झूठ और सत्य

झूठ और सत्य

सार्वजनिक जीवन में अनेक लोगों से संपर्क में आते ही प्रतिदिन हम देखते और सुनते हैं कि लोग छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी बातों में अक्सर झूठ बोल देते हैं।

दफ्तरों में काम करने वाले कितने ही लोग यह कहते हुए सुने जाते हैं कि वे प्रायः झूठा कारण बताकर ही छुट्टी लेते हैं, वर्ना उनके लिए छुट्टी मिलना मुश्किल हो जाता है। व्यापारी वर्ग बड़े तपाक से कहता है कि ‘बाबूजी, आज सच बोलने से इतना कहां कमा सकते हैं कि घर का खर्च भी चला सकें और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और ब्याह-शादी का भी प्रबंध कर सकें?’ यह सबको मालूम है कि इनकम टैक्स के बोझ से बचने के लिए वे झूठा हिसाब बड़ी सफाई से बनाते हैं, धड़ल्ले से दिखाते हैं। डॉक्टर लोग रोगी के रोग का निदान न भी कर सकें, तो भी यही कहते हैं कि यह दवा खा लो तो ठीक हो जाओगे। पुलिस वाले दूसरों के बारे में यही कहते हैं कि अगर उनकी 200 रुपए की चोरी हो जाए, तो वे दो हजार से कम की रिपोर्ट नहीं लिखवाते। इसकी वजह यह है कि रिपोर्ट लिखवाने वाला सोचता है, लोग ये न सोच लें कि उसके घर में कोई कीमती सामान ही नहीं है। स्वयं पुलिस वाले कितना सच बोलते हैं, इसके लिए कुछ न कहें तो भी ठीक नहीं और कहें तो भी ठीक नहीं। फिर छोटे बच्चों के लिए तो मशहूर ही है कि वे ऐसी मासूमियत से झूठ बोलते हैं कि जल्दी ही उनका झूठ पकड़ा भी जाता है।

क्या झूठ के बिना काम नहीं चलता?

जमाना ऐसा आ गया है कि लोग खुल्लम-खुल्ला कहने लगे हैं कि ‘बाबूजी, आज झूठ के बिना भला काम कहां चलता है? यदि वकील लोग सच बोलें तो उनकी वकालत ही ठप्प हो जाए। यदि राजनीतिज्ञ चुनाव में अपने तथा अपने प्रतिद्वंद्वी के बारे में सच बताएं तो न वे चुनाव जीत सकेंगे और न मंत्री बन सकेंगे। यदि अपनी कंपनी के माल की बिक्री की बढ़ोतरी के व्यवसाय में लगा हुआ व्यक्ति किसी ग्राहक को सच-सच बता दे कि उसकी कंपनी के माल में फलां-फलां नुक्स होता है और दूसरी कंपनी के माल में अमुक-अमुक अच्छाई होती है, तो उसका माल भला लेगा ही कौन? इसी प्रकार, यदि वकील यह साफ-साफ बता दे कि जिस पक्ष से वह मुकदमा लड़ रहा है, वह वास्तव में जुर्मवार है अथवा कि उसके पक्ष में फलां-फलां कानूनी कमजोरी है, तो वह मुकदमा जीतेगा ही कैसे और उसको भविष्य में कौन अपना वकील नियुक्त करके फीस देना पसंद करेगा।’ अतः हर व्यक्ति अपने दही को मीठा बताता है, चाहे वह खट्टा हो। कहने का भाव यह है कि हर व्यक्ति अपने झूठ बोलने के बारे में सफाई पेश करता है और झूठ का धंधा इतना चल निकला है कि लोग न्यायालयों में शपथ लेकर जो बयान देते हैं, उसमें स्पष्ट कहते हैं कि ‘मैं जो कुछ कहूंगा बिल्कुल सच कहूंगा।’ अथवा कि ‘जहां तक मुझे ज्ञान है और मेरा विश्वास है, मैं सच कह रहा हूं’ परंतु प्रायः लोग मन में जानते हैं कि वास्तविकता इसके विपरीत ही होती है। इस युग की ऐसी दशा देखकर ठीक ही कहा गया है कि कलियुग में झूठ ही का बोलबाला होता है। वास्तव में इसी युग के बारे में ही कहा गया है, ‘झूठी काया, झूठी माया, झूठा सब संसार’ अथवा कि यहां झूठ ही झूठ है, सत्य की रत्ती भी नहीं।

