तरह-तरह के गुरु

तरह-तरह के गुरु

कृष्ण के अनुसार गुरु वो है जो मनुष्य की स्वतंत्रता को स्वीकार कर उसे स्वतंत्र बनने में सक्षम बनाता है; शिव के अनुसार हमें गुरु पर निर्भर होना आवश्यक है।

गुरु का परंपरागत अर्थ है ‘वह जिसमें गांभीर्य है’। हाल ही में, एक नई शब्द-व्युत्पत्ति लोकप्रिय बन गई है। इसके अनुसार गुरु वह है जो हमें अंधकार (गु) से प्रकाश (रु) तक ले जाता है। विभिन्न लोग संदर्भानुसार गुरु का अलग-अलग लोगों के लिए उपयोग करते हैं।

भागवत पुराण में कृष्ण ने उद्धव को तटस्थ तपस्वी (अवधूत) के चौबीस गुरुओं के बारे में बताया था। इनमें उन्होंने कई तत्त्वों, पेड़-पौधों, प्राणियों और जीवन के अनुभवों का समावेश किया जिनसे तटस्थ तपस्वी अर्थात अवधूत को अंतर्दृष्टि मिलती है। इस प्रकार, यहां गुरु वह है जो तपस्वी में अंतर्दृष्टि उत्तेजित करता है। लेकिन स्कंद पुराण की गुरु गीता में शिव ने पार्वती को बताया कि गुरु के बिना किसी व्यक्ति को वेद समझना या प्रबुद्ध बनना असंभव है। कृष्ण के अनुसार गुरु वो है जो मनुष्य की स्वतंत्रता को स्वीकार कर उसे स्वतंत्र बनने में सक्षम बनाता है; शिव के अनुसार हमें गुरु पर निर्भर होना आवश्यक है। भारतीय इतिहास में उपनिषदों और बुद्ध के काल के बाद दोनों तरह के गुरु हुए हैं।

बोलचाल की भाषा में, गुरु शब्द का लापरवाही से कई तरह के लोगों के लिए उपयोग किया जाता है, जैसे अध्यापक, आचार्य, शास्त्री, पंडित, ज्ञानी, भिक्षु, संन्यासी, साधु, मुनि, अर्हत, तपस्वी, योगी, जोगी, सिद्ध, तांत्रिक और पुरोहित।

आजकल, अधिकतर भारतीय आध्यात्मिक नेता गुरु कहलाते हैं और इसलिए गुरु का यही अर्थ विश्वभर में भी प्रसिद्ध हो गया है। ये नेता सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का दावा करते हैं। लेकिन उनपर निर्भर अनुयायियों द्वारा लुटाई गई संपत्ति का भोग भी वे ख़ुशी-ख़ुशी करते हैं। इन अनुयायियों के लिए ‘गुरु’ भगवान से अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं। इस बात को समझने में गुरु गीता की अहम भूमिका है। उसके अनुसार, गुरु पिता, माता, यहां तक की देवताओं के समान या उनसे भी श्रेष्ठ है। इस तरह, गुरु रानी मधुमक्खी जैसे बन जाता है, जिसे अन्य मधुमक्खियां सुरक्षित रखती हैं, क्योंकि रानी के बिना छत्ते से मिलने वाली सुरक्षितता और पोषण चले जाते हैं।

वेदों में गुरुओं से अधिक ऋषियों का उल्लेख किया गया, जिन्होंने विश्व के अवलोकन से अर्जित ज्ञान और अंतर्दृष्टि को अपने छात्रों को सिखाए मंत्रों से संचारित किया। उपनिषदों की कहानियों से हमें पता चलता है कैसे सत्य की खोज में याज्ञवल्क्य का उनके शिक्षक वैशम्पायन के साथ विवाद हुआ और ऋषि अष्टावक्र ने राजा जनक के साथ वार्तालाप किया। स्पष्टतया, यहां ऐसा कोई दावा नहीं किया जा रहा था कि गुरु ज्ञान का स्रोत है जिसपर निर्भरता आवश्यक है। इसके बदले छात्रों के स्वावलंबीपन और स्वतंत्रता को प्रोत्साहन दिया गया।

