कुबेर की प्राचीन भारत में जितनी पूजा होती थी उतनी आज नहीं होती। बौद्ध और जैन धर्मों के उदय के बाद भी मणिभद्र जैसे संरक्षण और उपजाऊपन के देवताओं के रूप में कुबेर उनकी माइथोलॉजी का भाग थे। ऐसी कई हिंदू, जैन और बौद्ध कथाएं हैं जिनमें यक्ष लोगों को पहेलियां बताते और परेशान करते।
यक्ष विचित्र, विकृत, बौने, तोंदुए और मोटे जीव हैं। वे शिव की संगत पसंद करते हैं क्योंकि एकमात्र शिव उनके घिनौने रूप को स्वीकारते हैं। वे झीलों से जुड़ें हैं। महाभारत में जब पांडवों ने एक यक्ष की अनुमति लिए बिना झील से पानी पीया तब उसने उन्हें मार डाला और केवल तब पुनर्जीवित किया जब युधिष्ठिर ने उसके सारे प्रश्नों का उत्तर दिया। कुबेर यक्षों के राजा हैं जो हिमालय में कैलाश पर्वत के पास स्थित अलकापुरी में रहते हैं।
यक्ष संपत्ति के संरक्षक भी हैं। कुबेर देवताओं के खज़ांची हैं। कुछ लोग उन्हें समुद्र के देवता ‘वरुण’ का रूप भी मानते हैं। फलस्वरूप, वे लक्ष्मी के पिता हैं। कुछ लोग उन्हें लक्ष्मी के भाई मानते हैं। तो कुछ और लोग मानते हैं कि कुबेर की पत्नियां विकास की देवी ‘रिद्धि’ और संचय की देवी ‘निधि’ लक्ष्मी के ही दो रूप हैं।
कुबेर के हाथ में एक सुनहरा नेवला होता है, जिसके मुँह से मणि उगलते हैं। यह रोचक बात है, क्योंकि नेवले सांपों के शत्रु हैं। यह मान्यता है कि सांपों विशेषतः नागों के फण पर मणि निर्माण होते हैं।
कहते हैं कि कुबेर इतने धनी हैं कि उनका वाहन एक मनुष्य है, अर्थात वे नर-वाहन हैं। अन्य देवताओं के वाहन प्राणी हैं – शिव का बैल, विष्णु का गरुड, लक्ष्मी का हाथी और दुर्गा का सिंह। लेकिन कुबेर मनुष्य पर संवार होते हैं। यह संभवतः इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य संपत्ति का ग़ुलाम बन गया है।
कुबेर यह जानने के लिए प्रसिद्ध थे कि कब खर्च करना है और कब नहीं। एक बार संपत्ति को लेकर उनकी घमंड इतनी बढ़ गई कि उन्हें सबक सिखाने के लिए स्वयं गणेश ने उनके घर जाकर सारा भोजन खा लिया। इससे उन्हें सीख मिली कि आध्यात्मिक संपत्ति के विपरीत भौतिक संपत्ति घट सकती है। एक और बार वे अपनी संपत्ति की डींग मार रहें थे। तब शिव की सहवासिनी देवी ने कुबेर की एक आँख ले ली और उसके बदले दूसरी आँख लाने की चुनौती दी। कुबेर वह नहीं कर सकें और जान गए कि संपत्ति सभी समस्याओं का हल नहीं है।
कहते हैं कि दक्षिणी समुद्र के बीच स्थित सोने की लंका कुबेर ने बनाई थी। उनके पिता वैश्रव की दो पत्नियां थी। एक ने यक्षों को जन्म दिया और दूसरी ने राक्षसों को। राक्षसों के राजा रावण को कुबेर की समृद्धि से इतनी ईर्ष्या हुई कि उन्होंने कुबेर को लंका से भगा दिया और स्वयं उसपर शासन करने लगें।
कुबेर ने उत्तर में जाकर अ-लंका स्थापित की, वह नगरी जो लंका नहीं थी। अ-लंका का नाम अलका-पुरी बन गया। वास्तु-शास्त्र में दक्षिण मृत्यु और बदलाव से और इसलिए राक्षसों से जुड़ा है, जबकि उत्तर विकास, समृद्धि तथा स्थायित्व और इसलिए यक्षों से जुड़ा है।
प्राचीन काल में, कुबेर की प्रतिमाएं सौभाग्य और समृद्धि के लिए बौद्ध विहारों और जैन मंदिरों में भी रखी जाती थी। यक्षों के मोटे पेट को हाथ लगाना शुभ माना जाता था। ज़ेन बौद्ध धर्म में ‘लाफ़िंग बुद्धा’ की छवि का हिंदू धर्म की यक्ष-मूर्तियों से निकट का संबंध है। यक्ष वाइकिंग माइथोलॉजी के ड्वार्फ़ और आयरलैंड की माइथोलॉजी के गॉब्लिन से लगभग मिलते जुलते हैं। वे मूलतः भौतिक जीव थे। लोग उनके रूप से डरते तो थे, लेकिन उनके धन के लिए उन्हें चाहते भी थे।
यक्ष जल-देवता थे। जल के होने से संपत्ति बढ़ती थी और फलस्वरूप वहां यक्ष भी आते थे। नागाओं और गंधर्वों के जैसे यक्ष भी मनुष्यों की बस्तियों के बाहर जंगलों में रहते थे। उपजाऊपन की खोज में प्राचीन भारतीय पेड़ों के नीचे, झरनों के बग़ल में या गुफाओं में उनकी पूजा करते थे।
जैसे-जैसे धर्म संगठित होते गए, वैसे-वैसे इन देवताओं का महत्त्व घटता गया। आजकल यक्षों की प्रतिमाएं मंदिरों के किनारों की दीवारों पर पाईं जाती हैं। लेकिन, जैसे हमारी अर्थव्यवस्था पर समाजवाद से अधिक पूंजीवाद का असर बढ़ रहा है, वैसे इन देवताओं का महत्त्व भी अब धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। ध्यान दें कि कैसे भारतभर में फेंगशुई के चिन्ह लोकप्रिय होते जा रहें हैं, जैसे ड्रैगन, बढ़ता बांस, मोटे, तोंदुए साधु, भाग्य के देवता और सोने के सिक्कों के ढेर पर स्थित मेंढक। ये सभी जल-देवता हैं, जो कुबेर से प्रेरित हैं, उत्तर पूर्व में स्थित चीन के यक्ष हैं।
देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।