जब हम महाभारत की चर्चा करते हैं, तब यह अक्सर सुप्रसिद्ध संस्कृत महाकाव्य के संदर्भ में होती है। लेकिन पूरे भारतवर्ष में घूमने पर हमें यह पता चलता है कि महाभारत केवल एक महाकाव्य नहीं, बल्कि पूरी परंपरा है। यह इसलिए कि महाभारत पर कई लोककथाएं और रस्में आधारित हैं और उस पर कई मंदिर भी स्थापित किए गए हैं।
ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर में शिवजी की पांच मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों को पंच-पांडव कहा जाता है। कहते हैं कि उत्तराखंड में एक शिवलिंग है, जिसे पांडवों ने स्थापित किया था। तमिलनाडु में अलग-अलग सब्ज़ियां मिलाकर ‘अवियल’ नाम का एक विशेष व्यंजन बनाया जाता है। मान्यता है कि यह व्यंजन भीम ने पहली बार पकाया था।
भारत भर में देखें तो महाभारत की विविध, रोमांचक कहानियों के हमें कई रूप मिलते हैं। उदाहरणार्थ तेलुगु लोक काव्य में कहा गया है कि कौरवों ने शकुनि के संपूर्ण वंश का विध्वंस किया था। इसलिए कौरवों से प्रतिशोध लेने के लिए शकुनि ने ही महाभारत के युद्ध का षड्यंत्र रचा था।
तमिल महाभारत में हमें उलूपी और अर्जुन के बेटे इरावान की कहानी मिलती है। कहते हैं कि पांडव युद्ध में जीत सकें, इसलिए इरावान की बलि चढ़ाई गई। लेकिन मृत्यु के पहले इरावान विवाह करना चाहते थे। चूंकि कोई स्त्री उनसे विवाह करना नहीं चाहती थी। इसलिए श्रीकृष्ण ने मोहिनी का रूप धारण किया और इरावान से विवाह किया। इरावान की मृत्यु और उसकी बलि चढ़ने के पश्चात मोहिनी ने एक विधवा के रूप में शोक मनाया।
यहां इंडोनेशियाई महाभारत की कहानी बताना भी उचित होगा। युद्ध के अंतिम दिन शाल्य कौरवों के सेनापति बनाए गए। महाभारत के इस रूपांतर के अनुसार जब भी शाल्य पर हमला होता, तब उनके कान में से एक राक्षस बाहर आता। हमले की तीव्रता बढ़ने पर राक्षस भी और शक्तिशाली बन जाता। ऐसे में शाल्य को पराजित करने के लिए कृष्ण ने युधिष्ठिर को सुझाव दिया कि वह शाल्य से स्नेह से लड़ें, ना कि क्रोधित होकर। इसलिए जब युधिष्ठिर स्नेहपूर्वक शाल्य की ओर चलकर गए, तब वह राक्षस इतना निर्बल बन गया कि शाल्य के कान से बाहर तक निकल नहीं सका। और जब बिना किसी द्वेष के युधिष्ठिर शाल्य के निकट पहुंच गए, तब उन्होंने अपने भाले से कौरवों के अंतिम सेनापति का वध कर दिया।
ओडिशा की सरला दास महाभारत में एक कहानी के अनुसार युद्ध के पश्चात जब सारे कौरव मारे गए, तब दुर्योधन रणभूमि से दूर भागने लगा। इस प्रयास में उसने एक रक्त की नदी को पार करने की कोशिश की। लेकिन रक्त की धार इतनी तेज़ थी कि दूसरे तट तक जाने के लिए उसे एक लकड़ी का सहारा लेना पड़ा। दूसरे तट पर पहुंचने के बाद उसे पता चला कि वह जिसे वृक्ष समझ रहा था, वह वास्तव में उसके बेटे का शव था। यह पता चलने पर दुर्योधन को इतना पश्चात्ताप हुआ कि वह फिर से रणभूमि में लौट आया।
महाभारत के लोकप्रिय संस्करणों के अनुसार अंत में पांडवों ने कौरवों को पराजित किया। इसके पश्चात युधिष्ठिर भारत के महाराजा बन गए। फिर उन्होंने अपना राजसी घोड़ा भारतभर में दौड़ने के लिए खुला छोड़ दिया। अर्जुन के नेतृत्व में उनकी सेना ने उस घोड़े का पीछा कर सारे भारतवर्ष में पांडवों का राज्य स्थापित किया। यह एक विजयी राजा की जीत ही नहीं, बल्कि पुराने शत्रुओं के साथ सामंजस्य करने का प्रयास भी था।
16वीं शताब्दी में लक्ष्मीशा ने कन्नड़ भाषा में ‘जैमिनि भारत’ लिखा। इसके अनुसार घोड़े का पीछा करते-करते पांडव शकुनि और जयद्रथ के बेटों से मिले। उनके पुराने शत्रु फिर उनके मित्र और साथी बन गए। और जब अंत में घोड़े की बलि चढ़ाई गई, तो वह ख़ुशी से हंसता रहा, क्योंकि बलि होने का अर्थ था बैकुंठ लौट जाना। इस प्रकार अश्वमेध किसी घोड़े की बलि चढ़ाने या विजयी राजा के बारे में नहीं, बल्कि कृष्ण का प्रेम पाने और विश्वभर में शांति स्थापित करने के बारे में था।