राजा नृग को शाप मिला था कि वे एक छिपकली बन जाएंगे। इसके पीछे बड़ी रोचक कहानी है। राजा नृग गोदान किया करते थे। एक बार जो गाय उन्होंने दान में दी, वह उस व्यक्ति की गौशाला से भागकर फिर से राजा की गौशाला में पहुंच गई। अगले दिन यही गाय किसी और व्यक्ति को दान में दे दी गई। अब जिन दो व्यक्तियों को यह गाय दान में मिली, उन दोनों ने दावा किया कि राजा ने वह गाय उन्हें दी, इसलिए वह उनकी है। दोनों के बीच में इस बात को लेकर वाद-विवाद भी हो गया। अंतत: न्याय पाने के लिए वे दोनों राजा के पास ही गए। उनसे बातचीत के बाद राजा को इस बात का एहसास हो गया कि अनजाने में उन्होंने एक ही गाय दो लोगों को दान में दे दी। इसलिए उन्होंने क्षमा मांगते हुए कहा कि जो भी गाय का त्याग करेगा, उसे भरपाई के रूप में वे सौ गायें देंगे। लेकिन दोनों ने उसी गाय के लिए हठ किया। जब राजा नृग कोई समाधान नहीं कर पाए तो उन्होंने क्रोध में आकर राजा को शाप भी दे दिया कि उन्हें छिपकली बनकर तब तक जीवन व्यतीत करना होगा, जब तक कि वे भूलोक में श्रीकृष्ण को नहीं मिलते।
यह कहानी हमें महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलती है। धर्म के बारे में समझाने के लिए भीष्म ने यह कहानी पांडवों को बताई। भीष्म के अनुसार राजा का धर्म है सभी लोगों को सुख देना। यदि अनजाने में भी राजा किसी को दुःख पहुंचाता है, तब भी वह शाप का भागीदार होता है। यह कहानी इसलिए महत्वपूर्ण है कि राजा नृग राम के पूर्वज थे। उनका जन्म सूर्यवंश या इक्ष्वाकु वंश में हुआ था। इस वंश में कई जैन तीर्थंकरों ने भी जन्म लिया था। लोगों का मानना है कि बुद्ध का जन्म भी इसी वंश में हुआ था।
आजकल हम एक ऐसे काल में जी रहे हैं, जहां लोग राम-राम कहकर एक दूसरे का स्वागत तो करते हैं, राम राज्य की बात तो करते हैं, लेकिन राजधर्म नहीं समझते। राम से कितने भिन्न हैं वे! यह भिन्नता हमें एक लोककथा से पता चलती है। सूर्यवंश के होते हुए भी रामचंद्र के नाम में चंद्र लिखा हुआ है। मान्यता है कि यह नाम राम ने ही अपने लिए चुना था। यह कथा सभी को मालूम है कि कैसे श्रीराम को सीता छोड़कर चली गई थीं। इस पर राम ने कहा था कि जैसे सूर्य को ग्रहण लगता है, वैसे ही सीता के बिना मेरे जीवन में भी ग्रहण लग गया है। इसलिए उन्होंने खुद के लिए ‘रामचंद्र’ नाम स्वीकार किया।
धर्म के बारे में ऐसी अनेक कहानियां हमें मिलती हैं। उदाहरण देने हो तो राजा विक्रमादित्य और राजा भोज की कहानियां। इन सभी कहानियों से हमें पता चलता है कि धर्म की सबसे मूल बात है शक्तिशाली व्यक्ति का शक्तिहीन की मदद करना। राजधर्म का अर्थ है अपने कर्मों का उत्तरदायित्व लेना। जब तक आप यह नहीं करते, तब तक राम और रामराज्य की बातें केवल नाट्यशास्त्र है।
राजनीति का अर्थ है जंगल में ‘जंगल राज’ होना। जब मनुष्य जंगल राज को स्वीकार करता है तो उस मत्स्य न्याय को हम अधर्म कहते हैं। मत्स्य न्याय में बलवान हमेशा बलहीन का शोषण करता है। मनुस्मृति के अनुसार देवताओं ने राजाओं के रूप में इसलिए जन्म लिया ताकि हम मत्स्य न्याय के विपरीत एक समाज का निर्माण कर सकें। इसी को हम धर्म कहते हैं। राजनीति में शक्तिशाली जीतता है, जबकि राजधर्म में शक्तिहीन को भी संस्कृति में स्थान और आदर मिलता है।