वेदों का पहाड़

वेदों का पहाड़

‘वेदों का पहाड़’ नामक कथा हमें ब्राह्मण ग्रंथ से प्राप्त होती है। ब्राह्मण ग्रंथ वैदिक संहिता के मंत्रों को यज्ञ क्रिया से जोड़ते हैं। वे उन पर कई टिप्पणियां देते हैं जैसे, यज्ञ कैसे किए जाते हैं, मंत्रोच्चारण क्यों किए जाते हैं, कोई मंत्र किस संदर्भ में बोला जाता है, आदि-आदि।

ब्राह्मण ग्रंथ गौतम बुद्ध के अवतरण से लगभग 300 से 400 साल पहले रचे गए थे। इन ग्रंथों को पढ़ने से बुद्ध काल के पहले वेद काल में भारतीय संस्कृति में कैसे विचार थे, इसका हमें ज्ञान प्राप्त होता है। इनमें से सबसे विचारोत्तेजक कथा है ‘वेदों का पहाड़’।

यह कथा तैत्तिरीय ब्राह्मण से आती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में भारद्वाज नामक ऋषि के बारे में बताया गया है, जो ब्रह्मचारी जीवन जीते हैं और जीवनभर वेद पाठ करते हैं। उन्हें अपने तीन पुनर्जन्म याद हैं और हर जन्म में उन्होंने एक वेद का ज्ञान प्राप्त किया है, पहले जन्म में ऋग्वेद, दूसरे जन्म में यजुर्वेद और तीसरे जन्म में सामवेद का। तीसरे जन्म के अंतिम दिनों में इंद्र उनके सामने प्रस्तुत होकर उनसे पूछते हैं कि वे क्या चाहते हैं, क्या वे स्वर्ग जाना चाहते हैं या मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं? तब भारद्वाज कहते हैं कि वे एक और जन्म जीना चाहते हैं ताकि चौथे वेद का भी ज्ञान प्राप्त कर सकें। तब इंद्रदेव हंसकर उन्हें एक पहाड़ दिखाते हैं। वे उस पहाड़ से तीन मुट्ठी भर मिट्टी निकालकर भारद्वाज ऋषि को देते हैं और कहते हैं कि वह पहाड़ वेद का एक प्रतीक है। पूरे संसार का ज्ञान उस पहाड़ में है। हर वेद में केवल मुट्ठी भर मिट्टी जितना ज्ञान है। इस प्रकार तीन वेदों में केवल तीन मुट्ठी भर ज्ञान है। अनंत वेद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्हें अनंत बार जीवन जीना होगा। लेकिन मनुष्य जीवन को सुखी और समृद्ध बनने के लिए केवल तीन या चार वेदों का ज्ञान पर्याप्त है, उससे अधिक पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं। यह सुनकर भारद्वाज को बोध हुआ कि मनुष्य कितनी भी कोशिश कर ले, वह ब्रह्मांड का पूरा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। वेद अनंत हैं और संहिताओं से हमें केवल मुट्ठी भर ज्ञान ही प्राप्त होता है।

इस कथा से कई बातें पता चलती हैं। पहली कि पुनर्जन्म की बातें बुद्ध काल के पहले से ही शुरू हुई थी। जन्म और मृत्यु का एक चक्र होता है, इसके लेकर तो नए-नए विचार शुरू हो गए थे, लेकिन कर्म व पाप-पुण्य को लेकर स्पष्ट ज्ञान हमें पहली बार ब्राह्मण ग्रंथों से ही मिलता है। यहां इंद्र एक गुरु के रूप में प्रस्तुत होते हैं, जबकि वेदों में वे योद्धा रूप में नज़र आते थे। मतलब यहां इंद्र का नया रूप सामने आता है। तीसरी बात यह है कि वेदों के काल से अनंत की संकल्पना प्रस्तुत हुई है। सनातन धर्म, मतलब बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म अनंत को बहुत ही महत्व देते हैं। हम ब्रह्मांड, विश्व, काल और ज्ञान को अनंत मानते हैं। पूरा विश्व अखंडित है, बिना किसी दायरे के। मनुष्य अपनी विचारधाराओं से दायरे पैदा करता है। परम सत्य वह है जो अनंत है। मिथ्या वह है जो दायराबद्ध है, जो खंडित और सीमित है। तो जबकि हम सत्य और असत्य की बात करते हैं, वैदिक काल में वे सीमित और असीमित ज्ञान की बात करते थे, सीमित ज्ञान जो हमें पता है और असीमित ज्ञान जो वेदों में है। मनुष्य अपने पूरे जीवनकाल में केवल मुट्ठी भर ज्ञान प्राप्त कर सकता है। संवाद से हम अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं।

जीवन का उद्देश्य है वेद का ज्ञान प्राप्त करना और नम्रता से यह स्वीकार करना कि वेद एक अनंत पहाड़ होते हुए भी लोगों के साथ बातचीत करके हम अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं। संस्कृत में ब्राह्मण शब्द का स्रोत मन का विस्तार करने से आता है। यह विचार ब्राह्मण ग्रंथों से आता है कि अपने मन का विस्तार करने से ही जीवन सार्थक हो सकता है।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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