निंदक या शिक्षक

निंदक या शिक्षक?

स्नेही की तरफ आकर्षित होना और निंदा करने वालों से दूर रहना, यह मानव का स्वभाव है।

डांटने वाले शिक्षक को बच्चे पसंद नहीं करते। निंदा करने वाले पति से पत्नी सम्बन्ध विच्छेद मांगती है। निष्ठुर अधिकारी के साथ कोई काम करना नहीं चाहता। कटु बोलने वाले को अपना मित्र कोई नहीं बनाता। जिसका पड़ोसी निंदक है, वह सदा दुखी रहता है। निंदा एक ऐसा वर्जनीय विषय है, जिसका मानव जीवन में कोई स्थान नहीं और निंदक का इस समाज में भी कोई स्थान नहीं। सभी चाहते हैं कि उनकी प्रशंसा हो। कोई कितना भी दुखी क्यों न हो, प्रशंसा सुनते ही मन प्रसन्न होकर मुख खिल जाता है। प्रशंसक का सदा आदर होता है। प्रशंसा करने वाले जीवन साथी मिलें, तो हम जीवन को धन्य समझते हैं। लेकिन, लोकोक्ति कहती है, ‘निंदा हमारी जो करे मित्र हमारा सो’ न कि ‘प्रशंसा हमारी जो करे मित्र हमारा सो।’ साधना के मार्ग पर साधक को एक खूबसूरत मूर्ति बनाने वाला शिल्पी वास्तव में निंदक है, न कि प्रशंसक।

निंदक के अंदर छिपे शिक्षक को पहचानने के लिए हमें दृष्टिकोण को नकारात्मक से सकारात्मक में बदलना होगा। जिस बात से हम डरते रहते हैं या दुखी रहते हैं, जिस से मुक्ति पाना चाहते हैं वह वस्तु हमारे लिए बहुत ही लाभदायक हो सकती है किन्तु हमें पता नहीं रहता है। पता तब चलता है जब हम उस बात को देखने का दृष्टिकोण बदलते हैं।

एक किसान के खेत में एक भाग ही जमीन थी और तीन भाग तो बड़ी चट्टान फैली हुअी थी। किसान इस बात को लेकर बहुत दुखी रहता था क्योंकि घर-परिवार को संभालने के लिए वह जमीन बहुत ही कम थी। एक दिन उसने सोचा, अगर इस चट्टान को तोड़कर रोड़ी और कंकर बनाने दिए जाएं तो कितनी इमारतें बन सकती हैं! तुरंत ही उसने इमारत बनाने वालों को बुलाकर चट्टान को बेचने की बात की और काम शुरू हो गया। जिस घर में रोटी बननी मुश्किल थी, वहां कुछ ही दिनों में सोने-चांदी के गहने दिखने लगे। वही किसान और वही चट्टान, फिर गरीबी बदलकर अमीरी कैसे आ गई? कारण था, दृष्टिकोण! नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण जो बेहद समस्या के रूप में दिख रहा था, वही बेहद समाधान बन गया जब उसको सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा गया। महापुरुषों की विशेषता यही रही कि जीवन को देखने का उनका दृष्टिकोण अलग ही था। उस दृष्टिकोण द्वारा निंदा, अपमान, विघ्न, समस्या आदि रुकावटों की बजाय सफलता की सीढ़ी उनको नज़र आती रही। इसी विशेषता ने उनको महान बनाया।

अब तीव्र गति से आगे बढ़ने के लिए हमें भी दृष्टिकोण को वास्तविक बनाना है। वास्तविकता यह है कि निंदक सदैव लाभदायक होता है, न कि हानिकारक! निंदक किस प्रकार से हमारा उपकार करता है, यह निम्नलिखित कुछ बातों से स्पष्ट होता है।

