आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में हमारा स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। जब हम बीमार पड़ते हैं तो हम दुकान में आसानी से मिलने वाली औषधि (medicine) लेकर काम चला लेते हैं। यदि आपसे कहा जाए कि बदलता मौसम, स्थान परिवर्तन और यहां तक कि आपकी नौकरी की प्रोफाइल भी आपकी प्रकृति के कारण आपको प्रभावित कर सकते हैं?
आप चौंक जाएंगे। आइए, हम आपको आयुर्वेद में ‘दोष’ के विचार से आपका परिचय करवाते हैं, जानते है कि कैसे स्वस्थ रहें (Stay healthy)।
आयुर्वेदाचार्य डॉ. मणिकांतन मेनन ने सोलवेदा के साथ विशेष बातचीत में ‘दोष’ के सिद्धांत/विचार आयुर्वेद और योग के बीच संबंध को आसान शब्दों में समझाया।
साक्षात्कार के कुछ अंश :
क्या आप आयुर्वेद में ‘दोष’ संबंधी विचार के बारे में बता सकते हैं?
वात, पित्त और कफ, ये तीन प्रकार के दोष हैं। यह तीन जैविक ऊर्जा है जो मानव शरीर पर विभाग प्रमुख के रूप में शासन करती हैं। शरीर के आंतरिक और बाह्य तंत्र ठीक तरह से काम करें इसलिए शरीर का पूर्ण स्वस्थ होना चाहिए। ये ऊर्जा हमारी शारीरिक स्थिति तय करती है और मन के साथ भी जुड़ी होती हैं।
वे क्या हैं?
आयुर्वेद (Ayurveda) के अनुसार, संपूर्ण सृष्टि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से अर्थात पंचतत्व, जिसे पंचमहाभूत भी कहा जाता है से बनी है। दोषों की पहचान भी इन्हीं पंच तत्वों से जुड़ी है। उदाहरण के लिए पृथ्वी स्थिर तत्व है, पानी ठंडक देने वाला है और नीचे की ओर जाने वाला, आग अपनी प्रकृति के अनुसार गुरुत्वाकर्षण के विपरीत बढ़कर गर्मी देता है। इस परिभाषा के अनुसार वात, वायु और आकाश से बनता है, पित्त अग्नि से और कफ पृथ्वी और जल से बनता है। मानव शरीर पर यही 5 तत्व राज करते हैं व इन्हीं पंच तत्वों से दोषों की पहचान कर स्वस्थ रह सकते हैं।
क्या आप हमें उदाहरण देकर समझा सकते हैं कि ये दोष हमें कैसे प्रभावित करते हैं?
यदि आपका मन थोड़ा सख्त है तो आप परिवर्तन स्वीकार नहीं कर पाते। इसका मतलब जल तत्व की कमी होना होता है यानी आपको कफ है। दूसरी ओर, सरल व्यक्ति में कफ का तत्व प्रमुख होता है। सक्रिय मस्तिष्क और बहुत सोचने वाले व्यक्ति में वात या वायु तत्व होता है।
क्या किसी व्यक्ति में विशेष दोष प्रभावी होने का लक्षण दिखाई देता है?
कभी-कभी, आप काफी कुछ करने का उत्साह लेकर जागते हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और आप यूं ही काम करते चले जाते हैं, जिसका कोई फल नहीं निकलता। इसे ‘वात’ दिन का सैंपल माना जा सकता है। ‘पित्त’ दिवस वह होता है, जब आप बगैर कारण के गुस्से में उठते हैं और हर किसी को छोटी-छोटी बात के लिए दोषी ठहराते हैं। ‘कफ’ दिन उसे कहा जाता है जब आप आलस महसूस करते हुए उठना ही नहीं चाहते। यदि आपको यह लक्षण एक सप्ताह या उससे ज्यादा वक्त तक दिखाई दे तो समझें कि आप इसकी उपेक्षा कर बीमारी का बीज बो रहे हैं। स्वस्थ रहने के लिए आप कितनी जल्दी इसे सुधारने का कदम उठाते हैं यह काफी महत्वपूर्ण होता है।
क्या कोई आदर्श दोष संतुलन हो सकता है?
