दुनिया में हर इंसान चाहता है कि वह सुन्दर दिखे। सजना-सँवरना किसे पसंद नहीं! फैशन की इस अंधी दौड़ में हर-एक अपने को आकर्षण का केन्द्र बनाना चाहता है। लोगों के बीच में जाये तो अपनी खूबसूरती की महिमा सुनना चाहता है। इसके लिए न जाने कितने जतन करता रहता है। आज का मानव सौन्दर्य प्रसाधनों पर जितना खर्च करता है, शायद ही अन्य किसी वस्तु पर करता हो। लेकिन सुन्दरता की वास्तविकता को तो वह जानता तक नहीं है। तभी तो अपना बहुमूल्य समय, शक्ति और धन इस दैहिक सुन्दरता पर लुटा रहा है।
एक तरफ लोग कहते हैं कि मानव देह नश्वर है, जो ढलते हुए सूर्य के समान एक दिन ढल जायेगी और दूसरी तरफ शारीरिक सुन्दरता को लेकर प्रतिस्पर्धा लगी हुई है। कितने ही लोगों की चिंता, भय, ईर्ष्या आदि का कारण उनका शारीरिक रूप से सुन्दर न होना है। इसके लिए कभी भगवान को दोष देते हैं तो कभी अपने भाग्य को। खुद को जो हैं, जैसे हैं, वैसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं।
शारीरिक रूप से सुन्दर दिखना बुरी बात नहीं है लेकिन महत्व उसका तब है जब साथ में आन्तरिक सुन्दरता भी हो, व्यवहारिक सुन्दरता भी हो, आत्मिक सुन्दरता भी हो। बिना आन्तरिक सुन्दरता के बाहरी सुन्दरता वैसे ही है जैसे विष से भरे हुए घड़े के मुख पर अमृत लगा हो। मानलो किसी की आँखें बहुत सुन्दर हैं लेकिन देखने का भाव विकारी है तो कहा जाता है कि इसकी तो नज़र ठीक नहीं है। अब सोचिये, उसकी आँखें बिल्कुल ठीक हैं फिर भी क्यों कहा गया कि इसकी नज़र ठीक नहीं है। कारण यही है कि बाहरी नज़र से भी ज़्यादा महत्व अन्दर के भाव का है, देखने की वृत्ति का है।
बिना शुद्ध भाव के, केवल क्रीम-पाउडर की सुन्दरता मनुष्य में अभिमान को जन्म देती है और दूसरों की विकारी नज़र को आकर्षित करती है इसलिए इसको सच्ची सुन्दरता नहीं कहेंगे। सच्ची सुन्दरता तो सुख देने वाली होती है, शाश्वत होती है, देखने वाले के मन में अच्छे विचारों को जन्म देने के फलस्वरूप आत्मिक-स्नेह को जन्म देती है। आत्मिक सुन्दरता ही चिरस्थाई होती है।
मानव अगर अपना थोड़ा भी ध्यान आत्मा की तरफ लगाये तो इस आत्म-स्मृति से उसमें नम्रता, धैर्य, मधुरता, सहनशीलता, सरलता, शान्ति आदि दैवीगुणों का उद्भव हो जाता है। इन गुणों के श्रृंगार से वह देव बन जाता है। देवताओं की नेचुरल सुन्दरता रहती है। उन्होंने आत्मिक सुन्दरता से ही शारीरिक सुन्दरता को प्राप्त किया है। जब हम किसी देवी या देवता की तस्वीर को देखते हैं तो श्रद्धा से नत-मस्तक हो जाते हैं क्योंकि उनकी आत्मा एवं शरीर दोनों सुन्दर हैं। इसलिए दोनों की पूजा की जाती है। आत्मा सतोप्रधान होने के कारण उन्हें सतोप्रधान शरीर योगबल से प्राप्त होता है। इसलिए उनकी महिमा में गाते हैं – सर्वगुण सम्पन्न और सम्पूर्ण निर्विकारी।
छोटा बच्चा निर्विकारी होता है इसलिए सबको अच्छा लगता है। भले ही उसका रंग-रूप, नैन-नक्श कैसे भी हों, फिर भी सब उससे स्नेह करते हैं। अगर हमारा स्नेह सच्चा हो तो उसके बदले में प्राप्त होने वाला स्नेह भी सच्चा होता है। कलियुगी शरीर सबका पुराना हो चुका है। ऐसे में हम विनाशी शरीर को न देख, आत्मा को देखें जो अजर-अमर अविनाशी है। जैसे साँप के मस्तक में एक मणि होती है, जो नज़र उस मणि को देखती है, उस पर साँप के विष का प्रभाव नहीं होता है, ऐसे ही मनुष्य भी जब मस्तक के बीच चमकती हुई आत्मा मणि को देखता है तो मन में विकृत भावनाएँ जन्म नहीं लेती हैं।
जैसे आत्मा सुन्दर है, वैसे ही आत्मा का पिता परमपिता परमात्मा भी परम सुन्दर है, अविनाशी है, सदा परम पवित्र और परम पूज्य है। समय की मांग है कि हम नज़र को ऐसा बनायें जो यह आत्मा को देखे और परमात्मा शिव को देखे। कहा गया है,
जैसा देखोगे, वैसा सोचोगे। जैसा सोचोगे, वैसा बन जाओगे।