डोकरा आर्ट (Dhokra Art) जिसे ओडिशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल के ग्रामीण सदियों से बनाते आ रहे हैं, इसी कला को नई सोच और नए तरीके से पेश कर पूर्वी सिंहभूम जिले के मोहन कर्ण खूब नाम कमा रहे हैं। मोहन झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के रहने वाले हैं। डोकरा आर्ट के जरिए ये प्रकृति से जुड़ी चीजें यानि जल, जंगल, जमीन से जुड़ी कलाकृति, आदिवासी संस्कृति को दर्शाते शो-पीस, पीतल से बने हाथी, मछली, आदिवासी आर्ट के साथ सजावट के सामान तैयार करते हैं, जिसे केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार के साथ देश-विदेश के बड़े कॉरपोरेट समूह के लोग एक दूसरे को गिफ्ट करने के लिए खरीदते हैं। वहीं मोहन देश-विदेश में आयोजित होने वाले मेले में शिरकत करते हैं। जहां पर इन वस्तुओं की न केवल प्रदर्शनी लगाते हैं, बल्कि कला व संस्कृति का प्रचार करते हैं। इसके अलावा युवाओं को प्रशिक्षण देकर इस कला की जानकारी देते हैं, ताकि वे भी आमदनी हासिल करने के साथ-साथ इस कला को आज के दौर में भी जीवंत कर सकें।
मोहन कर्ण से बातचीत के प्रमुख अंश।
डोकरा आर्ट क्या है? वहीं इसे कहां के लोग व किस समुदाय के लोग बनाते हैं? इसका इतिहास क्या रहा है?
मोहन बताते हैं कि डोकरा आर्ट काफी पुराना आर्ट है, जिसे पीतल, एल्युम्युनियम आदि धातु से बनाते हैं। कुम्हार जाति के आदिवासी सदियों से इसे बनाते आ रहे हैं। वर्तमान में ओडिशा, झारखंड के हजारीबाग, पूर्वी सिंहभूम व बंगाल के बांकुड़ा आदि में लोग इसे बनाते हैं। इसे राणा, कर्म, मल्होर समुदाय के लोग बनाते हैं। इसे बनाना काफी मुश्किल भरी प्रक्रिया है, जिसके तहत पहले मिट्टी का सांचा तैयार किया जाता है, फिर भट्टी में रखकर उसमें उबला हुआ तांबा व पीतल डालते हैं। सांचा जब ठंडा हो जाए तो उसे तोड़कर अंदर की कलाकृति को निकालकर पॉलिश किया जाता है। इसे तैयार करने में एक महीने से भी अधिक समय लगता है।
आपने ये कला किससे सीखी? कहीं ये पारिवारिक विरासत तो नहीं जिसे आप बढ़ा रहे हैं।
मोहन बताते हैं कि डोकरा आर्ट मैंने अपने दादा जी से सीखी। हम कुम्हार जाति से आते हैं। मेरे दाता पोयला (पारंपरिक वस्तु है जिससे हम अनाज नापते हैं) बनाते थे और गांव-गांव घूम-घूम कर बिक्री करते थे। इसी से हमारा जीवन चलता था। जिस डोकरा आर्ट की तकनीक से मेरे दादा ये तैयार करते थे, ठीक उसी तर्ज पर मैं भी वस्तुओं को तैयार करता हूं। बस फर्क सिर्फ इतना है कि मेरे दादाजी पोयला व मिट्टी के अन्य सामान तैयार करते थे और मैं तांबा व पीतल की वस्तुओं को तैयार करता हूं।
डोकरा आर्ट को किस-किस समुदाय के लोग बनाते हैं? इस कला को और लोगों तक पहुंचाने के लिए आप क्या करते हैं?
