उन दिनों जब टीबी से ज्यादा लोग रेडियो सुना करते थे, वो रेडियो का ज़माना था
‘आपकी फरमाइश’, ‘संगीत भरी कहानियां’, ‘हवामहल’ जैसे शो का लोगों को इंतजार रहता था
जैसे ही प्रसारण शुरू होता था
लोगों का ध्यान रेडियो पर और मन कल्पनाओं में डूब जाता था।
बचपन के अनमोल दिन हम सभी को याद हैं। मुझे बचपन के वो दिन याद आते हैं, जब हर दिन की शुरुआत रेडियो के समाचार बुलेटिन से और खत्म क्लासिक संगीत पर होती थी। संगीत मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा है। इसलिए शो-केस में रखा वह पुराना रेडियो सेट मुझे बेहद प्यारा था। मुझे वह रविवार की दोपहर अच्छे से याद है। जब घर के सभी सदस्य आराम करते थे, तब मैं अपने चचेरे भाई-बहन के साथ रेडियो सुनता था। अपने पसंदीदा गानों का इंतज़ार करने का एक अलग ही मज़ा रहता था। रेडियो का ज़माना आज भी मेरी यादों में ऐसा बसा है, जिन्हें मैं संजो कर रखता हूं।
अब ज़माना बदल गया है। लोगों की पसंद में विभिन्नताएं विकसित हो गई हैं। मनोरंजन के तरीके भी बदल गए हैं। लेकिन रेडियो ने नए ज़माने में भी अपने पुराने आकर्षण को बनाए रखने में कामयाबी हासिल की है। पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण बदलावों के बावजूद रेडियो लोगों का मनोरंजन करता रहा है। यूं कह लें कि रेडियो का ज़माना कभी खत्म ही नहीं हुआ।
विश्व रेडियो दिवस (Radio day) के अवसर पर अनुभवी रेडियो पेशेवर – शीतल अय्यर, जोंजी कुरियन, डेरियस सुनावाला और प्रशांत वासुदेवन के अनुभव साझा कर रहे हैं। तो आइए उन्हीं की जुबानी भारत में रेडियो के विकास की कहानी जानते हैं। साथ ही जानेंगे कि कैसे कंटेंट अभी भी प्रेरक है और रेडियो का वर्तमान में महत्व क्या है?
रेडियो समाज के लिए सरकार की आवाज़ बनकर उभरा है। क्या आप सहमत हैं? (Radio Samaj ke liye sarkar ki aawaj bankar ubhara hai. kya aap sahmat hain?)
शीतल अय्यर : पुराने ज़माने में सरकार के पास कंटेंट के प्रसार के लिए रणनीति थी और उस पर नियंत्रण था। ऐसा नहीं है कि उस वक्त कंटेंट सूचनात्मक नहीं थे या जीवन में बदलाव नहीं लाते थे। वे कार्यक्रम लोकप्रिय और सामाजिक रूप से प्रासंगिक थे। तब यह एएम (एम्पलिट्यूड मॉड्यूलेशन) था, जो एक राष्ट्रीय व्यापी कवरेज था। अब यह एक क्षेत्रीय माध्यम बन गया है। जिसे एफएम (फ्रिक्वेंसी मॉड्यूलेशन) कहा जाता है। उन्होंने आज ऐसा कंटेंट तैयार किया है, जिसे आप सुनना चाहते हैं। ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि कंटेंट में भिन्नता इस माध्यम को अधिक उपयोगी और मूल्यवान बना रही है।
जोंजी कुरियन : भारत में हमारे पास कोई प्राइवेट रेडियो स्टेशन नहीं था। इसलिए सरकार द्वारा संचालित रेडियो स्टेशन स्वाभाविक रूप से सरकार की आवाज़ बन गया। जब प्राइवेट स्टेशनों की शुरुआत हुई, तो रेडियो को समाज की आवाज़ बनने का मौका मिला। जब कोई रेडियो स्टेशन एक निश्चित श्रोताओं को आकर्षित करता है, तो उनके लिए अपने श्रोताओं की आवाज़ को प्रसारित करना ज़रूरी हो जाता है।
डेरियस सूनावाला : सरकार द्वारा संचालित रेडियो स्टेशन, प्राइवेट स्टेशन, कम्युनिटी स्टेशन और नैरो कैस्टर हैं। ऐसे में उन्हें एक साथ नहीं जोड़ा जा सकता है कि रेडियो समाज की आवाज़ है, क्योंकि उनमें से प्रत्येक का एक निश्चित सिद्धांत है। सरकार द्वारा वित्त पोषित रेडियो सरकार की आवाज़ है। प्राइवेट स्टेशन पैसे कमाते हैं और अंत में बड़े पैमाने पर मनोरंजन स्टेशन बन जाते हैं।
प्रशांत वासुदेवन : मुझे लगता है कि बदलाव का इंतजार था और यह तब हुआ जब सरकार ने प्राइवेट चैनलों को अनुमति दे दी। लेकिन मुझे अब भी लगता है कि रेडियो सरकार की आवाज़ है। यह अभी भी इस तरह से काम करता है, जहां आप अपनी सभी बातें नहीं रख सकते हैं। अब रेडियो मनोरंजन चैनल को अधिक प्रसारित करते हैं। सरकार की आवाज़ से समाज की आवाज़ बनने का यह पूरा बदलाव समाज में हो रहे परिवर्तन की प्रतिक्रिया थी।
कंटेंट ही मर्म है चाहे वह पत्रिका हो, टेलीविजन हो या रेडियो। रेडियो पर कंटेंट कैसे विकसित हुआ है?
