदाय की उत्पत्ति को लेकर कई किंवदंतियां (इतिहास की घटनाओं पर आधारित लोक कथाएं) हैं। जो कुछ मैंने अपने पिता से जाना है वह कहानी कुछ इस तरह है। जब पैगंबर मुहम्मद की बेटी फातिमा से हसन और हुसैन पैदा हुए तो उनके सम्मान में दो भाइयों ने सेहरा (बधाई गीत) गाया था। गीत से खुश होकर और उनकी सराहना में बीबी फातिमा ने अपना हार और ‘मंगनियार’ का खिताब और राजाओं के दरबार में गायन और इस परंपरा को आगे ले जाने का उन्हें आशीर्वाद दिया था। यह भी कहा जाता है कि ‘मंगनियार’ शब्द ‘महागुणियार’ से निकला है, जिसका अर्थ प्रतिभा का खज़ाना होता है।
मंगनियार मुस्लिम लोक संगीतकारों का एक समुदाय है। लेकिन वे हिंदू देवताओं की प्रशंसा में गाते हैं। इस बारे में विस्तार से बताएं?
परंपरागत रूप से मंगनियार हिंदू राजपूतों को अपना संरक्षक मानते आए हैं। इसीलिए हम कृष्ण, शिव, राम से संबंधित गीत गाते रहे हैं। मुझे याद है कि मेरे पिता के दैनिक रियाज़ भगवान कृष्ण के भजनों के साथ शुरू होते थे। हम अपने संरक्षकों के सम्मान में उनके परिवारों के इतिहास और विरासत को जीवित रखने के लिए गीत गाते रहे हैं। यह 15 से अधिक पीढ़ियों से चली आ रही मौखिक कहानी कहने और रिकॉर्ड रखने की परंपरा है। लेकिन इस पारंपरिक पृष्ठभूमि से अलग मेरा मानना है कि संगीत में विभाजन और धर्म की सीमा नहीं होती है। जिस तरह हम हिंदू देवी-देवताओं की प्रशंसा में गाते हैं ठीक उसी तरह हम मीरा बाई, कबीर और महान सूफियों बुल्ले शाह और लाल शहबाज़ कलंदर के गीत भी गाते हैं। इन सभी ने अपनी कविताओं और संगीत से भक्ति व आध्यात्मिक एकता का एक ही संदेश दिया है।
आप लोक गायक हैं। आप शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी या व्यापारी भी हो सकते थे। इसकी बजाय आप उन भाग्यशाली लोगों में से हैं जो अपने जीविका कमाने के पेशे से प्यार करते हैं। आपके लिए इस का क्या मतलब है?
आप बिलकुल सही हैं। जब आप वास्तविक दुनिया में रहते हैं तो आपको जीविका कमानी पड़ती है, परिवार का खर्च चलना होता है और अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करना पड़ता है। इसके लिए आपको जो मिले वही करना पड़ता है। सौभाग्य से जिस परंपरा में मैं पैदा हुआ उसमें अंदर की आवाज़ को सुनकर मैं उसे अपनाने में सफल रहा। हालांकि एक बच्चे के रूप में अपने गांव में गश्त करते पुलिस वालों को देखकर मेरी पुलिस सुपरिटेंडेंट बनने की इच्छा थी (हंसते हुए)। लेकिन मुझे पता था कि मैं संगीतकार के अलावा कुछ नहीं बन सकता। मेरे लिए यह सिर्फ मेरा पेशा नहीं है। संगीत मेरी भूख मिटाता है। जब हम अपनी मंडली के साथ रिहर्सल करते हैं तो घंटों मानो पलक झपकते ही गुज़र जाते हैं। यही आपके प्रश्न का उत्तर है यह संगीत का ही प्रभाव है और मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे इसके साथ काम करने का सौभाग्य मिला है। जिस समय में हम रहते हैं उसे देखते हुए संगीत में निश्चित रूप से व्यावसायिक तत्व भी है। लेकिन इससे इसके प्रति मेरा प्यार कम नहीं हुआ है।
कहा जाता है कि संगीत लोगों में से उनका सर्वश्रेष्ठ निकालता है। क्या संगीत आपको एक बेहतर इंसान बनाता है?
निश्चित रूप से ऐसा ही है। इस दोहे को आपके साथ साझा करता हूं-
“अन मद्द, धन मद्द, राज मद्द, विद्या मद्द समुद्र
गर सुनियो राग मद्द, तो और मद्द सब रद्द”
इसका अर्थ है भोजन, धन या शक्ति के संचय का एक नशा हमें हो सकता है। ज्ञान के संचय से हुआ नशा समुद्र की तरह असीम है। लेकिन संगीत के 7 सुर हमें ऐसे नशा देते हैं जो और कहीं नहीं मिलता। यही इसका कुल सारांश है। मैं संगीत का विद्यार्थी हूं और हमेशा संगीत की संगति में रहता हूं और अपने आपको परिपूर्ण महसूस करता हूं।
आप अपने संगीत की आध्यात्मिक, ज़मीनी प्रकृति को बनाए रखने और पेशे की कठिन मांग के बीच संतुलन कैसे बनाते हैं?
