क्षमा करना सच में एक दिव्य गुण है। हम सबके अंदर यह दिव्य गुण है। हमें केवल इसे अपने दैनिक जीवन के कर्मों में प्रकाशित करना है।
पुराणों में एक बड़ी रोचक कथा है। एक बार ऋषि भृगु के मन में यह जानने की इच्छा हुई कि ब्रह्मा, शिव और विष्णु में, कौन सबसे महान हैं? किस की भक्ति ज़्यादा करनी चाहिए। ऋषि ने फैसला किया कि वही देवता सबसे महान होगा, जिसमें सबसे ज़्यादा धीरज और क्षमाशीलता होगी।
एक योजना बनाकर ऋषि भृगु तीनों को परखने निकले। सबसे पहले वे ब्रह्माजी के पास गए। उनके सामने जाकर भृगु ने, न उनके चरण छुए और न नमस्कार किया। उनको पूरी तरह अनदेखा कर दिया। ब्रह्माजी क्रोध के मारे आपे से बाहर हो गए और भृगु को श्राप देने के लिए उठे ही थे कि देवी सरस्वती ने उन्हें रोक लिया और बोली, प्रिय देव, कृपया भृगु को क्षमा कर दीजिए। उनके इस अजीब व्यवहार के पीछे ज़रूर कोई कारण होगा।
ब्रह्माजी कुछ शांत हुए और भृगु वहां से चुपचाप निकल गए, उसके बाद वे कैलाश पर्वत जा पहुंचे जहां शिवजी ध्यान-मग्न थे। वहां भृगु ऋषि उनका मज़ाक उड़ाते हुए बोले, ज़रा अपनी तरफ देखो। सारे शरीर पर भस्म मला है और गले में सांपों के हार पहने हुए हैं। आप कोई पागल से जान पड़ते हो।
शिवजी उन पर अपने त्रिशूल से वार करने ही वाले थे कि देवी पार्वती ने बीच में ही उन्हें रोककर कहा, स्वामी, कृपया इस बार इसे क्षमा कर दें। शिवजी को क्रोध तो बहुत आया, पर अपनी प्रिय पत्नी के कहने पर उन्होंने ट्टषि को जाने दिया।
कैलाश पर्वत से अपनी जान बचाकर, भृगु, ब्रह्मांड के पालनहार, विष्णु के निवास स्थान वैकुंठ जा पहुंचे, जहां विष्णु योग-निद्रा में मग्न थे। विष्णु को सोया हुआ पाकर भृगु की हिम्मत और भी बढ़ गई और उसने बड़ा अजीब व्यवहार किया, भगवान विष्णु की छाती पर अपने पैर से ठोकर मारी और कहा, तुम्हारा कर्त्तव्य है संसार का पालन करना। उसे भुलाकर तुम नींद में मस्त हो।
विष्णुजी जागे, जैसे ही उन्होंने आंखें खोलीं ऋषि के पांव पकड़ लिए और विनयपूर्वक कहा, क्षमा कीजिए ऋषिवर। मेरी कठोर छाती पर आपके पवित्र, कोमल चरण पड़ने पर उन्हें चोट पहुंची होगी। आप मेरे श्रेष्ठ भक्तों में से एक हैं। आपको जो मैंने अनजाने में चोट पहुंचाई है, उसे कैसे दूर कर सकता हूं?
भृगु ऋषि की आंखों में आंसू भर आए और वे विष्णु भगवान के चरण कमलों पर गिरकर बोले, भगवन, मेरा गर्व और मेरी मूर्खता क्षमा करें। परम करुणा के स्वामी, मैं तुच्छ आपको परखने चला था। आपकी पवित्र छाती पर ठोकर मारने का मैंने घोर पाप किया है। इस पाप को मैं कैसे धोऊंगा? मेरे लिए कितनी शर्म की बात है। मेरी कितनी बदनामी होगी।
भगवान मुस्कुराते हुए बोले, एक शिशु द्वारा छाती पर पैर मारने से एक पिता अपने बच्चे से कैसे नाराज़ हो सकता है? तुम मेरे प्रिय पुत्र हो और तुमने लाड़ से अपने पिता के साथ ऐसा किया है। आने वाले युगों-युगों तक तुम्हारे पैरों के निशान मेरे वक्ष पर अंकित रहेंगे। ऐसी होती है दैवी क्षमा की शक्ति।
देवताओं में कौन महान है, इस बात पर तर्क-वितर्क करने के लिए लोग अकसर इस कहानी का उल्लेख करते हैं। मेरे विचार से लोग पुराणों की इस कथा का मूल अर्थ ही भूल जाते हैं। यह कथा तो दिव्य क्षमा की शक्ति बताती है। अगर भगवान इस घोर अपराध को क्षमा कर सकते हैं, तो हम अपने किसी व्यक्ति के प्रति द्वेष या बदले की भावना रखने वाले कौन हैं?