हर व्यक्ति का संतुलन अलग होता है। जन्म के समय तीन दोषों का अनुपात किसी व्यक्ति की प्राकृतिक अभिलक्षण को तय करता है, इसे प्रकृति कहा जाता है। इसे आपके तत्व रचना के रूप में भी जाना जाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति के अभिलक्षण में दिखाई देता है। उदाहरणार्थ मजबूत वात प्रवृत्ति वाला व्यक्ति सक्रिय, बातूनी, फुर्तीला और बेचैन हो सकता है। ये गुण आपकी पैदाइशी प्रकृति है। जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं आप कुछ विशिष्ट प्रकार के भोजन खाकर कुछ विशिष्ट गतिविधियों में संलग्न होते हैं। इससे आपके वात, पित्त या कफ का संतुलन गड़बड़ हो सकता है। यह बाहरी और आंतरिक उत्तेजनाओं से भी प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप बहुत अधिक मसालेदार भोजन खाते हैं तो आपका पित्त असंतुलित हो जाएगा। गर्म मसाले अग्नि तत्व को बढ़ाते हैं, जिसके प्रति पित्त बहुत सेंसेटिव होता है। बाहरी उत्तेजनाओं के रूप में गर्मी पित्त असंतुलन को बढ़ाती है।
क्या आप इस संतुलन को विस्तार से समझा सकते हैं?
संतुलन को तौला नहीं जा सकता है। हालांकि, थ्योरी में हम कह सकते हैं कि यदि किसी व्यक्ति को सामान्य प्राकृतिक अवस्था में 30 प्रतिशत पित्त, 35 प्रतिशत कफ और 35 प्रतिशत वात है, तो तीनों में से कोई भी दोष का प्रतिशत ऊपर-नीचे होने पर यानी पित्त 60 प्रतिशत तक बढ़ने पर प्राकृतिक असंतुलन बढ़ेगा और इससे बीमारी हो सकती है।
कोई व्यक्ति आदर्श संतुलन कैसे पा सकता है?
स्वस्थ रहने और आदर्श संतुलन पाने के लिए प्रकृति की पहचान करनी होगी। उदाहरण के लिए आंखों के आकार, त्वचा का रंग, बाल, वज़न, शारीरिक गठन, व्यवहार और रुचि जैसे गुणों से संबंधित प्रश्नों के आधार पर आयुर्वेद विशेषज्ञ किसी व्यक्ति की मूल प्रकृति में किसी दोष विशेष की प्रमुखता के बारे में अंदाजा लगा सकता है। दोष असंतुलन की पहचान के लिए थोड़ा अलग पैमाना होता है। संतुलित और असंतुलित दोषों में काफी अंतर है। उदाहरणार्थ पृथ्वी तत्व के प्रभुत्व वाला व्यक्ति क्षमाशील, शांत और सौम्य होता है, ठीक उसी तरह जैसे पृथ्वी, ठोस, मज़बूत और सहारा देने वाली है। यदि कफ में वृद्धि होती है तो इस वजह से आलस्य और अवसाद पैदा हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक विशेष प्रकृति होती है। इसका अधिकांश भाग आप अपने माता-पिता से विरासत में प्राप्त करते हैं, वहीं इसमें आपकी प्रकृति मिल जाती है। जन्म का समय, गर्भाधान का समय और गर्भ में भ्रूण के विकास के तरीके जैसे कारक भी इससे जुड़ते हैं।
दोष हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति को कैसे प्रभावित करते हैं?
वात, पित्त और कफ हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्रभावित करते हैं। आपको यह जानना होगा कि आपके स्वभाव का कौन-सा प्रमुख दोष ऋतु और स्थानों की वजह से बदलता है। उदाहरणार्थ पहाड़ी क्षेत्रों और समुद्री तटों पर प्रत्येक शरीर की अलग प्रतिक्रया होती है। इसी कारण सभी लोग मौसम या स्थान बदलने पर एक समान स्वास्थ्य समस्याओं का सामना नहीं करते। अगर आपको अपना दोष पता है तो आप सावधान हो सकते हैं और इससे स्वस्थ रहने में भी मदद मिल सकती है। मौसम बदलते ही आप एलर्जी या स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को रोकने और स्वस्थ रहने के लिए कुछ कदम उठा सकते हैं। कुछ करने का मतलब भोजन को मौसम के अनुसार बदलना, आयुर्वेदिक दवा लेना अपने व्यायाम के समय और प्रकार में परिवर्तन करना है।
हम अपने दोष का संतुलन कैसे बनाए रख सकते हैं?
आपकी भोजन की आदत, शारीरिक गतिविधियां, मानसिक स्वभाव और आसपास की स्थितियां दोषों के के संतुलन को बनाएं रखती हैं और हम स्वस्थ रहते हैं। सर्दी में ठंड और हवा, वात के दोष को बढ़ाती हैं। यदि आपका वात असंतुलित है तो आप अपने भोजन में परिवर्तन कर इस संतुलन को दोबारा हासिल कर सकते हैं। सही निदान के लिए एक विशेषज्ञ की राय अनिवार्य है और यहीं एक आयुर्वेदिक चिकित्सक का अनुभव काम आता है। एक आयुर्वेदिक चिकित्सक आपको वात, पित्त और कफ के बारे में बता सकता है। हालांकि, इलाज अलग-अलग होता है। कुछ पंचकर्म का उपयोग कर शरीर को डिटॉक्स करते हैं, जबकि कुछ चिकित्सक दवाओं से इलाज करने की कोशिश करते हैं। कुछ लोग जीवनशैली में सुधार, जबकि कुछ अन्य योगाभ्यास (Yogabhyas) को शामिल करने की सलाह देते हैं।
दोष का संतुलन रखने में योग मदद कर सकता है?
