हर साल देश में मूसलाधार वर्षा शुरू होते ही लोगों को वर्षा के देवता याद आते हैं। लेकिन कौन हैं ये देवता? क्या इंद्र वर्षा के देवता हैं? हां, वे हैं, लेकिन क्या आपने इंद्र को समर्पित मंदिर कहीं देखें हैं? दरअसल, हिंदू देवता वर्षाऋतु में शयन करते हैं।
शयनी एकादशी से लेकर प्रबोधिनी एकादशी तक के चार महीनों के वर्षाऋतू में विष्णु आदिशेष पर शयन करते हैं। महाराष्ट्र के पंढरपुर जैसी जगहों में, जो वैष्णववाद के केंद्र हैं, विष्णु के शयन और जागने को मेलों और त्यौहारों से मनाया जाता है।
वर्षाऋतु साल के अशुभ भाग में आती है। इस समय सूर्य दक्षिण की ओर, कर्क राशि से मकर राशि तक यात्रा करता है। इसे दक्षिणायन कहते हैं और इस समय दिन छोटे और ठंडे होते जाते हैं। इस काल में बीमारी बढ़ती है, आपदाएं होती हैं और असुर तथा राक्षस अधिक शक्तिशाली होते जाते हैं। चार महीनों की इस अवधि को चातुर्मास कहते हैं और इसमें साधुओं के लिए यात्रा करना वर्जित माना जाता है।
शक्तिशाली असुर घने बादलों के रूप में आकाश में गड़गड़ाते हैं और धरती को पानी से वंचित करते हैं। फिर इंद्र उनपर वज्र चलाकर वर्षा लाते हैं। वैदिक काल में, इंद्र को वर्षा लाने में समर्थ बनाने के लिए लोग यज्ञ करते थे। वैदिक कवियों ने वर्षा के गड़गड़ाते बादलों को जंगली, चिंघाड़ते हुए हाथियों के झुंड के रूप में वर्णित किया। इंद्र श्वेत हाथी पर सवार होते थे, क्योंकि श्वेत हाथी खुले आकाश से जुड़ें श्वेत बादलों का प्रतीक था।
हाथियों, अप्सराओं और बादलों जितने विकृत तोंदुए यक्षों को प्राचीन काल से पानी के साथ जोड़ा गया है। हाथियों, नागों, यक्षों और अप्सराओं से जुड़ें उर्वरता अनुष्ठानों में कामुकता अंतर्निहित है। इसलिए कई विद्वान मानते हैं कि इनकी जड़ें पूर्व-वैदिक हैं या कम से कम वेदों के बाहर स्थित हैं। और यह कि उन्हें अथर्ववेद जैसे उत्तरकालीन वेदों के माध्यम से वैदिक मुख्यधारा में लाया गया। लेकिन यह बहस सैद्धांतिक है। रोचक बात यह है कि जैसे आधुनिक काल में समाज में सेंसरशिप को लेकर वाद-विवाद होते हैं वैसे प्राचीन काल से मठवासी और उर्वरता संप्रदायों के बीच संघर्ष होते आए हैं। इन संघर्षों ने अनुष्ठानों और चिन्हों का रूप लिया। स्पष्टतया तब से आज तक कुछ नहीं बदला है।
ब्रह्मचर्य के अलौकिक उद्देश्यों के कारण प्राचीन भारत में उसे अनुर्वरता और सूखे से जोड़ा गया। एक प्रसिद्ध कहानी में ऋष्यश्रृंग के पिता ने उन्हें इतनी लंबी अवधि तक महिलाओं से दूर रखा कि वर्षा ने गिरने से इनकार किया। पास के राजा द्वारा भेजी गणिका ने जैसे ऋष्यश्रृंग को लुभाया वैसे भारी वर्षा होने लगी। धरती और महिलाएं उर्वर बन गईं। ऋष्यश्रृंग के यज्ञों से दशरथ सहित अन्य निःसंतान राजाओं को संतान होने लगें, जिसके लिए वे प्रसिद्ध हुए।
