वास्तव में प्रेम बिना जीवन नीरस और निस्सार है। जिसने जीवन में प्रेम का रस चखा ही नहीं है, ऐसा व्यक्ति जगत में सबसे ज्यादा दीन और दयनीय है। अहंकार जितना ज्यादा बढ़ता है उस हिसाब से व्यक्ति अपने आप कठोर बनता जाता है। अहंकार जितना कम होगा उतना मानव मन सरल और विमल बन जाएगा। अहंकार-शून्य होने पर मनुष्य का दिल प्रेममय और पारदर्शी बन जाता है। फिर उसमें कोई अपेक्षा, शर्त या रुकावट नहीं होती।
अपार है परमात्मा का प्यार
जिसको हम चाहें, उसे सम्पूर्ण मुक्ति दें, तब ही प्रेम जीवंत रहकर विकसित हो सकता है। प्रेम में स्वतंत्रता तभी संभव होती है, जब प्रेमपात्र पर श्रद्धा और भरोसा होता है। परमात्मा भी प्रणीमात्र को सम्पूर्ण स्वतंत्रता देता है। उसकी कोई शर्त या अपेक्षा ही नहीं है। ये ही कारण है कि हम संसार में कितना भी भटकेंगे, परम विश्राम तो परमात्मा की गोद में, उनके साथ मनोमिलन में ही अनुभव होता है। परमात्मा का प्यार अपार है।
परमात्म कार्य में गणित की बजाय कल्याण-भाव
जैसे माता कमजोर बच्चे का अधिक ध्यान रखती है, ऐसे ही परमात्मा हम पतित, भ्रष्ट मनुष्यों पर रहम करता है और स्वयं सृष्टि पर अवतरित होकर हमें विकारों की दलदल से निकाल पावन बनाता है। परमात्मा पिता तो प्यार का सागर, रहमदिल, परम करुणावान है। वह हमारी छोटी-मोटी भूलों का हिसाब नहीं रखता है। ऐसा हिसाब तो मानवीय मन में चलता है। परमात्मा का कार्य गणित से नहीं, कल्याण-भाव और रूहानी प्यार से चलता है।
परमात्मा का प्रेम है निष्काम
प्रकृति जगत में भी हम देखते हैं कि कितनी व्यवस्था, करुणा तथा देने के भाव की सुंदरता है। प्रकृति निरंतर हमारी सेवा में उपस्थित है। वह हमारे कर्म-व्यवहार को न देख, देती ही रहती है। हम कण बीज बोते हैं और प्रकृति हमें मण बीज उगाकर देती है। एक का अनेक गुणा कर देती है। तो परमात्मा, जो कि सर्वोच्च कल्याणकारी सत्ता है, वो हमसे नाराज़ या कोपायमान नहीं हो जाता। परमात्मा के लिए ऐसे सोचना ही गलत है। हमारी बुरी आदतों से उनको कोई लेना-देना नहीं है। हां, इन सबसे हमें ही नुकसान होता है। हम क्या खाते हैं, पीते हैं, कैसे जीते हैं, उसका परमात्मा के प्रेम पर ज़रा भी असर नहीं होता है। वो निष्काम प्रेम करता है। हां, गंदी आदतें, व्यसन, नशे आदि से परमात्मा की ओर जाने के हमारे अपने मार्ग में, पुरुषार्थ में अवरोध, विघ्न ज़रूर आता है। इनसे मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ता है, मन गुलाम बनता है, विवेक भ्रष्ट होने लगता है। खुद का मनोबल डगमगाने लगता है। इस प्रकार व्यसनी, नशेड़ी बनकर, खुद पर हम जुल्म करते हैं और साथ-साथ परिवार को भी बर्बाद करते हैं। जितना हम व्यसन, विकारों की तरफ दौड़ते हैं उतना परमात्मा के प्रति हमारा ध्यान कम होता जाता है। जितना वासना की दलदल में, भंवर में फंसते हैं, उतना भवसागर पार उतरने में विलंब होता है। इस प्रकार हम खुद ही खुद का नुकसान करते हैं, खुद ही खुद को श्रापित करते हैं।
इस सत्य को हम स्वयं अपने विवेक से समझते नहीं हैं, इसलिए किसी महानुभाव ने परमात्मा के नाम पर बात लगाकर कही और लोगों को सुधारने का शुभ प्रयास किया। जैसे कोई कार्य हम ठीक से नहीं करते हैं, तो ठीक करवाने के लिए बड़ों का नाम लेकर कहा जाता है कि मम्मी डांटेगी, पापा नाराज़ हो जाएंगे, गुरुजी अकृपा कर देंगे, साहब को अच्छा नहीं लगेगा आदि-आदि। वास्तव में हमें विवेक से सोच-समझ कर स्वयं ही हर कार्य यथार्थ रीति से करने चाहिए। बड़ों का नाम लेकर भय से कहां तक सही तरीके से काम करा सकेंगे? ऐसे ही परमात्मा का नाम देकर भय से परिवर्तन नहीं करा सकते हैं।
परमात्मा है परम साक्षी
परमात्मा कोई हमारे पाप का बदला हमें नहीं देता है। यह बिल्कुल गलत और वाह्यात बात है। परमात्मा के प्यार के सामने हमारे पाप का कोई हिसाब नहीं है। पापों के कारण जो नुकसान हो रहा है या जो दुख-तकलीफ झेलनी पड़ती है, उसकी जिम्मेवारी केवल हमारी अपनी और अपनी ही है। अगर हम दुखी हैं, तो ये हमारे कर्मों का ही परिणाम है। बाकी परमात्मा हमारे कर्मों का हिसाब रखता है और सजा देता रहता है, ऐसी विचारधारा तो परमात्मा को न समझने वाले लोगों के मानस की ही उपज है। परमात्मा तो परम साक्षी है। द्रष्टाभाव में स्थित एक व्यक्ति में भी कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं होती है, तो परमात्मा में ऐसी वृत्ति कहां से उत्पन्न होगी? क्या परमात्मा को अन्य कोई काम ही नहीं है? दुनिया भर के लोग क्या करते हैं, उसका हिसाब रखने में ही क्या परमात्मा व्यस्त रहते हैं? एक क्लर्क से ज्यादा विशेष कोई परमात्मा का काम ही नहीं है क्या?