मोहन बताते हैं कि इसे झारखंड (Jharkhand) के खूंटी व हजारीबाग जिले में भी तैयार किया जाता है। पूर्वी सिंहभूम में चाकुलिया के बेंद गांव में, जहां 12 राणा समुदाय के लोग इसे बनाते हैं, उलीसूता गांव में 5 राणा समुदाय के लोग व सुंदरनगर तुरामडीह गेट के पास नांदुप गांव में 30 लोग इस कला को बनाते हैं, जिसमें अनुसूचित जाति-जनजाति, राणा, हो, संथाली समुदाय के लोग इस आर्ट को बनाने में हमारे साथ जुड़े हैं।
मेरी कोशिश यही है कि इस विरासत से युवा भी जुड़ें। यदि वो नहीं जुड़ेंगे तो ये एक दिन विलुप्त हो जाएगी। इसलिए मैं गांव-गांव में जाकर जो लोग इस कलाकृति को बनाने में अपनी इच्छा दिखाते हैं, मैं उनको जोड़ता हूं। उन्हें इस आर्ट को तैयार करने का प्रशिक्षण देता हूं। ताकि ये कला विलुप्त न हो।
आपको डोकरा आर्ट बनाने की प्रेरणा कहा से मिली? वहीं आप इस कला को कैसे विकसित करने का काम कर रहे हैं?
मोहन ने कहा कि सबसे पहले मैं भी दादा की ही तरह पोयला (वस्तु नापने का सामान), सहित अन्य सामान जैसे कैंडल स्टैंड आदि बनाकर देश के अलग-अलग राज्यों में लगने वाले एग्जीबिशन में ले जाता था। लेकिन, वहां लोग इसे उतना अधिक पसंद नहीं करते थे। धीरे-धीरे मैंने देवी-देवताओं की मूर्ति को डोकरा आर्ट की मदद से तैयार करना शुरू किया। इसका लोगों में काफी अच्छा रिस्सपांस देखने को मिला। लोग मेरे द्वारा बनाई गई वस्तुओं को खरीदने लगे। धीरे-धीरे कर मैं जानवरों के साथ सजावटी सामान व आर्ट के जरिए आदिवासियों का शिकार पर्व, सांस्कृतिक नृत्य आदि को भी डोकरा आर्ट में दर्शाने लगा। इसका रिस्पांस अच्छा मिला और लोगों को काफी पसंद आया। मेरे और मेरे साथ जुड़े लोगों द्वारा तैयार किए प्रोडक्ट्स की खूब बिक्री हुई। इसके बाद मैंने कलाकृतियों के साथ लोगों के इस्तेमाल की वस्तुओं को भी तैयार करने लगा। इसमें पेपर वेट, जानवर की मूर्ति में कैंडल स्टैंड तैयार करने लगा। लोगों ने इसे खूब पसंद किया। धीरे-धीरे ग्रामीणों को भी रोजगार मिलने लगा और कला की पहुंच छोटे से कस्बे से निकल भारत भर में पहुंचने लगी।
इस दिशा में काम करते हुए अबतक की सबसे बड़ी उपलब्धि आपके लिए क्या रही?
बकौल मोहन झारखंड में 2014 में मोमेंटम झारखंड का कार्यक्रम हुआ था, जिसमें देश-विदेश से आए विभिन्न कंपनियों के प्रतिनिधियों को डोकरा आर्ट से तैयार उड़ता हाथी दिया था। इसके लिए झारक्रॉफ्ट संस्था ने हमें 3500 उड़ता हाथी डोकरा आर्ट की तर्ज पर तैयार करने को कहा था। हमने महज 11 दिनों में यह प्रोजेक्ट तैयार कर 3500 उड़ता हाथी सौंप दिया था। उस दौरान, चाकुलिया और पूर्वी सिंहभूम के 300 ग्रामीणों ने मिलकर इसे तैयार किया था।
जैसा कि आपने पहले बताया कि इसे तैयार करने में एक महीने तक का समय लगता है, आप इसे कैसे तैयार करते हैं उसके बारे में बताएं?