नैतिक चिकित्सक

विचार कीजिए, अपनी तबीयत की जांच करानी हो तो हम किसके पास जाएंगे? जो डॉक्टर हमारे शरीर में छिपी हुई बीमारियों को अच्छी तरह से खोज करके निकालता है, उसी के पास ही ना? उस डॉक्टर को हम बहुत ऊंची नजर से देखते हैं, उनका शुल्क दोगुना ज्यादा क्यों न हो, देने के लिए तैयार रहते हैं क्योंकि कमजोरी की सही खोज करता है। अब बताइए, शारीरिक कमजोरी बताने वाला जो व्यक्ति हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण है पर नैतिक कमजोरी बताने वाले को निंदक समझ लेते हैं, क्या यह दृष्टिकोण सही है? वास्तव में निंदक तो शारीरिक डॉक्टर से भी अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए क्योंकि शारीरिक कमजोरी का प्रभाव केवल शरीर तक ही सीमित है पर नैतिक कमजोरी के साथ हमारे चरित्र का उत्थान व पतन जुड़ा हुआ है। शारीरिक और मानसिक पतन से भी नैतिक पतन कई गुना हानिकारक है, जो जीते-जी मृत समान बना देता है। तो अंदर छिपी बुराई की तरफ ध्यान खिंचवा कर हमें जागरूक करने वाले, पतन से बचाने वाले को निंदक समझना, यह एक भ्रम है। वास्तव में वह निंदक नहीं बल्कि नैतिक चिकित्सक है।

चैतन्य दर्पण

अवगुण, मनुष्य का भविष्य उज्जवल बनने नहीं देता है। हीरे में एक भी सूक्ष्म दाग रहा तो उसका मूल्य कौड़ी का बन जाता है। वैसे ही हम ज्ञान, गुण या कलाओं से भले ही भरपूर हों पर अंश मात्र अवगुण जो रहा हुआ है, वह हमें सफलता से वंचित कर सकता है। जैसे, खुद का चेहरा खुद को नहीं दिखता, वैसे ही कई बार हमारे अवगुण हमें दिखाई नहीं देते हैं। स्नेह के कारण, मित्र-संबंधी उस अवगुण को देखते हुए भी समा लेते हैं। अन्य सभी भय या संकोच के कारण चुप रह जाते हैं। बीमारी को पहचान कर भी डॉक्टर अगर मरीज को सावधान नहीं करेगा, तो मरीज का भविष्य ही शून्य हो जाएगा। हमारे अवगुण के बारे में दूसरों का चुप रह जाना, यह हमारी उन्नति के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा है। हमारे अवगुण का इशारा हमें किसी ने भी नहीं दिया और समय आने पर उस अवगुण से हमने धोखा खाया तो क्या भविष्य उज्जवल होगा? इसलिए, जैसे दर्पण, चेहरे पर लगे दाग दिखाता है, वैसे ही समय-समय पर अवगुण रूपी दाग पर ध्यान खिंचवाने वाला व्यक्ति भी निंदक नहीं बल्कि एक अमूल्य दर्पण है।

पापों से बचाने वाला

मनुष्य गलतियां तब करता है जब स्वच्छन्द रहता है या उस पर किसी की निगरानी नहीं रहती है। एक तरफ रंग-बिरंगी दुनिया के आकर्षण, दूसरी तरफ स्वेच्छाचारी जीवन, ये दोनों जैसे कि माया का पिंजरा और उसके अंदर रखा चारा है, जो आसानी से अपना शिकार बना लेते हैं। होश तब आता है, जब बाहर निकलने का रास्ता ही बंद हो जाता है अर्थात विकराल रूप के संस्कार से स्वयं को छुड़ाना ही असंभव हो जाता है। इसलिए, हर कदम पर यह सावधानी रखना अति अवश्यक है कि कर्मद्रियों से कोई पापकर्म ही न हो। यह सावधानी सहज तब बनी रहती है जब कोई निंदक या हमारी गलतियों को गिनने वाला आस-पास हो। जहां सी.सी.टी.वी. कैमरा लगा रहता है वहां मनुष्य जागरूक हो जाते हैं और गलती करने से खुद को रोक लेते हैं। वैसे ही, किसी की कड़ी नजर हम पर है, यह भान हमें अयथार्थ कर्म करने से रोक लेता है। इस बात से हमें थोड़ी-सी सजा का अनुभव जरूर होगा, परन्तु यह अल्पकाल की सजा, सदाकाल की सजा से छुड़ा देगी अर्थात हमारे पुरुषार्थी जीवन को कलंकों से मुक्त रखेगी।

