एक बार जब मैं अमेरिका के एक शहर कैलिफ़ोर्निया में था, तो वहाँ मैं एक वरिष्ठ भारतीय अप्रवासी से मिला, जिनके साथ मैंने शिक्षा के बारे में बातचीत की। मैंने टिप्पणी की कि यह शिक्षा का युग है और हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी आवश्यकता उच्चतम स्तर तक शिक्षित होना है, लेकिन उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में उनका अनुभव बहुत निराशाजनक रहा है। वे युवाओं को उच्च शिक्षा से परिचित कराना चाहते थे, लेकिन परिणाम ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उन्होंने कहा कि अब बच्चों को सिखाने के बजाय उनकी सोच को फिर से तैयार करने की ज़रूरत है।
मैंने कहा कि इसमें दोष माता-पिता का है। माता-पिता के पास केवल दो विकल्प होते हैं : या तो अपने बच्चों का भविष्य स्वीकार करें, चाहे वह कुछ भी हो या फिर उन्हें समझकर समझाने की कोशिश करें कि उनसे क्या अपेक्षित है। यह घटना हर देश में देखी जा सकती है। माता-पिता अपने बच्चों के मन को नहीं समझ पाते और फिर उनके बारे में शिकायत करते रहते हैं। बेशक अपने बच्चों की सोच को बदलना संभव है, लेकिन पहले उनके मन को संबोधित करने के लिए आपके पास पूर्ण बौद्धिक क्षमता होनी चाहिए।
हक़ीक़त यह है कि हमारे समाज में अधिकांश माता-पिता पारंपरिक नज़रिये वाले होते हैं, फिर भी वे अपने बच्चों को आधुनिक शिक्षा संस्थानों में पढ़ाना चाहते हैं। इसके लिए एक ऐसे नज़रिये की आवश्यकता है, जो पारंपरिक होने के साथ- साथ आधुनिक भी हो। माता-पिता को अपनी पारंपरिक सोच को छोड़े बिना इसे फिर से परिभाषित करना चाहिए, ताकि यह सोच नई पीढ़ी की समझ में आ सके। इसी विफलता ने बच्चों में सही शिक्षा के प्रति प्रतिरोध की समस्या पैदा की है। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में हर क़िस्म की कमी माता-पिता की ग़लती की वजह से है। यह आत्म-प्रशिक्षण का सवाल है, ज़हन बदलने का नहीं। अगर माता-पिता अपने बच्चों में सीखने के स्वभाव में बदलाव लाना चाहते हैं, तो उन्हें ख़ुद अच्छा सलाहकार (counsellor) बनना पड़ेगा। यह माता-पिता की कमज़ोर काउंसलिंग है, जिसने इस समस्या को पैदा किया है। एक और समस्या लाड़-प्यार की है। माता-पिता को अपने बच्चों से बहुत लगाव होता है और यह अकसर उन्हें लाड़-प्यार की ओर ले जाता है। जबकि स्नेह करना अच्छा है, लेकिन लाड़-प्यार बुरा है। लाड़-प्यार बच्चों में आसान प्रवत्ति (easy going nature) को बढ़ावा देता है. यह स्वभाव इस कठोर वास्तविकता वाली दुनिया में किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे ख़राब स्वभाव है। लाडले बच्चे सलाह पर ध्यान नहीं देते हैं। वे अपनी इच्छाओं के अलावा कुछ नहीं जानते। कठोर वास्तविकता का उनके शब्दकोश में कोई स्थान नहीं होता। यही कारण है कि लाडले बच्चे बाहरी दुनिया में आने वाली चुनौतियों का सामना नहीं कर पाते।
एक बार मैं दो भारतीय लड़कों से मिला। दोनों ग्रेजुएट थे। उन्होंने कहा कि उन्हें बहुत ही कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। जब वे अपने घरों में रहते थे, तो वे अपने माता-पिता की सुरक्षा में रह रहे थे, जो माँगने पर हमेशा कुछ भी देने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन अब जब उन्होंने अपने घरों को छोड़ दिया है और बाहरी दुनिया में जगह बनाना चाहते हैं, तो वे प्यार के लिए तरसते है और ख़ुद को अवांछनीय महसूस करते है। उनके घरवाले उन्हें सब कुछ देने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन अब उन्होंने पाया कि बाहरी दुनिया काफ़ी अलग है। यहाँ हर चीज़ की क़ीमत मेहनत, समायोजन, वास्तविकता की स्वीकृति, अपनी क्षमता साबित करना और समझौता करना है। उन्होंने पाया कि घर पर उन्हें ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया था। लाड़-प्यार के बारे में यही नकारात्मक पहलू है। लाड़-प्यार एक ऐसा सामान बनाने जैसा है, जिसकी बाज़ार में ज़रूरत नहीं है। माता-पिता को यह समझना चाहिए कि उनके बच्चों को दोहरी शिक्षा की आवश्यकता है— व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक प्रशिक्षण। पहली तरह की शिक्षा शैक्षिक संस्थानों में दी जा सकती है, लेकिन दूसरी तरह की शिक्षा का केंद्र घर है और माता-पिता हैं, जो इस गृह संस्थान में शिक्षक की हैसियत रखतें हैं।,लेकिन उन्हें यह एहसास होना चाहिए की ‘क्या करें और क्या न करें की भाषा’ (Do’s And Don’ts) उद्देश्य की पूर्ति नहीं करेगी। उन्हें अधिक संवेदनशील और जटिल नज़रिये के लिए ख़ुद को तैयार करना चाहिए, जिसे तर्कसंगत आध्यात्मिकता कहा जा सकता है।