ज्ञानी तू आत्मा

ज्ञान और सूचनाओं में फर्क है। शास्त्र तो सूचनाओं से भरे पड़े हैं। जब हम उन सूचनाओं से जीवन को दिव्य बनाएं तभी वे ज्ञान में परिवर्तित होती हैं। इधर-उधर से बातें इकट्ठी कर लेना ज्ञान नहीं है। आचरण संवारना ही सच्चा ज्ञान है।

किसी जंगल में एक संन्यासी रहता था। उसके पास एक कुमार आया और पूछा कि क्या मैं आप से शिक्षा ले सकता हूं। संन्यासी ने कहा, ठीक है, तुम मेरे साथ रहो, जैसे मैं जीवनयापन करता हूं, तुम भी करो। सुबह-सुबह जिज्ञासु आते हैं उन्हें जो शिक्षा दूंगा, तुम भी ले लेना। कुमार ने कहा, ठीक है, जो आज्ञा। अगले दिन से सुबह वो संन्यासी जब बाकियों को कुछ ज्ञान की बातें सुनाता, तो कुमार भी सुनने बैठ जाता। परन्तु, रोज-रोज लगभग एक-सी बातें ही वो संन्यासी सबको सुनाता। कुमार को लगा कि ये कुछ नया तो सुना ही नहीं रहे हैं, रोज एक ही आत्मा-परमात्मा की बात सुना देते हैं। तभी कुछ दिनों बाद एक पहुंचा हुआ भाई वहां आया। कुछ लोग उसके साथ थे, जो उसे शास्त्री जी कह कर संबोधित कर रहे थे। शास्त्री जी और उसके साथियों से उस कुमार की मुलाकात हुई। शास्त्री जी ने कुछ बातें बोली तो कुमार बहुत प्रभावित हुआ। उसने सोचा कि इन्हें संन्यासी जी से भी मिलाना चाहिए ताकि उन्हें पता चले कि ज्ञान क्या होता है।

कुमार ने संन्यासी जी को बुलाया और कहा कि कोई बड़े दार्शनिक आए हैं और आपसे मिलने की कामना रखते हैं। संन्यासी जी आ गए और वो शास्त्री जी करीब एक घंटे तक बोलते रहे। संन्यासी चुपचाप सुनते रहे। एक घंटे बाद कुमार ने संन्यासी जी को कहा, गुरुजी, इसे कहते हैं ज्ञान। आपने इतने दिनों में जो नहीं सिखाया, इन विद्वान ने एक घंटे में सिखा दिया। संन्यासी बोले, परन्तु ये बोले कब? मैं तो एक घंटे से इंतजार कर रहा था कि अब बोले, अब बोले। कुमार बोला, आपको क्या लगता है, एक घंटे से ये कुछ नहीं बोल रहे थे? संन्यासी ने कहा, हां। तुमने ठीक सुना, ये नहीं बोले। कभी इनमें गीता बोलती थी, कभी शास्त्र बोलते थे, कभी कोई ग्रंथ। मगर, ये नहीं बोले क्योंकि इनके पास अपना क्या है जो ये बोलें।

इस दृष्टांत का भावार्थ है कि ज्ञान और सूचनाओं में फर्क है। शास्त्र तो सूचनाओं से भरे पड़े हैं। जब हम उन सूचनाओं से जीवन को दिव्य बनाएं तभी वे ज्ञान में परिवर्तित होती हैं। इधर-उधर से बातें इकट्ठी कर लेना ज्ञान नहीं है। आचरण संवारना ही सच्चा ज्ञान है।

विचार करें, किसी को अंग्रेजी नहीं आती या शिक्षा ज्यादा नहीं है तो क्या वो अज्ञानी हैं? कदापि नहीं क्योंकि आंतरिक जगत का ज्ञान शब्दों और शब्दावली का मोहताज नहीं है। शब्दों की जरूरत तब बहुत कम है जब वायब्रेशन काम करते हैं। भगवान कहते हैं, मुझे ज्ञानी नहीं, ज्ञानी तू आत्मा पसंद है। ज्ञानी तू आत्मा कभी नहीं कहती कि मैं ज्ञानी हूं, हमेशा अपने आप को विद्यार्थी ही समझती है। कोई भी बोलता है तो उसकी बात वह बड़े ध्यान से सुनती है और जरूरत होने पर ही बोलती है। वह कभी वाद-विवाद में नहीं आती क्योंकि उसे सब पता है कि सही क्या है और गलत क्या है। वह प्रश्नों से पार और निरहंकारी होती है, कभी भी पद का दुरुपयोग नहीं करती। मान-अपमान, जय-पराजय से दूर रहती है। वो ज्ञान का संग्रह इसलिए नहीं करती कि मेरा मान-शान बढ़े और अन्य आत्माओं में दबदबा हो, वह लक्ष्य-केन्द्रित होती है। विस्तार का सार करना और समय का सदुपयोग करना वह जानती है। व्यर्थ और समर्थ में भेद कर वह श्रीमत प्रमाण चलती है।