बेशक! मन और शरीर, प्राण यानी जीवन ऊर्जा से करीब से जुड़े होते हैं। योग, प्राण को संतुलित कर शरीर और मन के बीच संतुलन और सद्भाव लाता है, यह स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है। इसलिए योगाभ्यासी को दोष असंतुलन का इलाज करने से पहले आयुर्वेद का आधारभूत ज्ञान होना ज़रूरी है।
क्या योग और आयुर्वेद परस्पर संबंधित हैं?
हां, योग और आयुर्वेद दोनों जुड़े हैं। प्रारंभिक काल में, लोग ध्यान लगाते थे और एक स्वस्थ जीवनशैली का पालन करते थे। अत: बीमार कम होते थे और स्वस्थ रहते थे। बाद में जब जीवनशैली विकसित हुई तो लोग बीमार पड़ने लगे। चिकित्सा ज्ञान की ज़रूरत ने आयुर्वेद को जन्म दिया। शुरू में यह सहज विज्ञान था। बाद में लोगों ने इलाज का डॉक्यूमेंटेशन शुरू किया और आज हम उसे आयुर्वेद के रूप में जानते हैं।
क्या योग आयुर्वेद पद्धति का विस्तृत हिस्सा है?
हां, आयुर्वेद दरअसल शरीर, मन और आत्मा, जिन्हें जीवन की समर्थन प्रणाली माना गया है के ट्रायपॉड प्रिंसिपल पर आधारित है। अगर इस ट्रायपॉड का एक भी पैर खराब होगा तो संतुलन बिगड़ेगा। स्वस्थ रहने के लिए इनका संतुलन जरूरी है।
योग विज्ञान तीन प्रणालियों को जोड़ता है। एक आम आदमी के लिए योग, आसन और व्यायाम का भौतिक पहलू हो सकता है। लेकिन हकीकत में महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग में योग विज्ञान को 8 हिस्सों में बांटा गया है। दूसरी ओर आप आयुर्वेद को जीवनशैली विज्ञान कह सकते हैं। आयुर्वेदिक उपचार सिद्धांतों का पालन करते हुए यदि आप अपनी गतिविधियों को बदलते हैं, योगासन और ध्यान करते हैं तो ये सभी मिलकर एक स्वस्थ और संतुलित लाइफ स्टाइल का निर्माण करते हैं। यह स्वस्थ रहने के लिए बहुत ज़रूरी है।
क्या योग और आयुर्वेद, विज्ञान के दायरे में आते हैं?
वैज्ञानिक पृष्ठभूमि वाली कोई भी चीज़ विज्ञान है। शरीर पर योग के प्रभाव के प्रमाण मौजूद हैं। इसी वजह से इसे योग विज्ञान कहा जाता है। दूसरी ओर आयु का अर्थ है जीवन और वेद का अर्थ है विज्ञान। अत: सामूहिक रूप से आयुर्वेद को जीवन विज्ञान कहा जाता है।
क्या हम अपने दोषों की पहचान कर माइग्रेन, ब्रोंकाइिटस या स्पॉन्डिलाइिटस जैसी सामान्य चिकित्सा स्थितियों से निपट सकते हैं?
चलिए माइग्रेन को ही लेते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, माइग्रेन केवल बीमारी नहीं है। माइग्रेन के 7 प्रकार हैं, जो विभिन्न दोषों के मिलने से होते हैं। आयुर्वेद में हर श्रेणी के माइग्रेज के मूल और लक्षण का पता लगाया जा सकता है। यह माइग्रेन वात बढ़ने से या फिर वात व कफ बढ़ने या फिर केवल पित्त बढ़ने से हो सकता है। हर संयोजन की तीव्रता व समय अलग होता है। 5 से 10 सवालों का जवाब मिलने पर ही निदान हो सकता है। इसे ठीक करने की योजना बनाने से पहले सब बातों का पता लगाना आवश्यक होता है।
बीमारी की जड़ का पता लगाने के लिए आयुर्वेद में एक विशेष उपचार विधि अर्थात ‘नाड़ी परीक्षा’ का उपयोग किया जाता है। डॉक्टर मरीज की पल्स को पकड़कर शारीरिक और मानसिक स्थिति का पता करते हैं। कहा जाता है कि आधुनिक उपचार विधि के मुकाबले नाड़ी परीक्षण से मरीज की बीमारी के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल की जा सकती है।