लोक संगीत महज़ एक संगीत शैली नहीं है; बल्कि इससे भी अधिक है। लोक संगीत भूतकाल को वर्तमान से जोड़ता है। इसे संगीत का एक उपांग भी नहीं कहा जा सकता। इसे सुनकर लोग अनायास मुक्त भाव अनुभव करते हैं और इस मुक्तता में भी सबको जोड़ देने की क्षमता है। यह तो ऐसी भाषा है जो सब समझ जाते हैं।
लोक संगीत (Lok Sangeet) व्यक्ति को ऊर्जा से भर देता है, दिल में जोश भर देता है और जब भी हम संगीत सुनते हैं, हमारा मन प्रसन्न हो उठता है। लोक संगीतकार के मंच पर आते ही यह परम्परागत संगीत हमें उन दिनों के माहौल में ले जाता है। लोक संगीत की दुनिया में ऐसा ही एक नाम है, मामे खान। उनकी जोशीली, गूंजती आवाज़ से हर घर में वे जाना पहचाना नाम बन गए हैं। खुशमिज़ाज़ मंगनीयार समुदाय से जुड़े मामे खान (Mame Khan) का संगीत समय और स्थान की किसी सीमा में नहीं बंधता। मामे खान ने लोक संगीत की समृद्ध सम्पदा और संजीदगी को संजोया है और संगीत प्रेमियों की नई युवा पीढ़ी तक पहुंचाया है।
‘सोलवेदा’ की प्रधान संपादक शालिनी के. शर्मा से बातचीत करते हुए मामे खान ने लोक संगीत के प्रति अपने जुनून, मंगनीयार लोगों और उनकी सांस्कृतिक जड़ों के बारे में जानकारी दी।
आप ऐसे संगीतकार परिवार में जन्मे हैं, जो 15 पीढ़ियों से लोक संगीत के क्षेत्र में हैं, तो क्या इस विरासत के कारण ही आपमें लोक संगीत के प्रति इतना जुनून पैदा हुआ?
जवाब में खान साहब ने कहा, मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं; क्योंकि मैं भारत की उन पीढ़ियों में से एक का बाशिंदा हूं, जिन्होंने बिना टीवी और वीडियो गेम के बिना अपना बचपन बिताया है। जिस गांव में मैं पैदा हुआ हूं वहां मेरे आसपास रेत के टीले और संगीत ही था। संगीत समुदाय में पैदा होने से संगीत मेरी रोज़मर्रे की ज़िंदगी का हिस्सा था। खासकर मेरे मरहूम पिता उस्ताद राना खान मेरी प्रेरणा थे। मैंने उन्हें देश का सफर करते और हर सफर के बाद संगीत के बारे में नए-नए किस्से सुनाते हुए देखा है। हमारी परम्परागत जड़ों ने मुझे मेरे पिता और समुदाय की इस धरोहर को आगे बढ़ाने की प्रेरणा दी।
लोक संगीत विशुद्ध कंठ-गायन और प्राकृतिक स्वरों से हज़ारों साल में समृद्ध हुआ है। इलेक्ट्रानिक संगीत के इस दौर में उसका क्या स्थान है?
यदि आप मुझसे मंगनीयार लोक संगीत के बारे में पूछें तो मैं कहूंगा यह मात्र विशुद्ध गायन और प्राकृतिक सुरों तक सीमित नहीं है। वस्तुतः हमारी शैली को लगभग अर्धशास्त्रीय संगीत कहा जा सकता है। हमारे कामायछा और सारंगी जैसे विशिष्ट वाद्य बहुमुखी (अनेक गुणों वाले) और मिश्रित होते हैं। हमारा संगीत इलेक्ट्रानिक संगीत की तरह ही बहुत लयबद्ध है। शैली के बारे में आपस में कोई स्पर्धा नहीं है। यहां तक कि मैंने नए सुरों और आधुनिक शैली के साथ कई फ्यूजन बनाए हैं। बदलाव तो होना चाहिए, लेकिन हमें अपनी जड़ों को भी नहीं भूलना चाहिए।
आपके लोक संगीतकार होने का मतलब है अपनी सांस्कृतिक जड़ों के साथ जुड़े रहना। क्या आपको लगता है कि लोक संगीतकार को संगीत की दुनिया में आज हो रहे बदलावों का अनुकरण करना चाहिए?
लोक संगीत के बारे में मैं कोई सतही टिप्पणी नहीं करूंगा, मैं तो अपने संगीत के बारे में कह सकता हूं। मुझे लगता है कि ऐसी कोई मज़बूरी नहीं है और जल्दबाजी में बदलाव कर देना ठीक भी नहीं है। हमारे संगीत के कुछ तत्व कालातीत हैं, लेकिन कुछ बदले जा सकते हैं। मिसाल के तौर पर मैं अपने संगीत की रफ्तार अक्सर बदलता रहता हूं, जिससे उसमें नयापन आ जाता है; लेकिन मूल लोक रचना का सौंदर्य बना रहता है। युवावस्था में ही संगीत से जुड़ जाने से व्यक्ति के जीवन में नए आयाम खुलते हैं।
क्या आप अपने बच्चों को भी अपनी ही तरह गाने-बजाने की ओर मोड़ना चाहते हैं?
मंगनीयार समुदाय (Mangniyar samuday) की युवा पीढ़ी के इन बच्चों में नाचने, गाने और बजाने की उमंग है। मैंने नया बैंड बनाया है; ताकि बच्चे आए और नाचने, गाने और बजाने का रियाज़ कर सकें।
मंगनीयार समुदाय के होने पर भी आप हिन्दू देवताओं के गीत गाते हैं। आपके संगीत में कई संस्कृतियों के रंग हैं। सांस्कृतिक सौहार्द को बनाए रखने में इसका कितना योगदान है?
मुझे लगता है कि हमारा समुदाय सहिष्णुता का बेहतर उदाहरण है। मुस्लिम होने के बावजूद हम हिन्दू देवताओं के भक्ति गीत गाते हैं। संगीत तो एक ही भाषा जानता है और यदि संगीत लोगों को जोड़ें, तो इससे अधिक खुशी की बात और क्या होगी? लेकिन फिर भी, जवाबदेह राजनीति और सुचारू प्रशासन की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।