वर्षा ने द्यौष नामक पौरुष आकाश को स्त्रैण पृथ्वी से जोड़ा। वर्षा तब होती थी जब अप्सरा वैरागी को लुभाती थी। ग्रीष्मऋतु में होने वाले गंगा दशहरा के त्योहार में गंगा का पृथ्वी पर अवतरण मनाकर ये विचार दर्शाए जाते हैं। कहते हैं कि गंगा के अवतरण से पृथ्वी के नष्ट होने का डर था। तब शिव अपने तप से जाग उठें और उन्होंने गंगा को अपनी जटाओं में पकड़कर पृथ्वी को बचाया। गंगा शिव की पत्नी बन गईं, वे गृहस्थ बन गए और सूखी पृथ्वी वर्षभर उर्वर बन गई।
जैसे हिंदू धर्म मठवासी बनते गया वैसे इंद्र कम लोकप्रिय बनते गए। जबकि पहले, इंद्र अप्सराओं से जोड़ें जाते थे, अब वे मूसलाधार वर्षा से जोड़ें जाने लगें। कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाकर वृंदावन के ग्वालाओं और ग्वालिनों को वर्षा से बचाया और इंद्र को वश में किया। भागवत के अनुसार कृष्ण ने वासनाओं को भक्ति से संयमित किया।
कृष्ण और राधा के चोरी छिपे किए प्रेम की कामुकता को इस बात ने संतुलित किया कि कृष्ण को रुक्मिणी के साथ विवाह करके सामाजिक बंधनों के अधीन होना पड़ा। यह बात उन कई कहानियों में रूप लेती है जिनमें कृष्ण अप्सरा प्रेमी इंद्र को पराजित करते हैं। कृष्ण परमात्मा के एकमात्र रूप हैं जिनका अशुभ चातुर्मास में जन्म हुआ। इसलिए, वे कलियुग, आध्यात्मिक अंधेरे का वह युग जिसमें हम संभवतः जी रहें हैं, का विरोध करने के लिए परमात्मा के सबसे योग्य रूप हैं।
भक्ति परंपरा के उदय के साथ लोगों ने इंद्र को पूजना बंद किया। वर्षा के कामुक प्रतीकवाद की वे उपेक्षा करने लगें। वे चातुर्मास में घर के भीतर रहकर पूजा और उपवास करने लगें। लेकिन यक्ष और अप्सराएं मठवाद के प्रभाव से बच गएं क्योंकि उनकी अलंकृत महिलाओं और मोटे पुरुषों के रूप में बौद्ध और जैन मंदिरों की दीवारों पर नक्काशी की गई। हालाँकि वर्तमान काल में वे अदृश्य बन गए हैं, ग्रीष्मऋतु के लिए निर्धारित अनुष्ठानों में उनका आज भी उल्लेख होता है।
पूरी के जगन्नाथ मंदिर में, वर्षाऋतु के ठीक पहले, कृष्ण-जगन्नाथ की मूर्ति को गर्भगृह से बाहर लाकर उसे पानी से नहलाकर हाथी के मुखौटों से ढका जाता है। पहले ज़माने में, जब देवदासियां हुआ करती थी, तब वे रात में जगन्नाथ के भाई, बलभद्र, की मूर्ति के सामने नाचती थी। यह इसलिए कि पूरी के लोग मानते हैं कि बलभद्र शिव के रूप और इसलिए ब्रह्मचारी हैं। यहाँ बहते पानी, हाथी के मुखौटों और देवदासियों का उपयोग ‘नक़ल की जादू’ के उदाहरण हैं। इस जादू में हम अनुष्ठानों से उसे दर्शाते हैं जिसकी हम गहरी इच्छा करते हैं, जो इस उदाहरण में वर्षा है।
देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।
