कैसे होने चाहिए गण और गणाधिपति के बीच संबंध

कैसे होने चाहिए गण और गणाधिपति के बीच संबंध?

गण के सदस्यों (जनता) और गणाधिपति (शासक) के बीच कैसा संबंध होना चाहिए? इसे लेकर हमें पुराणों में दो कथाएं मिलती हैं; एक कथा चंद्र व नक्षत्रों से जुड़ी हुई है और दूसरी कथा श्रीकृष्ण और गोपिकाओं से।

कहते हैं कि दक्ष प्रजापति ने अपनी 27 नक्षत्र बेटियों का विवाह चंद्रदेव से कराया था। लेकिन, चंद्रदेव को केवल रोहिणी नाम की पत्नी पसंद थी। बाकी नक्षत्र पत्नियों से वो प्रेम नहीं करते थे और अपना पूरा समय केवल एक पत्नी को देते थे। इसे देखकर चंद्रदेव की बाकी पत्नियों ने दक्ष प्रजापति के पास जाकर शिकायत की। दक्ष प्रजापति ने चंद्रदेव को बुलाकर कहा कि यह ठीक नहीं है। उन्हें सभी पत्नियों को एक जैसा मानकर उन्हें बराबर समय देना चाहिए, क्योंकि वे सभी उनकी धर्म पत्नियां हैं और सभी एक जैसी हैं। पति का धर्म होता है कि वह हर पत्नी के साथ समान व्यवहार करें, जैसे महाभारत में द्रौपदी ने अपने पांचों पतियों से एक जैसा प्रेम किया था, वैसे ही चंद्रदेव को अपनी सारी नक्षत्र पत्नियों के साथ एक जैसा प्रेम करना चाहिए।

लेकिन, दक्ष प्रजापति के यह बताने के बावजूद चंद्रदेव ने पक्षपात किया और केवल रोहिणी के साथ ही समय बिताने लगे। इससे क्रोधित होकर दक्ष प्रजापति ने चंद्रदेव को श्राप दिया कि उन्हें क्षयरोग हो जाएगा और धीरे-धीरे उनका सुंदर शरीर मिट जाएगा। इसी कारण जबकि पहले हर रात पूनम की रात होती थी, कृष्णपक्ष की शुरुआत दक्ष प्रजापति के क्षयरोग के श्राप की वजह से हुई। इससे डरकर चंद्रदेव ब्रह्मदेव के पास गए और उनसे पूछा कि क्या इस श्राप से मुक्ति का कोई उपाय मिल सकता है? ब्रह्मदेव ने उन्हें शिवजी की उपासना करने को कहा। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर शिवजी ने चंद्रदेव को उठाकर अपनी ललाट पर रख दिया और इसीलिए शिवजी को ‘चंद्रशेखर’ भी बुलाते हैं, वे जिनके माथे पर चंद्रदेव बैठे हुए हैं। वहां बैठकर ही चंद्रदेव को क्षय रोग से मुक्ति प्राप्त हुई, अर्थात कृष्णपक्ष शुक्लपक्ष में बदल गया। इसलिए शिव के वरदान से शुक्लपक्ष का निर्माण हुआ जैसे दक्ष के श्राप से कृष्णपक्ष का निर्माण हुआ था। इस कथा से यह ज्ञान मिलता है कि एक गणाधिपति को अपने गण के हर सदस्य के साथ एक जैसा व्यवहार करना चाहिए, नहीं तो क्षयरोग उन्हें बर्बाद कर सकता है और उनके राजधर्म का क्षय हो सकता है।

दूसरी कथा भागवत पुराण से आती है, जहां पर श्रीकृष्ण मधुबन में रासलीला कर रहे हैं। सभी गोपिकाओं के लिए वे मुरली बजाते हैं और सभी नाचती हैं। श्रीकृष्ण सभी से एक जैसा प्रेम करते हैं। लेकिन, कहते हैं कि गोपियों के बीच इस बात को लेकर लड़ाई हो जाती है कि श्रीकृष्ण सचमुच में किनसे प्रेम करते हैं? फिर सभी गोपियां उन पर अपना अधिकार जमाती हैं। जब गोपियों के बीच यह संघर्ष होता है, तब श्रीकृष्ण अदृश्य हो जाते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण कहीं दिखाई नहीं देते। उन्हें श्रीकृष्ण का शृंगार रूप नज़र नहीं आता। उन्हें केवल मुरली सुनाई देती है। इससे उन्हें बहुत तकलीफ होती है और विरह रस का अनुभव होता है। वे रो पड़ती हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो प्रेम को मिल बांटकर उसका अनुभव नहीं कर सकता है, जो श्रीकृष्ण को केवल अपने दायरे में बांधकर रखना चाहता है, उसे भक्ति योग और श्रीकृष्ण का सुख नहीं मिल सकता। इसलिए रासलीला में हर गोपिका की यही इच्छा होनी चाहिए कि श्रीकृष्ण का प्रेम दूसरों को भी उतना ही मिले, जितना उसे मिलता है। इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि गण के सदस्यों को केवल यह नहीं मानना चाहिए कि गणाधिपति पर केवल उसका अधिकार है, बल्कि पूरे गण के बारे में सोचना चाहिए।

इस तरह कह सकते हैं सर्वजनसुख के लिए गणाधिपति को गण के हर सदस्य के बारे में सोचना चाहिए और गण के हर सदस्य को भी यह सोचना चाहिए कि गणाधिपति सबको सुख कैसे पहुंचा सकते हैं।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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