सबसे पहले इसे बनाने के लिए मोहन बताते हैं कि मिट्टी और भूसा को आपस में अच्छी तरह मिलाकर गूथना पड़ता है। तैयार मिश्रण से सांचा तैयार किया जाता है, जिसमें हाथी, हिरण या जो चाहें वो सांचा तैयार कर सकते हैं। उसके बाद इसे बलुई मिट्टी का लेप लगाकर धूप में सूखने के लिए रखा जाता है। अब सांचा पर कारीगरी करने के लिए धागे तैयार किए जाते हैं, जिसमें मधुमक्खी के छत्ते से मोम और यूकेलिप्टस के पौधे से मिले धूना की मदद से रस्सी तैयार की जाती है। इसे गर्म कर सांचे में चिपकाया जाता है। फिर सांचे को मिट्टी से ढककर सूखाया जाता है। सूखने के बाद उसमें होल किया जाता है, जिसे ग्रामीण चोंगा कहते हैं। होल किए गए जगह को मोम से भर दिया जाता है।
अब कोलले की मदद से भट्टी को गर्म किया जाता है, जिसमें मोची नामक बर्तन में पीतल को तबतक गर्म किया जाता है जबतक वो पिछल न जाए। पीतल के पिघलने के बाद उसे सांचे में डाला जाता है। इसके एक दिन के बाद सांचे को खोला जाता है और तैयार डिजाइन बाहर निकाल ली जाती है।
क्या आप एक मोल्ड का इस्तेमाल बार-बार कर सकते हैं या फिर बार-बार आपको नया मोल्ड बनाना होता है?
आर्ट को तैयार करने वाले मोहन बताते हैं कि एक मोल्ड से सिर्फ एक ही डिजाइन तैयार की जा सकती है। कई बार ऐसा होता है कि 10 मोल्ड में सिर्फ छह या आठ ही अच्छे से तैयार हो। यदि हाथी बना रहे हैं, तो उसमें किसी हाथी का पैर अच्छे से न आए। ऐसी समस्या हो सकती है। कुल मिलाकर कहें तो ये काफी मेहनत भरा काम है, क्योंकि ज्यादातर यही होता है कि यदि हमारी आधी मेहनत बेकार ही जाती है। इस काम को करने में काफी मेहनत और शिद्दत की जरुरत होती है।
तैयार प्रोडक्ट को तार के ब्रश से बफिंग की जाती है। ऐसा कर धातु की चमक को निखारा जाता है। डोकरा आर्ट को पीतल के साथ एल्युम्युनियम से भी तैयार किया जाता है। ऐसा करने के बाद उसमें पॉलिशिंग कर इसे चमकाया जाता है, जिससे यह देखने में काफी आकर्षक लगता है।
डोकरा आर्ट को आगे बढ़ाने को लेकर आप अपनी सोच के बारे में बताएं? वहीं आप अपने प्रोडक्ट के लिए बाजार कैसे तलाशते हैं, कहां बिक्री करते हैं?
मोहन बताते हैं कि मैं चाहता हूं कि डोकरा आर्ट को तैयार करने की दिशा में युवाओं की भागीदारी बढ़े। ऐसा होगा तभी ये विरासत सदियों तक जिंदा रहेगी। यही वजह है कि मैं चाहता हूं कि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे तैयार करने की पारंपरिक विधि को जानें।
जहां तक बाजार की बात है तो मैं स्थानीय व देश भर में लगने वाले मेले में डोकरा आर्ट का स्टाल लगाता हूं। इसके अलावा कॉरपोरेट के साथ समन्वय बनाकर उन्हें देता हूं। इतना ही नहीं मैं इन प्रोडक्ट्स को ऑनलाइन भी प्रदर्शित करता हूं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे खरीद सकें। मौजूदा समय में लोग विदेशी वस्तुओं को घरों में तो सजाते हैं, लेकिन भारतीय वस्तुओं को उतना तरजीह नहीं देते हैं, लोगों को भी भारतीय वस्तुओं को खरीदकर हम जैसे कारीगरों को प्रोत्साहित करना चाहिए।