रामायण में वशिष्ठ और विश्वामित्र ऋषियों ने राम के साथ अपना ज्ञान और कौशल बांटा। स्पष्टतया वे शिक्षक की भूमिका निभा रहें थे। महाभारत में कृष्ण ने गुरु द्रोण की हत्या करवाकर गुरु-हत्या का भयंकर अपराध किया। पुराणों के अनुसार बृहस्पति के बिना देव युद्ध नहीं जीत सकते थे और शुक्र के बिना असुर पुनर्जीवित नहीं हो सकते थे। बृहस्पति और शुक्र जादूगर और तांत्रिक प्रतीत होते हैं। ग्रंथों में अत्रि, अगस्त्य और जमदग्नि जैसे गृहस्थ गुरुओं तथा गोरखनाथ जैसे ब्रह्मचारी गुरुओं का उल्लेख है, जिन्होंने अपने ब्रह्मचर्य के कारण जादुई शक्तियां अर्जित की। कई लोग अत्रि के पुत्र, दत्त, को आदिगुरु मानते हैं। उन्हें चार कुकुर का पीछा करते हुए दिखाया जाता है, जो उनके वैदिक ज्ञान से उत्पन्न आत्मविश्वास का प्रतीक है। संपत्ति के प्रतीक, गाय, को उनका पीछा करते हुआ दिखाया जाता है। कभी-कभार दत्त को देवताओं से भी श्रेष्ठ माना जाता है।

2500 वर्ष पहले, कई मायनों में बुद्ध भी ‘आदर्श’ गुरु थे, जो चाहते थे कि उनके छात्र स्वावलंबी बनें। लेकिन जैसी सदियां बीतीं, उनके अनुयायी उनपर और निर्भर होते गए। आज, कई लोग मानते हैं कि बुद्ध दार्शनिक या शिक्षक से अधिक परमात्मा जैसी हस्ती हैं। वे मानते हैं कि यदि कोई बुद्ध पर सच्ची श्रद्धा करता है तो वे न केवल उसकी सांसारिक समस्याओं को हल करेंगे बल्कि उसके जीवन में चमत्कार भी करेंगे। जैन धर्म में तीर्थंकर (गुरुओं के गुरु), सीख देने वाले मठवासियों और मठवासिनियों तथा उन्हें सुनकर सीखने वाले सामान्य लोगों (श्रावकों) में स्पष्ट भेद है।

पिछले 1000 वर्षों में बौद्ध धर्म का भारत में पतन हुआ। इसके साथ रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य और बसव जैसे आध्यात्मिक नेताओं और विद्वानों ने भारतभर कई मठ, संप्रदाय, परंपराएं और अखाड़ें स्थापित किए। इनमें से कई मंदिर परिसरों से जुड़ें होने के कारण उनके अपने नियम होते थे और उन्होंने अपने मंदिर और संस्थान भी स्थापित किए। चूँकि वे कुशल प्रशासक थे, विजयनगर के राजाओं, थंजावुर के नायकों तथा अन्य राजाओं ने उनका समर्थन किया।

500 वर्ष पहले उत्तर भारत में भक्ति परंपरा के फैलाव के साथ गुरुओं, पीरों और संतों ने ग्रामीण भागों में कई डेरे स्थापित किए। आज, ये बड़े संस्थान बन गए हैं। सिख धर्म इसी का एक उदाहरण है। दस गुरुओं से विकसित इस धर्म में गुरु ग्रंथ साहिब नामक पवित्र पुस्तक भी है।

आज, अलग सामाजिक वर्गों के अनुसार गुरु भी अलग होते हैं, जैसे शहर में रहने वाले अंग्रेज़ी बोलने वालों या विदेश में रहने वालों के लिए अलग गुरु और ग्रामीण भागों में रहने वाले, सरकार और संगठित धर्मों से निराश, अंग्रेज़ी न बोलने वालों के लिए अलग गुरु। कभी-कभार, मन में यह प्रश्न आता है कि सच्चा गुरु कौन है।

इसका उत्तर अनुयायी पर निर्भर है। कुछ लोग चाहते हैं कि गुरु ‘आध्यात्मिक सहायता’ सहित निरंतर ‘पॉज़िटिव एनर्जी’ देता रहे और जादुई ढंग से समस्याएं हल करता रहे। इससे, उन्हें अपने जीवन की ज़िम्मेदारी नहीं लेनी पड़ेगी और वे गुरु पर भावनात्मक रूप से निर्भर रहेंगे। अन्य लोग चाहते हैं कि गुरु में गांभीर्य हो और वह उनमें अंतर्दृष्टि उत्तेजित कर उन्हें स्वावलंबी बनाए और भटकते अवधूत की तरह आगे बढ़ें।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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