इतिहासकारों के अनुसार शंकराचार्य एक संन्यासी थे, जिनका जन्म 1200 वर्ष पहले मतलब 8वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में केरल प्रांत में हुआ था। भारत के इतिहास में 8वीं शताब्दी बहुत ही दिलचस्प काल है। यह वह समय है, जब तमिलनाडु में शैव और वैष्णव भक्ति परंपरा की शुरुआत हुई थी। शैव भक्तों को नयनार कहते थे और वैष्णव भक्तों को अलवार। वे गली-गली जाकर शिव और विष्णु के गीत गाते थे। यह अनुमान लगाया जाता है कि शंकराचार्य ने भी अपने घर में शिव और विष्णु के बारे में सुना होगा। लेकिन, वे पूर्व मिमांसा परंपरा या निगम परंपरा से आए थे, जिसमें वेदों को अधिक महत्व दिया जाता था, पुराणों को नहीं। अगम परंपरा में मंदिर, विष्णु और शिव जैसे भगवान के रूप को महत्त्व दिया जाता था। इस तरह वे काल के समकालीन थे, जब निगम और अगम परंपराओं के बीच धीरे-धीरे मिलन होने लगा था। यह मान्यता भी है कि ऐसा शंकराचार्य के कारण हुआ होगा।
शंकराचार्य ने बाल अवस्था में ही संन्यास ले लिया था। कहते हैं कि भगवान ने उनके पिता से पूछा कि क्या तुम्हें दीर्घायु वाला छोटा बच्चा चाहिए या अल्पायु वाला बुद्धिमान बालक। उन्होंने अल्पायु वाला बुद्धिमान बालक मांगा। कहते हैं कि जब शंकराचार्य आठ वर्ष के थे, तब व्यास ने उनके सामने प्रकट होकर कहा कि अगर तुम वेदों का अभ्यास कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करोगे, तो तुम्हें और 8 वर्ष का जीवन दिया जाएगा। 16 वर्ष की आयु में जब उन्होंने ब्रह्मसूत्र और वेदों पर भाष्य लिखा, तब व्यास ने फिर से प्रकट होकर कहा कि अगर तुम अपने भाष्य का सारे भारत में प्रचार करोगे तो तुम्हें और 16 वर्ष का जीवन दिया जाएगा। इसलिए वे 32 वर्ष तक जिए और उन्होंने उपनिषद का ज्ञान भारत के हर कोने में पहुंचाया।
उनकी मां उनके लिए गृहस्थ जीवन चाहती थीं, लेकिन उन्होंने संन्यास स्वीकार किया और वे मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर के पास अपने गुरु की खोज में चले गए। वहां से वे बनारस गए जहां पर उन्होंने भाष्य लिखा। उसके बाद उन्हें वहां के विद्वानों ने कहा कि तुम्हें मंडन मिश्र से बात करनी चाहिए जो मिथिला में रहते हैं। मंडन मिश्र के साथ निगम और अगम परंपरा पर उनका वाद-विवाद हुआ। निगम परंपरा या पूर्व मिमांसा में गृहस्थ जीवन को अधिक महत्त्व दिया जाता था। चूंकि शंकराचार्य ने संन्यास ग्रहण किया था। इसलिए शुरू में मंडन मिश्र ने उन्हें अधिक महत्व नहीं दिया। लेकिन जो शास्त्रार्थ हुआ, उसमें मंडन मिश्र ने देखा कि यह युवक सचमुच में बुद्धिमान और वेदों का ज्ञानी है।
मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती ने शंकराचार्य से कामशास्त्र के ज्ञान के बारे में पूछा। शंकराचार्य ने कहा कि वे ब्रह्मचारी हैं और इसलिए उन्हें कामशास्त्र का ज्ञान नहीं है। तब उभय भारती ने कहा कि जब तक तुम्हें कामशास्त्र का ज्ञान नहीं होगा, तुम्हारा ज्ञान अपूर्ण होगा। इसलिए कहते हैं कि शंकराचार्य कश्मीर की ओर गए और वहां शारदा पीठ में उन्होंने तंत्र का ज्ञान प्राप्त किया। कायाकल्प के माध्यम से उन्होंने देवी साधना की और देवी साधना करके यह ज्ञान प्राप्त किया कि उन्हें अगम और निगम को कैसे जोड़ना चाहिए। निगम परंपरा में आत्मा को अधिक महत्व दिया जाता है जबकि अगम परंपरा में देह को महत्व दिया जाता है। जैसे आत्मा और देह का संबंध है, वैसे ही यज्ञ का मंदिरों के साथ संबंध है।
शंकराचार्य ने अपनी दिग्विजय यात्रा में चारों धाम के साथ-साथ तीर्थ यात्रा की भी स्थापना की। उन्हें यह समझ आया कि चूंकि सभी लोग निर्गुण भक्ति नहीं समझ पाएंगे, इसलिए उन्हें सगुण भक्ति का भी मार्ग अपनाना चाहिए। शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के सबसे बड़े गुरु थे जो ज्ञान योग और कर्म योग को अधिक महत्व देते थे। लेकिन शारदा देवी को अपना इष्ट मानकर, शिव और विष्णु पर स्तोत्र लिखकर उन्होंने भक्ति योग की भी नींव डाली। तीन सौ वर्ष बाद इसे रामानुजन ने आगे बढ़ाया। हम कह सकते हैं कि युग बदलने के साथ ही शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को एक नया रूप दिया और उसे निगम से अगम परंपरा तक लाकर वेद और पुराणों को जोड़ा।