मंदिरों के बाहर पूजें देवता

उन समुदायों ने क्या किया जिन्हें मंदिरों में प्रवेश करना वर्जित था? उन्होंने स्वयं के देव निर्माण करने का निर्णय लिया।

गुजरात में भूमिहीन मज़दूरों का एक समुदाय था। कुछ पशुपालक थे तो कुछ और वन उपज की बिक्री करते थे। वे अत्यंत गुणवान कलाकार भी थे, लेकिन उन्हें मंदिरों में जाना वर्जित था। इसलिए उन्होंने कपड़ों पर चित्र बनाकर ख़ुद के देव निर्माण किए। इस प्रकार रंगाए गए कपड़ों पर घुमंतू मंदिरों का एक नया कलारूप निर्माण हुआ। उनकी अपनी देवियां थी, कुकुर पर सवार, लोगों को चेचक से सुरक्षित रखने वाली हड़काई माता, और बकरी पर सवार, खेतों को सुरक्षित रखने वाली मेलडी माता। आज इस समुदाय का नाम देवी पूजक वाघरी है।

भारतभर में हमें हिंदू धर्म में एक बहुत रोचक बात दिखाई देती है। एक ओर पुजारी मंदिर नियंत्रित हैं और केवल कुछ लोगों को उनमें प्रवेश करने देते हैं। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि मंदिर में प्रतिष्ठापित देव की विशेष रूप से देखभाल करना आवश्यक है ताकि वे शक्ति प्रदान कर सकें और यह सुनिश्चित हो सके कि मंदिर का परिवेश शांतिपूर्ण, समृद्ध और ऊर्वर बना रहे। इस प्रकार मंदिर शुभ वातावरण स्थापित करता है, जिससे समृद्धि आती है।

मूर्ति की प्रबलता बनाए रखने के लिए उसे एकांत में पवित्र रखना आवश्यक है, जिस कारण केवल कुछ पुजारियों को ही गर्भगृह में प्रवेश करने की अनुमति है। और मंदिर में भी केवल कुछ समुदाय प्रवेश कर सकते हैं।

दक्षिणपंथी दृष्टिकोण से देखा जाए तो ये गांव की समृद्धि सुनिश्चित करने की एक तकनीक है। वामपंथी दृष्टिकोण से देखा जाए तो ये वर्गीकरण स्थापित कर कुछ विशेष समुदायों को गांव के संसाधनों से वंचित रखने की तकनीक प्रतीत होती है। चाहे जो भी हो, किसी समुदाय को मंदिर के देवता से दूर रखने का ये अर्थ नहीं था कि वे लोग परमात्मा तक पहुंच नहीं सकते थे। उनके अपने परमात्मा थे।

सभी को देवता तक पहुंचना आवश्यक है, इस विचार का स्रोत एकेश्वरवाद और समानता के सिद्धांत में है। लेकिन बहुदेववाद में प्रत्येक कार्य के लिए विशेष देवता होते हैं। कुछ देवता अबाधित होते हैं और चाहते हैं कि वे सीमित जगहों में न रहें।

कुछ देवता पालतू और जड़वत हैं। कुछ केवल निर्धारित समय पर प्रस्तुत होते हैं, जैसे वर्षाऋतु के पहले की गरमी में या बाढ़ के समय। कुछ विशिष्ट पेशों से जुड़े हैं, जिस कारण अन्य लोग उन तक पहुंच नहीं सकते हैं। जैसे घरों के बाड़ें होते हैं वैसे सभी देवताओं की सीमाएं होती हैं।

प्रत्येक समुदाय ने अपनी पहचान अपने देवता के माध्यम से व्यक्त की। विभिन्न देवताओं और प्रथाओं ने विविधता को सुनिश्चित किया। वर्गीकरण उसका दुष्प्रभाव था। एकेश्वरवाद के विपरीत बहुदेववाद ने स्त्रीत्व और समलैंगिकों को स्वीकारा। सभी रूप एक ही जड़ से उभर रहें थे। लेकिन जबकि कुछ रूपों को संस्कारानुसार पवित्रता के हेतु मंदिर के भीतर रखना आवश्यक था, अन्य रूप मंदिर के बाहर यात्रा कर परिवर्तित हो सकते थे, विलीन हो सकते थे और लोगों में घुलमिल सकते थे। मंदिर के भीतर बंद देवता सालभर में नियमित रूप से लोगों से मिलने रथ यात्राओं में या विभिन्न त्यौहारों में पालकियों में बाहर आते थे। इस प्रकार, देवता बाहरी विश्व से जुड़ते रहें।

लेकिन वर्जित समुदायों के भी अपने देवता हैं, जो या तो पेड़ों के नीचे या घरों में होते हैं। इन देवताओं को जगह-जगह ले जाया भी जाता है: एक प्रकार के देवता को कुछ समुदायों के सिरों पर, टोकरियों, मटकों या विशेष रूप से बनाए रंगीन बक्सों में ले जाया जाता है। ये भारत के घुमंतू देवता हैं। दूसरे प्रकार के देवताओं की चित्रकारी कपड़ों पर की जाती है। इन चित्रों में न केवल इन देवताओं को, बल्कि उनकी वीरता की कहानियों को भी दर्शाया जाता है।

इस प्रकार, कर्णाटक की रेणुका येल्लम्मा परंपरा में देवी पुजारियों के सिर पर आसीन होकर घर आती हैं। राजस्थान में देवनारायण और पाबूजी फड़ चित्रों के माध्यम से देव घर आते हैं। या कथाकार कावड़ कथा बक्सों में देवों की कहानियां उनके सिर पर जगह-जगह ले जाते हैं। इस प्रकार, देवता मंदिरों के बाहर भी पाए जाते हैं।

कर्णाटक के लिंगायत समुदाय के लोग शिव को अपनी छाती पर जगह-जगह ले जाते हैं। हम इसे या तो ब्राह्मणवादी रूढ़िवादिता को चुनौती देना मान सकते हैं या केवल लिंगायतों की भक्ति की वैकल्पिक अभिव्यक्ति समझ सकते हैं। कुल्लू घाटी में साल में एक बार विशिष्ट मुखौटें पहने देवता एक दूसरे से मिलने पालकियों में यात्रा करते हैं। भारतभर के शहरों में साई बाबा के छोटे मंदिरों को बैलगाड़ियों और साइकिल रिक्शाओं में जगह-जगह ले जाया जाता है।

इस प्रकार हिंदू धर्म में विभिन्न समुदायों और उद्देश्यों के लिए विभिन्न प्रकार के देवता हैं, कुछ मंदिरों के बाहर, कुछ उनके भीतर, कुछ स्थायी तो कुछ घुमंतू – ताकि समुदाय में प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा तक पहुंच सके। इन परंपराओं को एक समान दिखाकर उनका एक अर्थ निकालना हिंदू धर्म की विविधता को नकारने के बराबर होगा।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।