विश्व शांति की अवधारणा कभी-कभी आम आदमी की समझ से बाहर होती है। वह इसे यह कहते हुए दरिकनार कर देते हैं कि यह तो उन संपन्न लोगों का काम है, जिनके पास पैसा और समय है। आम आदमी के पास अपनी समस्याएं और संघर्ष होता है। यदि वह उठकर काम पर नहीं जा रहा है, तो फिर काम की तलाश करता है। यदि वह वज़न कम करने (Weight loss) की चिंता नहीं कर रहा है, तो उसे दो वक्त की रोटी जुटाने की चिंता होती है। कभी-कभी उसे अच्छे घर की खोज नहीं रहती, बल्कि वह सड़क पर रात गुज़ारने के लिए सूखी जगह खोजता रहता है।
मगर, सबसे अहम बात यह है कि विश्व शांति की बजाय आज विवादों से भरा पड़ा है। युद्ध, सैकड़ों की संख्या में विस्थापित लोग, विनाश और मौतें उस दुनिया की शक्ल को हर पल बदलती जा रही है जहां हम रहते हैं। जहां आम आदमी इस समय इससे दूर दिखाई दे रहा है। अहम सवाल यह है कि आखिर वह कब तक इसका हिस्सा बनने से खुद को रोक पाएगा। कल वह भी इसी तस्वीर का हिस्सा होगा। ऐसे में यह ज़रूरी ही नहीं बल्कि अनिवार्य है कि वर्ल्ड पीस को खोजें।
निचेरन बुद्धिस्ट ऑर्गेनाइजेशन सोका गाकाई इंटरनेशनल के अध्यक्ष दाइसाकू इकेदा ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट बेंगलुरू में 2016 में आए थे। संस्थान में आयोजित परिसंवाद में कहा था कि विश्व शांति की पहली सीढ़ी व्यक्तिगत बदलाव है। इस दौरान सोलवेदा की टीम ने भारत सोका गाकाई के अध्यक्ष विशेष गुप्ता से वर्ल्ड पीस के साथ बुद्धिस्ट फिलॉसफी की परंपरा की मान्यता रखने वाले संबंधों पर बात की।
साक्षात्कार के प्रमुख अंश:
इस हिंसा से भरे संसार में विश्व शांति को अपनी जगह कैसे मिलेगी?
आप इतिहास उठाकर देखिए जब भी दुनिया में प्राकृतिक आपदा, युद्ध, संघर्ष, विवाद हुआ है तब-तब विश्व शांति की आवश्यकता सबसे ज्यादा महसूस हुई है। ऐसी स्थितियों में वर्ल्ड पीस हासिल करना नामुमकिन लगता है। दूसरी ओर यह बात भी कही जाती है कि जब दुनिया में बुराई मज़बूत होती है, तो अच्छाई स्वत: उभरकर आती है।
आज ज़रूरत है कि हम 21वीं शताब्दी को विश्व शांति की शताब्दी बनाएं, क्योंकि 20वीं शताब्दी युद्धों की शताब्दी थी। हालांकि हम देखते हैं कि विज्ञान और तकनीक में उन्नति हुई है, लेकिन इसने मानव को वह शांति नहीं दी, जिसके वे हकदार थे। इस शताब्दी के भी 21 वर्ष निकल चुके हैं। अब सही समय है कि हम विश्व शांति की बात कर उसे हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दें।
जब सारी दुनिया में लोग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी चीज़ों के लिए परेशान है, तो शांति इसका हल कैसे हो सकती है?
देखें, दोनों ही ज़रूरी है और वे एक-दूसरे से जुदा नहीं हो सकते। अपने शांति प्रस्ताव में श्री इकेदा ने मूलभूत बातों पर बल दिया है, जिसमें भीतर होने वाले बदलाव की वजह से किसी व्यक्ति को ऐसी शक्ति मिल जाती है, जो दुनिया को बदल सकती है।
श्री इकेदा ने तीन क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए कहा है कि सरकारी, सामाजिक संस्थाओं को इस ओर तत्काल ध्यान देना चाहिए। इसमें शरणार्थी समस्या (रिफ्यूजी क्राइसिस), जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) और परमाणु हथियारों (न्यूक्लियर आर्म्स) का नाश शामिल है। विश्व शांति की बात के साथ हम आम आदमी की समस्याओं को दूर करने के लिए भी प्रैक्टिल उपाय करने पर ज़ोर दे रहे हैं।
उदाहरण के लिए अगर एक व्यक्ति तीन दिन से भूखा है, तो वर्ल्ड पीस (World piece) की बात करने से पहले उसे भोजन दिया जाए। आप उसे पर्याप्त भोजन दीजिए और फिर वर्ल्ड पीस की बात उससे कीजिए। हम भीतर के बदलाव पर ज़ोर दे रहे हैं। यह बात बड़ा बदलाव लाने के लिए ज़रूरी है।
2011 में तोहोकू भूकंप और सुनामी के दौरान जब खाने के पैकेट गिराए जा रहे थे तो लोग एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील थे। उन्होंने एक-दूसरे के लिए खाना छोड़ा था। उस समय लोगों ने दिमाग और भावनाओं की तय सीमा को पार कर अपनी ज़िम्मेदारी निभाई थी। यह बात सभी के दिल को छू गई थी।
मेरे और आपके जैसे साधारण लोग शांति के साथ खुद को कैसे जोड़ सकते हैं?