व्यवहार और परमार्थ में झूठ

दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए, तो आज केवल पारस्परिक व्यवहार में ही झूठ का सिक्का नहीं चल रहा, बल्कि परमार्थ के मार्ग में भी सोने के नाम से मुलम्मा मिल रहा है। आज संसार में पारमार्थिक सत्ता (आत्मा, परमात्मा, परलोक इत्यादि) के बारे में इतने मत-वाद हैं कि गणना करना भी मुश्किल है और उनमें से हरेक बाकी सबको झूठ बता रहा है। वास्तव में सभी सत्य हो भी तो नहीं सकते। हालत यह है कि जो व्यक्ति भगवान की सत्ता को ही नहीं मानता, आज उसे भी भगवान कहा जा रहा है। जो व्यक्ति अवतारवाद का निषेध करता है, स्वयं उस व्यक्ति को ‘अवतार’ घोषित किया जा रहा है। हमारे इस कथन के समर्थन के लिए भारत का धार्मिक इतिहास साक्षी है क्योंकि यद्यपि गौतम बुद्ध ने न भगवान के अस्तित्व को आवश्यक माना, न अवतारवाद को स्वीकार किया लेकिन, लोग ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ का मंत्र पढ़ते हैं और धार्मिक साहित्य में विष्णु के अवतारों में बुद्ध की भी अवतार के रूप में परिगणना की जाती है। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति भगवान को स्वयं से भिन्न एक सर्वोपरि सत्ता मानता है, उसे भी जनता ‘भगवान’ शब्द से सम्मानित कर रही है। उदाहरण के तौर पर व्यास ऋषि ने गीता के वक्ता को ‘भगवान’ मानते हुए गीता के प्रारम्भ में ‘भगवानुवाच’ लिखा है, लेकिन आज अनेक पंडित, पुजारी, कथावाचक और भक्त व्यास के बारे में ही कहते हैं कि गीता ‘भगवान व्यास’ ने लिखी। बात देखिए, आज लोग भगवान के नाम पर ही कसम खाकर कहते हैं कि ‘मैं भगवान को हाजिर और नाजिर मानकर कहता हूं’ जबकि वास्तव में उनमें से प्रायः किसी ने भी यह नहीं देखा कि भगवान सब जगह हाजिर और नाजिर है, न ही वे अपने जीवन में भगवान को सदा हाजिर-नाजिर मानकर सत्य आचरण ही करते हैं। इस पर भी विशेष बात यह है कि वे लोग दूसरी ओर यह भी कहते हैं कि ‘आत्मा ही परमात्मा है’ जिसका भाव यही होता है कि उनसे भिन्न कोई नाजिर परमात्मा नहीं है। तब भला हाजिर-नाजिर मानने का क्या अर्थ हुआ? आश्चर्य है कि एक ओर वे कहते हैं कि आज सब जगह भ्रष्टाचार, पापाचार, अत्याचार, विकार, चोर बाजार और धोखाबाजी है, दूसरी ओर वे ही लोग कहते हैं कि सब जगह भगवान विराजमान हैं और उनके हुक्म के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। अप्रत्यक्ष रूप में इसका भाव तो यही निकलता है कि सब जगह हाजिर परमात्मा ही की इच्छा से, सब जगह भ्रष्टाचार है, परंतु ऐसे तो शायद वे स्वयं भी मानने को तैयार नहीं होंगे, जिसका भाव यह हुआ कि वे पारमार्थिक सत्य को भी नहीं जानते।

