जब वसुधैव कुटुम्बकम् की बात होती है, तो साधारणतः उसका अर्थ होता है पूरी दुनिया। चूंकि पूरी दुनिया ब्रह्मा को पितामह मानती है, इसलिए हम संसार के सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के बच्चे हैं। इसीलिए, पूरी दुनिया एक कुटुंब है। हमारा विश्वास यह है कि एक दिन हम पहचान जाएंगे कि हम सब एक ही परिवार के हैं और हम सुखी जीवन जी पाएंगे, बिना किसी कलह के।
वास्तव में देखा जाए तो ब्रह्मा के पौत्रों के बीच हमेशा लड़ाई होती है। ब्रह्मा के मानस पुत्रों को सप्तऋषि कहा जाता है। दुनिया में सारे जीव-जंतुओं का जन्म उनकी पत्नियों के द्वारा हुआ। कश्यप ऋषि देव और दानव दोनों के पिता हैं। इसका अर्थ यह है कि देव और दानव सौतेले भाई होते हुए भी एक ही परिवार के हैं। वैसे ही गरुड़ और नाग दोनों कश्यप के ही पुत्र हैं। जैसे देव और दानव हमेशा लड़ाई करते हैं, वैसे ही गरुड़ और नाग के बीच हमेशा लड़ाई होती है। राक्षस गण और यक्ष गण का जन्म पुलत्स्य नामक या वैश्रव नामक ऋषि से हुआ और वे भी हमेशा लड़ाई करते हैं। इस प्रकार वसुधैव कुटुम्बकम् एक सुखी परिवार नहीं, बल्कि एक कलहपूर्ण परिवार है।
रामायण और महाभारत भारत के महाग्रंथ हैं और इनमें दिखाया गया है कि परिवार के बीच धन और बंटवारे को लेकर हमेशा लड़ाई होती है। इसलिए जब भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारा हुआ, तो यह एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक चोट थी, क्योंकि इस घटना ने इस बात को दोहराया कि भारत में भी वसुधैव कुटुम्बकम् नहीं है।
चाणक्य अपनी चाणक्य नीति में वसुधैव कुटुम्बकम् को नहीं मानते थे। अगर, हम धर्मशास्त्र देखें और मनुस्मृति और चाणक्य नीति पढ़ें, तो वहां स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जहां राजा नहीं होता, वहां अराजकता होती है। अराजकता का अर्थ है मत्स्य न्याय, यानी बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। जब राजा आता है, तब वह धर्म की स्थापना करता है, जहां पर शक्तिहीन लोगों की देखभाल शक्तिशाली लोग करते हैं। जब तक धर्म नहीं होगा, तब तक मनुष्य पशु जैसा व्यवहार करेगा। ऐसा देखा जाए तो परिवार के भीतर लड़ाई होने का अर्थ है वहां धर्म स्थापना नहीं हुई है और इसी बात को रामायण और महाभारत की पारिवारिक समस्याओं से व्यक्त किया गया है।
कहते हैं कि जब ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया, तो उन्होंने अपने बच्चों को भोजन के लिए बुलाया। लेकिन, जब उनके बच्चे भोजन करने के लिए आए, तब ब्रह्मा ने यह शर्त रखी कि उन्हें अपने हाथ को बिना मोड़े भोजन करना होगा। हाथ बिना मोड़े तो कोई मनुष्य भोजन नहीं कर सकता। तब कुछ बच्चों ने अपनी गर्दन को मोड़कर पशु के समान भोजन किया, तो कुछ ने भोजन करने से इनकार कर दिया। लेकिन, कुछ ऐसे थे जिन्होंने अपना भोजन उठाया और हाथ को बिना मोड़े सामने वाले को दे दिया, इस आशा से कि सामने वाला भी उसके उत्तर में उन्हें भोजन देगा। यही था विश्व का पहला यज्ञ, मैं पहले ‘स्वाहा’ देता हूं ताकि ‘तथास्तु’ पा सकूं। मैं पहले अपने कार्य से ऋण का बीज बोता हूं, ताकि मुझे फल प्राप्ति हो। यह यज्ञ वैदिक परंपरा की सबसे महत्त्वपूर्ण क्रिया है, जिसका अर्थ हम भूल चुके हैं। उसका अर्थ है आदान-प्रदान यानी सामने वाले की सहायता करना ताकि वो सामने वाला भी हमारी सहायता कर सके। यही धर्म की उपयोगिता है।
लेकिन, जब धर्म नहीं होता, तब हम यज्ञ नहीं करते और जब यज्ञ नहीं करते, तो हम मनुष्य नहीं, पशु जैसा व्यवहार करते हैं। हम अपने हिस्से के लिए लड़ाई करते हैं, जैसे कुत्ते मांस को लेकर लड़ाई करते हैं। यही युद्ध हमें चारों ओर दिखाई देता है, जैसे अंबानी परिवार में भाइयों के बीच की लड़ाई, रेनबैक्सी के भाइयों के बीच की लड़ाई और भारत व पकिस्तान के बीच की लड़ाई। मनुष्य का यह व्यवहार इस बात का प्रमाण है कि कहानियों में दर्शाया गया वसुधैव कुटुम्बकम् बहुत ही काल्पनिक है। इसीलिए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य की पशु प्रकृति से हमें हमेशा सचेत रहना चाहिए।