उपवास और फलाहार के मायने

उपवास करने से शरीर से विषैले पदार्थ निकल जाते हैं, पाचन तंत्र को आराम मिलता है और वर्षा ऋतु में होने वाली बीमारियों के प्रति शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता बढ़ती है। उपवास और अन्य धार्मिक रीति-रिवाज़ों को ऐसे कारण देकर उन्हें तर्कसंगत बनाने का सिलसिला 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ।

हर वर्ष श्रावण माह में कई लोग उपवास रखते हैं। कुछ लोग मदिरा से दूर रहते हैं। कुछ पुरुष इस अवधि में शेव तक नहीं करते। शारीरिक और आध्यात्मिक शुद्धीकरण का यह महीना कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा ईसाइयों के लिए लेंट और मुसलमानों के लिए रमज़ान होता है।

उपवास करने से शरीर से विषैले पदार्थ निकल जाते हैं, पाचन तंत्र को आराम मिलता है और वर्षा ऋतु में होने वाली बीमारियों के प्रति शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता बढ़ती है। उपवास और अन्य धार्मिक रीति-रिवाज़ों को ऐसे कारण देकर उन्हें तर्कसंगत बनाने का सिलसिला 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ। इस काल से विज्ञान को इतना महत्व दिया जाने लगा कि विज्ञान की समझ के बाहर की सभी बातें तुच्छ समझी जाने लगीं। लेकिन रिवाज़ विश्वभर की संस्कृतियों में पहले से ही महत्वपूर्ण रहे हैं। रिवाज़ों से ऐसे विचार समझाए जा सकते हैं जो हमारी कल्पनाशक्ति को आकार देते हैं और भावनाओं को प्रभावित करते हैं।

त्योहार और रीति-रिवाज़ भोजन के दृष्टिकोण से भी समझे जा सकते हैं। अन्नकूट और दिवाली जैसे त्योहारों पर ढेर सारे व्यंजन बनाए जाते हैं। उन्हें चखने के लिए दावतें आयोजित की जाती हैं। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए निर्धारित दिनों पर उनकी पसंद के व्यंजन पकाए जाते हैं। इसके विपरीत कई दूसरे त्योहारों में भोजन नहीं पकाया जाता और रसोईघर बंद रहता है। सभी लोग उपवास रखते हैं या केवल उस रिवाज़ के लिए निर्धारित विशेष खाना ही खाते हैं। इन त्योहारों में लोग खाने से परहेज करते हैं। श्रावण, लेंट और रमज़ान ऐसे ही त्योहार हैं।

चूंकि भगवान विष्णु गृहस्थ हैं। स्मार्त परंपरा में वे अक्सर भोग के त्योहारों के साथ जोड़े जाते हैं। कई मंदिरों में उन्हें भारी मात्रा में व्यंजन अर्पित किए जाते हैं। भगवान शिव संन्यासी हैं और अतिभोग व परहेज दोनों से परे हैं। इनसे अलग, देवी से जुड़े रिवाज़ों में बलि चढ़ाई जाती है। यह बलि जीवित पशु के रूप में हो सकती है या स्वयं के भोजन के रूप में भी। आत्मत्याग के रिवाज़ हमें प्रकृति की उदारता की याद दिलाते हैं और हममें उनके प्रति कृतज्ञता का भाव जगाते हैं।

भोजन और हिंसा के बीच गहरा संबंध है। हिंसा का मांसाहारी भोजन के साथ तो संबंध सुस्पष्ट है, लेकिन शाकाहारी भोजन के साथ नहीं। खेत और बाग़ किसी जंगल और उसमें पोषित पेड़-पौधों व जीव-जंतुओं को नष्ट करके ही बनाए जाते हैं। एक जीवन को बनाने के लिए दूसरे जीवन का नाश ज़रूरी है। शेर की भूख मिटाने के लिए हिरण को मरना पड़ता है और हिरण की भूख घास के मरने से मिटती है। इस संदर्भ में उपवास रखना अहिंसात्मक है। खाने से परहेज से प्रकृति का पुनर्जीवन होता है। इसलिए मठवासी समाजों में उपवास रखना कुछ ज्यादा ही मायने रखता है।

गाय को पूजने का एक प्रमुख कारण यह है कि किसी दूसरे प्राणी को मारे बिना या जंगल को नष्ट किए बिना हमें उससे दूध मिलता है। लेकिन जब दूध का उत्पादन औद्योगिक स्तर पर होने लगा, तब यह बात भी बदल गई। बाइबिल में अब्राहम समझ गए कि कठोर रेगिस्तान में अगर उनके बच्चों का जीवन बचाना है तो उनकी बकरियों को मरना होगा। गॉड की उदारता से अब्राहम को ढेर सारी बकरियां प्राप्त हुई थीं जो उनके बच्चों को जीवित रखने हेतु बलि चढ़ाई गईं।

महाभारत में राजा शिबि द्वारा किसी कबूतर को बाज़ से बचाने का प्रसंग आता है। शिबि कबूतर को तो बचा लेते हैं, लेकिन इस पर बाज पूछता है- मैं बहुत भूखा हूं। आप मेरा भोजन छीनकर मेरे प्राण क्यों लेना चाहते हैं? तब शिबि उन्हें खुद अपना शरीर ऑफर कर देते हैं। कबूतर को बचाने के लिए किसी और का मरना आवश्यक था। राजा शिबि इसके लिए आगे आए। ठीक उसी तरह राजा को बचाने के लिए किसी और को मरना होगा।

संन्यासी जंगल में मिलने वाली जड़ें, शाखाएं और धरती पर अपने आप गिरे फल खाते हैं, अर्थात ऐसे खाद्य पदार्थ जिनका निर्माण किसी के बलिदान से नहीं हुआ हो। इसीलिए उपवास रखने वाले लोगों से भी यही अपेक्षा की जाती है कि वे उन्हीं खादय पदार्थों का सेवन करें जो प्राकृतिक तौर पर मिलते हैं।