परमात्मा का प्यार है एकरस
वास्तव में हमें ऐसी अंधश्रद्धा या मिथ्या मान्यता से मुक्त होने की आवश्यकता है। परमात्मा पर फल-फूल, प्रसाद, नैवेद्य अर्पण करो या न करो, उसके नाम से व्रत-उपवास करो या न करो, परमात्मा का प्यार एकरस और अपार रहता ही है। वो तो हमें अनहद प्यार करता ही है। हमारा कल्याण करना ही उसका गुण है। वो तो है ही सुखदाता, दयालु, कृपालु। परमात्मा को न समझने के कारण ही भय के मारे लोग इतने सारे अनावश्यक क्रियाकांड करते रहते हैं। हम सुखी हैं या दुखी, हमारा मन शांत है या चंचल, उसका कारण हम स्वयं ही हैं। अज्ञान और उसके वश कमजोर, विकृत मन की लीला को ही माया कहा जाता है, जिसके वश किए गए कर्म ही दुख के बीज हैं।
जो देंगे, वही मिलेगा
संसार में कर्म और कर्मफल का सिद्धांत अटल है। कर्म खुद ही परिणाम लाने वाला बन जाता है। इसलिए अगर हम जीवन में दुख-अशांति के फल खा रहे हैं, तो उसका अर्थ यह है कि जाने-अनजाने गलत कर्म के बीज हमारे द्वारा बोए जा रहे हैं। इसलिए अगर हमें सदाकाल का सुख, आनंद चाहिए तो हम अपने हर कर्म को श्रेष्ठ बनाएं। जैसे फल हमें चाहिए, वैसे फल देने वाले बीज हमें बोने होंगे। जो हम देंगे, वही हमें मिलेगा। तो हम स्पष्ट समझ लें कि परमात्मा कोई हमारे कर्मों को हर घड़ी देखता नहीं रहता है, ना ही उनका हिसाब रखता या रखवाता है। वो कभी भी कोपायमान नहीं होता, श्राप नहीं देता। वो तो है ही सदा पावन, सदाशिव।
अपने सुख-दुख के कारण हम खुद हैं
हमारे गलत कर्म ही विघ्न के कारण हैं। सुख-दुख के लिए अपनी जिम्मेवारी हम समझें। परमात्मा हमें सत्कर्म करने का सही ज्ञान देते हैं, विकर्म भस्म करने की योगविधि सिखाते हैं, लेकिन करना तो हमें स्वयं ही है। ये ही कारण है कि जीवन के अंत में जीवनभर किए हुए कर्मों का लेखा-जोखा हर व्यक्ति की बुद्धि के सामने आता है और महसूस होता है कि हम खुद ही अपने सुख-दुख के कारण हैं। हमें परमात्मा से या अन्य किसी से दुख दूर होने की और सुख बरसाने की आस रखने की ज़रूरत नहीं है।
संतों ने, योगियों ने, ऋषियों ने अपनी साधना से सिद्धियां पाई। उनमें से कुछ सिद्धियों का प्रयोग कर उन्होंने भक्तों के दुख दूर किए। तो लोग धीरे-धीरे उनसे ही दुख दूर करने की आशा करने लगे। उन्हीं पर आधारित होने लगे। उन्हीं से ही कृपा, शक्ति, आशीर्वाद मांगने लगे बजाय कि उनके जैसा योगी बनें। भक्ति भी आजकल इच्छापूर्ति, स्वार्थ सिद्धि के लिए ही करने लगे हैं।
परमपिता परमात्मा तो हमें सत्य ज्ञान देते हैं। हम हिम्मत करते हैं तो मदद भी करते हैं। हमें उनसे डरना नहीं है, ना उनसे मांगना है। हमें उनकी शिक्षा पर और उनके श्रेष्ठ मत पर चलना है। यही समय है स्वयं को परमात्म प्यार से भरपूर करने का।