साधारण लोग ही असाधारण काम करते हैं। यह साधारण लोग ही हैं, जो शांति लाएंगे। जब मेरे और आपके जैसे लोग वर्ल्ड पीस के लिए खड़े होंगे तभी हम शांति को समझ पाएंगे। कोई किसी देश का राष्ट्रपति हो सकता है, तो कोई एक वक्त का खाना भी नहीं जुटा सकता, लेकिन दोनों की क्षमताएं एक जैसी हो सकती हैं। हमें अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं को पहचानना होगा।
हमसे हज़ारों मील दूर होने वाली घटना को लेकर हम संवेदनशील कैसे हो सकते हैं?
इंसानी जीवन अकेले नहीं चल सकता। हमें पूरा ईको सिस्टम चाहिए, जिसपर हम निर्भर हैं। हमारी खुशियां, कष्ट और चिंता सभी इस ईको सिस्टम पर आधारित हैं। हमें यह समझना होगा कि हम सबके जीवन परस्पर आपस में जुड़े हुए हैं। रिश्तों का एक ऐसा तत्व होता है, जो हमें एक-दूसरे के साथ साझा करता है। यह न दिखाई देता है न सुनाई और न ही लिखित हो सकता है। जब हम यह बात समझ जाते हैं फिर चाहे दूर-दराज सीरिया, अमेरिका या पाकिस्तान में जो कुछ होगा आपको प्रभावित करेगा ही।
क्या आपको लगता है कि लोग ऐसे बदलावों के लिए सक्षम हैं?
शत प्रतिशत, ऐसा ही आत्मविश्वास हम सभी में एक दूसरे के प्रति होना चाहिए। ऐसा होने पर हम अपनी पूरी क्षमता को पहचान सकेंगे। बौद्ध धर्म में इस क्षमता को ‘एनलाइटमेंट’ (ज्ञानोदय) कहा गया है। जब हमें ज्ञान मिलता है तो हम सर्वोच्च शक्ति को पहचान लेते हैं। इसके माध्यम से हम एक बेहतर समाज, एक बेहतर पर्यावरण और एक बेहतर समुदाय के साथ बेहतर दुनिया बना पाते हैं। जिन महान लोगों ने अब तक मानव जाति के लिए शांति और संपन्नता में अपना योगदान दिया है, उन्होंने पहले अपने भीतर की क्षमता को दूसरों का भला करने के उद्देश्य से पहचाना था। बुद्धिस्ट फिलॉसफी मानती है कि मानव माइक्रोसॉम (संसार का सूक्ष्म रूप) है और ब्रह्माण्ड माइक्रोकॉस्म अर्थात (संपूर्ण संसार) है। हम यह मानते हैं कि हम ब्रह्माण्ड में हैं, मगर इसके विपरीत यह भी सच है कि सूक्ष्म रूप के बगैर संपूर्ण रूप कहां से आया। अत: हमें ब्रह्माण्ड की इस शक्ति को महसूस कर मज़बूत इरादे के साथ विश्व शांति के लिए दूसरों की भलाई में जुट जाना चाहिए।
आज के समय में प्राचीन बुद्धिस्ट फिलॉसफी को आधुनिक दुनिया की शांति के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है?
बौद्ध धर्म के जो मूलभूत सिद्धांत हैं, वह शांति के रहे हैं। शाक्य मुनि बुद्ध ने हमें खुद के भीतर से बदलाव लाने पर ज़ोर देने को कहा था। आधुनिक शब्दों में हम इसे ह्यूमन इवोल्यूशन (मानव क्रांति) कह सकते हैं। शांति के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं मानव क्रांति और संवाद। मानव क्रांति का अर्थ है आतंरिक बदलाव लाना।
शांति प्रस्ताव में संवाद की आवश्यकता को विश्व शांति की ओर एक कदम बताया है। क्या आप इसे विस्तार से समझा सकते हैं?
श्री इकेदा जिस संवाद की बात कर रहे हैं, वह आम संवाद नहीं है। यह संवाद इस बात पर आधारित होता है कि अगर मैं इस व्यक्ति से बात करूंगा तो वह यकीनन ही बदलेगा, क्योंकि उसके अंदर अच्छाई मौजूद है। यह संवाद उसी वक्त कारगर साबित होगा जब आप इसे, ऐसे व्यक्ति से करें जो खुद ही अशांत है या फिर समाज में अशांति फैला रहा है। ऐसा करते हुए आप उन्हें शक्ति प्रदान करते हैं और यह समझाते हैं कि जो वह कर रहा है गलत कर रहा है ताकि वह सही दिशा में अपनी ऊर्जा खर्च कर सके।