शीतल अय्यर : कंटेंट की प्रासंगिकता नहीं बदली है, चाहे वह संगीत हो या किसी अन्य गुणवत्ता वाले कंटेंट। संगीत की प्रासंगिकता पर सवाल नहीं उठा सकते हैं। यह हमेशा समय की कसौटी पर खरा उतरता है। लेकिन जो बदलाव है वह यह है कि दुनिया बड़ी हो गई है। पहले संगीत और कंटेंट तक पहुंच सीमित थी। अब संगीत पेश करना और उसे सुनने का तरीका बदल गया है। मुझे लगता है कि श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने की अवधि अब कम हो गई है, जो एक नकारात्मक पहलू है। साथ ही कंटेंट की शेल्फ लाइफ भी सीमित हो गई है।
जोंजी कुरियन : जिस तरह से हम कंटेंट पेश करते हैं, अब उसमें बदलाव आ गया है। आज एक रेडियो स्टेशन सिर्फ FM डायल पर मौजूद नहीं है। हम ऐप और सोशल मीडिया के जरिए भी कंटेंट प्रसारित करते हैं। पहले के समय में कार्यक्रम का फॉर्मेट अधिक व्यापक हुआ करता था, क्योंकि स्टेशन कम थे और एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते थे। अब स्टेशन ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। इसलिए संगीत के छोटे फॉर्मेट पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
डेरियस सूनावाला : पहले के कंटेंट आराम से पढ़े जाते थे और शांत व मधुर मनोरंजन पर केंद्रित थे। लेकिन जैसे-जैसे बाजारीकरण का विकास हुआ, तो वाणिज्यिक रेडियो स्टेशन श्रोताओं की अपेक्षाओं के अनुसार विकसित हुए। उन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कंटेंट को छोटा, गतिशील और अधिक मनोरंजक बनाया गया।
प्रशांत वासुदेवन : मुझे लगता है कि पहले के कंटेंट अधिक सार्थक थे। जब मैं कंटेंट की बात करता हूं, तो मेरा तात्पर्य आरजे (रेडियो जॉकी) की बात से होता है। आज हमारे पास विज्ञापन अधिक हैं। इसलिए हमें अधिक संगीत बजाना होता है। शायद इसलिए आरजे के पास बोले जाने वाले कंटेंट कम हैं और इसे छोटा और मनोरंजक रखना होता है। दूसरा पहलू यह है कि श्रोताओं का ध्यान पहले की तुलना में कम हो गया है और रेडियो स्टेशन पर रुकने का समय बढ़ गया है। इसलिए हमारे पास श्रोताओं के लिए हल्के-फुल्के और कम सोचने वाले कंटेंट बनाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
समय के साथ ज्यादा संवादात्मक बनने के बाद रेडियो का अनुभव कैसे बेहतर हुआ है?
शीतल अय्यर : कुछ कहने या सुनने की ज़रूरत तो पहले से ही रही है, जिसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। मुझे लगता है कि टेक्नोलॉजी ने बड़े पैमाने पर लोगों को तुरंत बातचीत करने में सक्षम बनाया है। उन दिनों श्रोता सिर्फ स्पीकर की सुनते थे, स्टेशन पर लिखकर भी आरजे से संपर्क नहीं कर पाते थे।
जोंजी कुरियन : रेडियो का ज़माना कभी पुराना हुआ ही नहीं, वो हमेशा से संवादात्मक जरिया रहा है। एक ऐसा वक्त था, जब रेडियो सिर्फ ‘लोगों से बात’ करता था। यह रेडियो और अन्य मीडिया प्लेटफॉर्म के बीच एक प्रमुख अंतर है। ऑल इंडिया रेडियो के श्रोता पहले के ज़माने में पत्र लिखते थे। फिर हम फोन कॉल और अब एसएमएस पर चले आए। आज लोग मोबाइल ऐप और सोशल मीडिया के जरिए रेडियो स्टेशन से बातचीत कर रहे हैं।
डेरियस सूनावाला : रेडियो स्टेशनों ने अपने श्रोताओं के साथ तेज़ी से जुड़ने के लिए संघर्ष किया। इससे बातचीत बहुत ज़रूरी हो गई। आज रेडियो स्टेशन इंटरएक्टिव रहने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, क्योंकि यह उन्हें श्रोताओं के करीब लाता है। यही कारण है कि लोग रेडियो स्टेशन पर अधिक समय तक बने रहते हैं।
प्रशांत वासुदेवन : रेडियो में इनोवेशन की जरूरत थी। इसे अप टू डेट रखने के लिए लोगों के साथ बातचीत की जरूरत पड़ी। इंटरनेट पर हो रहे बदलावों की प्रतिक्रिया के रूप में रेडियो ने खुद में अहम बदलाव किए। जैसा कि हमें पता हैं कि इंटरनेट से मुकाबला करना आसान बात नहीं है। विशेष रूप से इतने सारे नए एप आने के साथ प्रतिस्पर्धा और भी बढ़ गई है।