शक्ति को बढ़ाने वाला

शरीर और मन में वातावरण और परिस्थिति के अनुसार प्रतिरोधक शक्ति उत्पन्न होती रहती है। इसलिए ही मिलिटरी, पुलिस, खिलाड़ी आदि लोगों को कई प्रकार के कष्टदायक प्रशिक्षणों से गुजरना पड़ता है, ताकि इनकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़े जिससे वे ठंडी-गर्मी, आक्रमण, प्राकृतिक आपदा आदि का सामना कर सकें। वैसे ही निंदा सुनना, यह भी एक मानसिक प्रशिक्षण है, जो मन को दुख-दर्द के प्रहारों से अभेद्य रखता है। इससे नाजुकपना, झट से भावुक हो जाना आदि समाप्त हो कर गंभीरता और प्रौढ़ता विकसित होती जाती हैं, जो वास्तविकता को पहचानने में सशक्त बनाती हैं। निंदक से हमें दो महान शक्तियां उपहार के रूप में मिलती हैं; एक, सहनशक्ति और दूसरी, समाने की शक्ति जो कैसी भी कठिन परिस्थिति में धैर्यवत बनाती हैं।

वैरागवृत्ति का जनक

वैरागवृत्ति चरित्र निर्माण की साधना में एक बहुत ही उन्नत योग्यता है। महात्मा बुद्ध, संत तुलसीदास, ऋषि भ्रतृहरि, सम्रट अशोक, महर्षि अरविंद घोष आदि जन्मते ही महापुरुष नहीं थे। पर जब इनके अंदर वैरागवृत्ति जागृत हुई, तब से इनके चरित्र का निर्माण आरंभ हुआ और वह चरित्र मानवकुल के लिए आदर्श बना। वैराग इनके अंदर अपने आप जागृत नहीं हुआ। महात्मा बुद्ध का हृदय दुख भरे दृश्य देख विदिरण हुआ, तुलसीदास और भ्रतृहरि को पत्नियों से अपमानित होना पड़ा, अशोक को लाखों लाशों के बीच बैठकर रोना पड़ा, अरविंद घोष को कारावास झेलना पड़ा। औरों की निंदा या नफरत जो हमारे प्रति है, उसका अहसास अंदर ही अंदर हममें वैरागवृत्ति को जागृत करता है। अकेले आए थे और अकेले ही जाना है, इस परमसत्य का दर्शन कराने वाला दार्शनिक है निंदक।

परमात्मा समान बनने का अवसर प्रदान करने वाला

ईश्वरीय ज्ञान का अंतिम लक्ष्य है, ज्ञान-गुण और शक्तियों में परमात्मा के समान बनना। परन्तु, शिवपिता ने एक शर्त यह रखी है कि जो साधक अपकारियों पर भी उपकार करने का प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाता है, वही उनके समान बन सकता है। अगर हम चाहते हैं कि सभी हमें सम्मान दें, कोई हमारी निंदा न करे, अपकार न करे, तो हमें अपकारी पर उपकार करने का अवसर कैसे मिलेगा? इस शर्त को हम पूर्ण कैसे करेंगे? अगर परीक्षा ही नहीं हुई तो उत्तीर्ण कैसे होंगे?

निंदक, क्या सचमुच ही निंदक है?

हमने किसी बैंक से कर्जा उठाया और चुक्ता नहीं किया। एक दिन अगर बैंक का अधिकरी नोटिस लेकर घर पर आकर बैठ जाए, तो क्या हम उसको निंदक कहेंगे? नहीं। यह स्पष्ट है कि नोटिस देने वाला अधिकारी दोषी नहीं, बल्कि कर्जा न चुकाने वाला मैं दोषी हूं। वैसे ही सृष्टिनाटक में यह नियम बना हुआ है कि हर पापकर्म का हिसाब चुक्ता करना ही होगा। तीन प्रकार से वह चुक्ता होता है। सहज राजयोग द्वारा शिवपिता को यथार्थ रीति से याद करने से, शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं को भोगने से और निंदा व नफरत का शिकार बनने से। ज्ञान के चक्षु या तीसरे नेत्र से जब हम देखते हैं, तो इस बात का पता चलता है कि वह व्यक्ति वास्तव में निंदक नहीं बल्कि हमारे ही पाप का कर्जा उतारने के लिए इस नाटक में निमित्त बना हुआ एक अभिनेता है।

निंदक को सबक सिखाना चाहिए या नहीं?

