गुरु और शिष्य

गुरु-शिष्य परंपरा पर कुछ बातें

गुरु शीघ्र ही समझ जाता है कि प्रत्येक शिष्य अलग होता है। कुछ शिष्य ज्ञान को तुरंत समझ लेते हैं तो दूसरों को समय लगता है। इससे गुरु का ज्ञान प्रसारित करने का कौशल बढ़ता है।

गुरु-शिष्य परंपरा का आधारस्तंभ इस धारणा में है कि गुरु सिखाने से स्वयं सीखता है और शिष्य सीखने से सिखाता है। गुरु स्वीकारता है कि उसके और उसके शिष्य के अलग व्यक्तित्वों के कारण उनकी वास्तविकताएं भी अलग हैं। और इसलिए दोनों को ज्ञान भी अपनी क्षमतानुसार प्राप्त करना होता है। गुरु केवल शिष्य में सीखने की इच्छा और अंतर्दृष्टि जगा सकता है। लेकिन सीखने का उत्तरदायित्व पूर्णतः शिष्य पर होता है। शिष्य ज्ञान की खोज में गुरु के पास आता है। सीखने का उत्तरदायित्व शिष्य पर है न कि सिखाने का उत्तरदायित्व गुरु पर।

तांत्रिक ग्रंथों में गुरु और शिष्य की भूमिकाओं को पति और पत्नी के समान माना जाता है। ब्रह्मांडीय विषयों पर शिव गुरु हैं और शक्ति शिष्या हैं। सांसारिक विषयों पर शक्ति गुरु हैं और शिव शिष्य हैं। कैलाश में शिव ज्ञान बांटते हैं। काशी में शक्ति भोजन परोसती हैं। इस प्रकार दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं।

गुरु और शिष्य के बीच वर्चस्व के लिए संघर्ष होना अनिवार्य है। कई बार यह माना जाता है कि गुरु ज्ञान का स्रोत है और शिष्य उससे ज्ञान प्राप्त करने आता है। अपने प्रभाव के कारण गुरु शिष्यों की कक्षा की दिशा निर्धारित करता है। इसलिए, शिष्यों से अपेक्षित होता है कि वे ‘विनम्र’ रहकर गुरु का कहना मानें।

यह आवश्यक नहीं कि कोई गुरु बुद्धिमान ही हो; वह अपने पुत्रों से आसक्त और उन छात्रों के साथ क्रूर हो सकता है जो उसे भाते नहीं हैं। महाभारत में द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा से आसक्त थे। इसलिए उन्होंने उसे ज्ञान देने का प्रयास किया, बावजूद इसके कि वह उस ज्ञान का प्रयोग करने में अक्षम था। इतना ही नहीं उन्होंने एकलव्य और कर्ण को उनकी जाति के कारण सिखाने से इनकार किया। द्रोणाचार्य ने अपने छात्रों को ज्ञान भी अपने स्वार्थ के लिए दिया – कि वे अपने शिष्यों से गुरु दक्षिणा के रूप में अपने शत्रु द्रुपद का पराजय मांग सकें।

भागवत में दत्त नामक नग्न ऋषि का उल्लेख है, जिन्हें आदि-नाथ माना जाता है। उन्होंने अपना ज्ञान पेड़-पौधों, तत्त्वों और अन्य लोगों से पाया था। महाभारत में एक साधु ने एक गृहिणी और एक कसाई से बहुत कुछ सीखा। वन में भीम ने वानर से अर्जुन ने जनजातीय पुरुष से और युधिष्ठिर ने एक लकलक से सीख पाई थी।

क्या यह स्पष्ट नहीं कि सरस्वती रूपी ज्ञान सभी जगह बहता है? ज्ञान प्राप्त करने हेतु हमें वास्तव में प्यासा होना आवश्यक है न कि उसका ढोंग करना है। गुरु द्वारा दिखाए गए मार्ग पर शिष्य को चलना है। इस मार्ग पर संभवतः उसे यह बोध भी हो कि उसके गुरु का मार्ग अनुचित है या उसका मार्ग उसके गुरु के मार्ग से अलग है। वेदांत के विद्वान रामानुज समझ गए कि मंदिर का कर्मचारी कांचीपूर्ण, उसके गुरु यादवप्रक्ष से कई अधिक ज्ञानी था।

हम नए तथ्य केवल तब ग्रहण कर सकते हैं जब हमारे मन का विस्तार हुआ होता है। संस्कृत में विस्तार के लिए मूल शब्द ‘ब्रह्’ है, जहां से ‘ब्रह्मन्’ और ‘ब्राह्मण’ शब्द उत्पन्न हुए हैं। विस्तार के पश्चात मन का मंथन करने से हम उन तथ्यों में प्रतिरूप ढूंढ सकते हैं ताकि तथ्य जानकारी में और जानकारी ज्ञान में बदल सके। यह सीखने की प्रक्रिया है।

गुरु शिष्य को केवल ‘स्मृति’ प्रदान करता है। ये ऐसी धारणाएं हैं जिन्हें हम स्मरण करके उनका दस्तावेज़ीकरण और प्रसारण कर सकते हैं। लेकिन शिष्य बुद्धिमान केवल तब बनता है जब उसके भीतर अंतर्दृष्टि की ध्वनि उत्पन्न होकर वह उस जानकारी को समझता है। इसे ‘श्रुति’ कहते हैं। आधुनिक शिक्षण प्रणाली नहीं मानती कि श्रुति जैसी कोई अंतर्दृष्टि होती है। इसलिए, जानकारी का सरलीकरण होते रहता है और उसे दोहराया जाता है, इस आशा में कि शिष्य उसे समझे।

गुरु शीघ्र ही समझ जाता है कि प्रत्येक शिष्य अलग होता है। कुछ शिष्य ज्ञान को तुरंत समझ लेते हैं तो दूसरों को समय लगता है। इससे गुरु का ज्ञान प्रसारित करने का कौशल बढ़ता है। और शिष्य को ज्ञान समझने से गुरु का अपने ज्ञान में विश्वास बढ़ता है। कुछ शिष्यों को ज्ञान समझ नहीं आता या वे उसे समझने से इनकार करते हैं। तब गुरु का धैर्य भी बढ़ता है। इस प्रकार गुरु भी शिष्य से सीखता है।

गुरु दक्षिणा देकर शिष्य ज्ञान प्राप्त करने के ऋण से मुक्त हो जाता है। अब वह अपने जीवन के अगले चरण में प्रस्थान कर उस ज्ञान का प्रयोग कर सकता है। अंत में उसे भी वह ज्ञान अगली पीढ़ी को देना होगा।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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