आज झूठ सर्वव्यापक है, परंतु लोग कहते हैं कि सत्य स्वरूप परमात्मा सर्वव्यापक है। वे इतना भी नहीं सोचते कि जब हम परमात्मा को सत्य कहते हैं, तो इस कथन से ही बाकी सब झूठ ठहरते हैं।

अतः झूठ और सत्य की चर्चा में सबसे ज्यादा खेद की बात तो यही है कि आज सत्य स्वरूप परमात्मा के बारे में भी झूठ प्रचलित है और सतयुग के देवताओं पर भी झूठे कलंक लगाए जाते हैं। फिर इस झूठ को सत्य सिद्ध करने के लिए बड़े-बड़े तर्क प्रस्तुत करते हैं और सुनने वाले कहते हैं कि उनकी इस बात में बड़ा वजन है। हां, आइनस्टाइन के सापेक्षवाद के अनुसार तो ऊर्जा का भी वजन है, तब झूठी बात का भी वजन तो होगा क्योंकि ध्वनि भी ऊर्जा का रूप है।

अब किया क्या जाए?

अब प्रश्न उठता है कि आज के वातावरण में सत्य बोलने की इच्छा वाला मनुष्य क्या करे? जब उसके आस-पास, चहुं ओर, दफ्तर में, व्यापार में, बाजार में, झूठ ही पनप रहा है, तो ऐसी स्थिति में एक धर्म-प्रेमी व्यक्ति, योग रूपी अनुशासन के अंतर्गत जिसका यम-नियमों में महत्वपूर्ण स्थान है, उस सत्य का पालन कैसे करे?

आज व्यवहारिक रूप में लोग देखते हैं कि कई परिस्थितियों में सत्य बोलने का जो परिणाम उनके सामने आता है, वह सुनने वाले और बोलने वाले, दोनों के लिए दुखद होता है। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि एक व्यक्ति किसी से पूछता है, ‘बताइए भाई साहब, मेरे बारे में आपका क्या विचार है?’ अब यदि वह उसे स्पष्ट शब्दों में कह दे कि वह उस व्यक्ति को ठीक नहीं समझता और कि उसके फलां-फलां कारण हैं, तो बात बिगड़ेगी ही। यदि प्रश्न-कर्त्ता भी दूसरे के बारे में ऐसा ही कुछ कह दें, तो दोनों के संबंध में तनाव ही पैदा होगा। ऐसी परिस्थिति में हम सत्य को महत्व दें या संबंध, पारस्परिक स्नेह और शांति को? इसी प्रकार, मान लीजिए कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे को अपने यहां किसी अवसर पर पधारने का निमंत्रण देता है परंतु वह आमंत्रित व्यक्ति प्रथम के पास जाना नहीं चाहता क्योंकि वह उसे ठीक ही नहीं मानता, तब क्या वह उसे सच-सच बता दे कि वह उस व्यक्ति को अच्छा नहीं समझता या यह झूठ कह दे कि उस दिन किसी और जगह जाने के लिए पहले से उसके पास निश्चित कार्यक्रम है।

ऐसी परिस्थिति में मनुष्य भद्रता और शिष्टता को महत्व दे या सीधे शब्दों में सच कह दे कि वह आमंत्रणकारी व्यक्ति या संस्था के साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहता। इसी प्रकार यदि कोई रोगी किसी डॉक्टर से पूछता है कि ‘डॉक्टर साहब, मैं इस रोग से कब छूटूंगा? डॉक्टर जी, मैं बचूंगा भी या नहीं?’ अब यह जानते हुए भी कि रोग बड़ा क्रूर और दुस्साध्य है, डॉक्टर उसे ढांढ़स बंधाने के लिए कह देता है कि ‘बस अब जो दवा दे रहा हूं, इससे आप ठीक होना शुरू हो जाएंगे और निश्चय रखिए, आपका रोग कोई इतना विकट नहीं है, जितना आप समझ रहे हैं। इससे ज्यादा उग्र रोग से पीड़ित लोगों को भी मैंने कई बार ठीक किया है।’ प्रश्न उठता है कि ऐसी परिस्थिति में जबकि रोगी के जीवन और मृत्यु की समस्या है, तब सत्य ज्यादा महत्वपूर्ण है या रोगी को अधिक स्वास्थ्य लाभ हो सकता हो तो झूठ बोल दिया जाए?