हम बहुत से सूफी गीत गाते हैं जो मुख्य रूप से भावपूर्ण हैं। चूंकि आज का जीवन भाग-दौड़, व्यस्तता वाला है इसलिए हमारे कई गीत दमदार और ऊर्जा से भरपूर होते हैं। फिर भी राग, शब्दावली और गीतों की आत्मा को यथावत रखा जाता है। इस तरह हर कोई संगीत से जुड़ता है। हम अपनी परंपरा को बनाए रख पा रहे हैं। वहीं बदलते श्रोताओं के साथ गीत-संगीत में बदलाव भी ला रहे हैं।
आप सूफी शैली और लोक शैली पर काम करते हैं। सूफी संगीत मुख्यतः भक्ति, अध्यात्म का संगीत है। एक व्यक्ति के रूप में आप पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है?
सूफी गीत गाते हुए विशेष रूप से जटिल रागों में आप परा-लौकिक भावना या समाधि जैसी भावना का अनुभव करते हैं। उस जगह होना विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभव है। यह मदहोशी की स्थिति है। जैसा कि कहा जाता है यह शून्य की तरह है – वह स्थान, जहां आप ईश्वर के साथ एकाकार हो जाते हैं।
आप अपने दिवंगत पिता राणा खान के बारे में अक्सर बात करते हैं। वे आपके गुरु भी थे। उनके साथ आपका रिश्ता कैसा था?
किसी भी पिता की तरह मेरे पिता भी मुझे प्यार करते थे। लेकिन उनका मेरे साथ व्यवहार एक शिष्य की तरह भी था। मारवाड़ी में एक कहावत है ‘कबड्डी में काको कोनी’। आमतौर पर इसका अनुवाद है खेल में (व्यावहारिक दुनिया में) कोई चाचा या भतीजा नहीं होता। वे कहते थे मंच पर वह मेरे पिता नहीं और मैं उनका बेटा नहीं। बचपन में यदि हम रिहर्सल करने से कतराते थे तो वे हमें इनाम का लालच देते थे ताकि हम रियाज़ कर सकें। वो इस बात का मोल समझते थे कि परंपरा को आगे बढ़ाने में हममें संलग्नता और गंभीरता पैदा करना ज़रूरी है।
संगीत की आपकी शैली लोक संगीत और सूफी संगीत का संयोजन है जो पारंपरिक किन्तु अनूठी है। आपको क्या लगता है कि इस कला के जीवित रहने व विकसित होने की कितनी संभावना है?
मैं इसकी भविष्यवाणी करने वाला कोई विशेषज्ञ नहीं हूं। लेकिन मेरा मानना है कि एक पारंपरिक संगीत विरासत के रूप में हमें अपनी संगीत जड़ों को पकड़कर रखने की ज़रूरत है। वहीं प्रयोग करने और बदलाव लाने में भी शर्म नहीं करनी चाहिए। मेरे प्रदर्शन में मैं वही गाने गाता हूं जो 15 पीढ़ियों से गाए जाते रहे हैं। लेकिन मैं शुद्ध मारवाड़ी से बदलकर इसे हिंदी-मारवाड़ी तक लाया हूं ताकि बड़ी जनसंख्या इससे जुड़ सके। कई बार मैं उसी राग में गति या स्वर को थोड़ा बदल देता हूं। इस लचीलेपन से मुझे अधिक श्रोताओं तक पहुंचने के साथ-साथ अपनी परंपरा को भी बनाए रखने में मदद मिलती है। यदि यह संगीत 15 पीढ़ियों तक जीवित रहा है तो आगे क्यों नहीं रहेगा।
राजस्थान के एक छोटे से गांव में पलने–बढ़ने वाले के लिए यह एक अलग दुनिया थी। इसने आपको बड़ा कलाकार बनने में किस तरह मदद की?
मैं राजस्थान के जैसलमेर के पास सत्तो नाम के एक छोटे से गांव में पला-बढ़ा जहां हमें व्यस्त रखने के लिए बिजली, टेलीविजन, मोबाइल फोन या गैजेट्स नहीं थे। कुछ गंवई खेलों (गांव में खेले जाने वाले खेल) के अलावा ध्यान भटकाने का कोई माध्यम नहीं था। इसलिए हमारा सारा समय रियाज़ में बीतता था। इससे मुझे संगीत कौशल सीखने में मदद मिली। उससे भी अधिक हमारा रियाज़ और शिक्षा केवल हमारे पिता जो हमारे उस्ताद (गुरु) थे, उनतक ही सीमित नहीं थी। हमने अपनी मां, बहनों, चचा-चाचियों से भी सीखा। यह मौखिक परंपरा उस युग और समाज की प्रकृति के कारण जीवित रह सकी, जिसका हम हिस्सा थे।