महाकाव्यों का महत्व

महाकाव्यों पर आधारित उपन्यास

भारत में अधिकांश लोग संस्कृत रामायण या संस्कृत महाभारत से परिचित नहीं हैं। हम लोकप्रिय संस्करण पढ़ते हैं, जो इन महाकाव्यों के क्षेत्रीय पुनःकथनों पर आधारित हैं। यह पुनःकथन 1,000 साल से भी कम समय पहले रचे जाने लगें और लगभग 500 साल पहले से बहुत प्रचलित हो गए।

क्षेत्रीय पुनःकथन मौखिक रूप से प्रसारित किए गए, जिस कारण उनमें से कई या तो खो गए हैं या बिखर गए हैं और उनका अनुवाद करना बाकि है। परिणामस्वरूप, उदाहरणार्थ, गुजरात के साथ-साथ उसके बाहर के भी बहुत कम लोग 15वीं सदी के भालन और 17वीं सदी के प्रेमानंद की काव्य रचनाओं से परिचित हैं। इन रचनाओं को आख्यान के रूप में जाना जाता है और वे महाकाव्यों के प्रसंगों पर आधारित हैं। इसी तरह, साहित्यिक कार्यक्षेत्र के बाहर, 19वीं सदी में लिखे गए गुजराती गिरिधर रामायण के बारे में भी बहुत कम लोग जानते हैं।

क्षेत्रीय पुनःकथन अनुवाद नहीं हैं न ही वे संस्कृत महाकाव्यों की प्रतिकृतियाँ हैं, बल्कि वे अभिनव पुनःकथन हैं। हालाँकि वे मोटे तौर पर संस्कृत ग्रंथ के प्रति निष्ठावान रहते हैं, उनमें कई बदल भी होते हैं। उदाहरणार्थ, लक्ष्मण रेखा और सीता की प्रतिष्ठा के बारे में गपशप करने वाले धोबी के पहले उल्लेख केवल 15वीं सदी में, बंगाली कृत्तिवास रामायण में मिलते हैं। यह कहानी कि रावण शिव धनुष उठाने में असफल हुए और इसलिए सीता से विवाह नहीं कर पाए हमें कन्नड़ रामायण में मिलती है, जबकि मलयालम रामायण की कहानी में यह संभावना छेड़ी गई है कि रावण सीता के पिता हैं।

15वीं सदी के ओडिया कवि, सारला दास, ने अपने ओडिया महाभारत में, शकुनि की एक अलग ही कहानी बताई। उनके अनुसार दुर्योधन ने शकुनि के परिवार का संहार किया था जिस कारण शकुनि कौरवों से घृणा करते थे। इस प्रकार शकुनि खलनायक नहीं, बल्कि पीड़ित व्यक्ति थे। कई क्षेत्रीय रचनाओं में भौगोलिक बदल भी दिखाई देते हैं: तो बलराम दास के रामायण में राम ने ओडिशा के पुरी की यात्रा की, जबकि विल्लीपुत्तुरार के महाभारत में अर्जुन ने तमिलनाडु के श्रीरंगम की यात्रा की।

अधिकतर क्षेत्रीय पुनःकथनों ने राम और कृष्ण की दिव्यता को महत्त्व दिया, क्योंकि वे तब रचे गए जब हिंदू धर्मीय प्रमुख रूप से भक्ति के माध्यम से अपनी आस्था व्यक्त कर रहें थे। इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं कि क्षेत्रीय महाभारतों में अधिक जटिल, वयस्क कृष्ण की तुलना में भागवत के प्यारे बाल कृष्ण को या क्षेत्रीय रामायणों में न्यायसंगत राम को प्राथमिकता दी गई। इन रचनाओं के लेखक सचेत थे कि वे पवित्र ग्रंथ लिख रहें थे जिनमें वे आदरणीय पात्रों के कारनामों का पुनःकथन कर रहें थे। उन्होंने ऐसे ग्रंथ नहीं लिखें जिन्हें सामान्य मनोरंजन माना जा सकता था।

लेकिन, 18वीं सदी से, युरोप में उपन्यास लोकप्रिय बन गए। उन्हें 19वीं सदी में भारत में लाए जाने के बाद भारतीय लेखक भी इस साहित्यिक रूप के बारे में उत्सुक हुए। तब से भारत में रामायण और महाभारत पर आधारित उपन्यास लिखे जाने लगें।

इन उपन्यासों के लेखकों ने महाकाव्यों की पवित्रता पर संकोचपूर्वक ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय उन्होंने कहानी या तो सर्वज्ञ कहानीकार के रूप में या किसी पात्र के दृष्टिकोण से बताई। अक्सर वे वक़ील या न्यायाधीश की भूमिका निभाते, एक पात्र की वकालत करते, और दूसरों पर मुकदमा चलाते। इन उपन्यासों में प्राचीन कथा को दैनिक जीवन के आधुनिक अनुभव से जोड़ने की तीव्र इच्छा दिखाई देती है। इससे ‘पौराणिक उपन्यास’ नामक शैली का उदय हुआ है, जो क्षेत्रीय भाषाओं और अंग्रेज़ी दोनों में लोकप्रिय है, और जिसने गद्य और कविता दोनों का रूप लिया। ये रचनाएँ अक्सर आधुनिक राजनीतिक विचारधाराओं का समर्थन करती हैं, जिस कारण इन आधुनिक उपन्यासों के पाठक अक्सर मानते हैं कि वे जो पढ़ रहें हैं वो ‘वैदिक’ सत्य है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भक्ति काल में लोग महाभारत की जगह रामायण को प्राथमिकता देते थे। तब राम तथा कृष्ण को उत्कृष्टता के अवतार दिखाने की बड़ी इच्छा थी। उपन्यासों के आधुनिक काल में, महाभारत को अधिक प्राथमिकता दी जाती है, और राम तथा कृष्ण में दोष खोजकर उन्हें पूर्ण देवता कम और दोषपूर्ण मानव अधिक दिखाने की और इच्छा है।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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