ऐसे कितने ही उदाहरण ओर दिए जा सकते हैं। मनोवैज्ञानिक और शिक्षा शास्त्री कहते हैं कि जब एक निकम्मे और मंद बुद्धि विद्यार्थी को समय-समय पर यह कहा जाता है कि ‘तुममें बहुत विशेषताएं और योग्यताएं हैं और यदि तुम थोड़ा-सा पुरुषार्थ करो तो बहुत-से विद्यार्थियों से आगे निकल सकते हो’, तो वह मंद-बुद्धि विद्यार्थी भी कुछ-न-कुछ तो उन्नति करता ही है।

अधिक उदाहरणों को छोड़कर अब हम इस प्रश्न को लेते हैं कि क्या ऐसी-ऐसी परिस्थितियों में झूठ बोलना ठीक है? इसके बारे में आपको प्रायः दो विचारों के लोग मिलेंगे। कई तो यह कहेंगे कि झूठ किसी भी हालत में नहीं बोलना चाहिए चाहे उससे दंगा और फसाद भी हो जाए और हजारों लोगों का खून भी बह निकले। दूसरे लोग यह कहेंगे कि सत्य बोलना नि:स्संदेह अच्छा है, परंतु हमें यह भी देख लेना चाहिए कि किसी परिस्थिति में सत्य कहने से कहीं अनर्थ, हिंसा, घृणा इत्यादि दोषों को बढ़ावा तो नहीं मिलेगा? उनका कहना यह है कि अगर डॉक्टर के यह बोलने से रोगी का जीवन बच सकता है, तो डॉक्टर के झूठ बोलने में कोई हर्ज नहीं।

प्रश्न तो यह है कि हम यह कैसे जानें कि हमें इस अवसर पर सच कहना चाहिए या झूठ? कुछ लोग इसका एक उत्तर यह दे सकते हैं कि हमें गलत तरीके से धन कमाने के लिए, व्यक्तिगत सांसारिक लाभ के लिए तो झूठ नहीं बोलना चाहिए, परंतु दूसरों के प्रति कल्याण भावना रखते हुए उनके साथ शिष्टता, मधुरता और नीतियुक्त वचन बोलने चाहिए। दूसरों का विचार इससे थोड़ा भिन्न, रूखापन और कट्टरवादिता को लिए हुए भी हो सकता है। इसके बारे में किसी का विचार कुछ भी हो, मेरा मन्तव्य यह है कि दोनों हालतों में हमें शुरुआत पारमार्थिक सत्य से करनी चाहिए। इस दृष्टिकोण से अपने आप को शरीर मानना सबसे पहला झूठ है। सत्य तो यह है कि इस शरीर में विराजमान हरेक प्राणी एक चेतन आत्मा है और उसी सत्य के स्वरूप में स्थित होना सत्य की ओर स्थाई प्रगति है। इसी तरह सत्य स्वरूप परमात्मा को और परलोक को यथार्थ रूप से जानकर उनके अनुसार आचरण करना ही सत्य के पथ पर चलना है। इस प्रकार के अभ्यास से व्यवहारिक सत्य मनुष्य के जीवन में स्वतः ही आने लगता है। इससे मनुष्य की वृत्ति कल्याणकारी हो जाती है और सत्य स्वरूप परमात्मा से योग-युक्त होकर वह सहज बुद्धि से ठीक निर्णय कर सकता है कि किस अवसर पर दूसरों के कल्याण के लिए क्या कहना चाहिए।

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