कहा जाता है, आग्नेयास्त्र को निष्क्रिय करने के लिए वरुणास्त्र का प्रयोग किया जाता है। अगर दोनों तरफ से आग्नेयास्त्र का ही प्रयोग होता है, तो वह जलती हुई अग्नि कई गुना बढ़कर हानिकारक हो जाती है। कोई निंदा कर रहा है, तो उसका मुँह बंद करने के लिए या उसको सबक सिखाने के लिए सामने वाला भी निंदा करनी शुरू कर देता है। दोनों के वाद-प्रतिवाद से वातावरण तनावयुक्त होकर शारीरिक, मानसिक, प्राकृतिक हानि का कारण बन जाता है। हर पल हमें यह याद रहे कि जैसे अग्नि से अग्नि का शमन नहीं कर सकते वैसे ही विरोध को विरोध से कभी भी जीत नहीं सकते। शान्ति, क्षमा और प्रेम, ये हैं विरोध पर विजय प्राप्त कराने वाले सच्चे अस्त्र।

क्या निंदक से किनारा कर देना सही है?

अगर कोई क्रोध में आकर बात कर रहा है, तो वातावरण को शांत रखने हेतु थोड़ी देर वहां से किनारा करना अलग बात है, परंतु निंदक के कारण साधना के मार्ग से ही हट जाना या उस व्यक्ति को हटा देना, यह अयथार्थ है। बताइए, मुनि विश्वामित्र से तंग होकर राजा हरिश्चंद्र अगर विश्वामित्र को अपने रास्ता से हटा देता या खुद ही हट जाता तो क्या वह सत्यवादी हरिश्चंद्र के नाम से आज जन-जन के हृदय पर राज्य कर सकता था? विश्वामित्र की कठोरता तो चरम सीमा पर थी, लेकिन राजा हरिश्चंद्र ने उस कठोरता को अपनी सत्यता की शक्ति को बढ़ाने के एक साधन के रूप में स्वीकार किया। उस सकारात्मक दृष्टिकोण से ही वह सत्यवादी कहला कर प्रसिद्ध हुआ। शिवपिता कहते हैं, अल्पकाल की जीत में बहुत काल की हार समायी हुई है और अल्पकाल की हार में बहुत काल की जीत समायी हुई है। निंदक को अपने मार्ग से हटा देने से अल्पकाल की जीत अर्थात आसुरी आनंद तो होगा, लेकिन साथ-साथ सदाकाल के लिए हार माननी पड़ेगी और सहनशीलता, प्रेम, क्षमा के प्रयोग द्वारा प्रेम के सागर शिवपिता को प्रत्यक्ष करने के लिए मिले उस सुअवसर को सदाकाल के लिए खोना पड़ेगा। हर कदम पर कड़ुवाहट को समाते हुए चलना, यही मधुरता को विकसित करने की विधि है। मधुरता ही प्रत्यक्षता की चाबी है। वास्तव में भाग्यशाली वह है, जो सदा निंदकों से घिरा हुआ है क्योंकि सहनशक्ति, समाने की शक्ति, प्रेम, क्षमा जैसे अमूल्य गुण और शक्तियों को अपने मन में फूलों की तरह खिलने का सुंदर अनुभव वही कर सकता है। इन गुण-शक्तियों का महादान करते हुए वह शिवपिता को प्रत्यक्ष कर सकता है। इसलिए हम पहले अपने दृष्टिकोण को सही करें। जैसे, साबुत अनाज, कच्चे तेल आदि को जैसे हैं वैसे ही खा लेना, यह जानलेवा हो सकता है, पर हम उनको कुछ प्रक्रियाओं द्वारा परिवर्तन करके स्वीकार करते हैं, ताकि वे शरीर के लिए पोषक बनें। वैसे ही निंदक को उसी दृष्टि से न देख, निंदा को स्व उन्नति का साधन बनाएं। तब निंदक के स्थान पर वह गुप्त रूप में खड़ा शिक्षक या शिल्पी नज़र आएगा, जो हमें सुंदर और पूज्य बनने में पूर्ण मददगार है।

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