एक स्वच्छता यह भी

एक स्वच्छता यह भी

एक बार हम एक यात्रा पर जा रहे थे। कार में कार-चालक, मैं और एक बहन थी। बहन ने कुछ खाया और पैकिंग का कागज़ कार की खिड़की से बाहर फेंक दिया।

कार-चालक भाई ने तुरंत कहा, बहनजी, आपको पता है ना स्वच्छ भारत अभियान चल रहा है। आपको पैकिंग का कागज़ बाहर नहीं फेंकना चाहिए था। मुझे दे देते, मैं जेब में रख लेता और बाद में कूड़ेदान में डाल देता या आप अपने पास रख लेते। उसकी बात सुनकर मैं प्रभावित हुई कि इस भाई को स्वच्छता का कितना ध्यान है। उस बहन ने भी कहा, भाई धन्यवाद, आपने ध्यान खिंचवाया, आगे से ध्यान रखूंगी।

बुराई फैलाने में नहीं, मिटाने में योगदान दें

अभी यात्रा आधा घंटा भर और तय हुई होगी कि कार-चालक ने कहना शुरू कर दिया, बहन जी, क्या आप अमुक भाई को जानती हो, उसका खान-पान, रहन-सहन एकदम अस्वच्छ है। उसमें ज्ञान की धारणा भी नहीं है, उसका चरित्र भी संदेहात्मक है, वह चालबाज भी है….आदि-आदि। मैंने पूछा, क्या ये सब चीज़ें तुमने देखी हैं? उसने कहा, अमुक व्यक्ति मुझे बता रहा था। मैंने पूछा, क्या अमुक ने देखी हैं अपनी आंखों से? बोला, देखी ही होंगी, कह तो रहा था। तब मैंने कहा, भाई जी, अभी तो आप स्वच्छ भारत अभियान की पैरवी कर रहे थे। कागज़ से फैलने वाली अस्वच्छता पर हमारा ध्यान खिंचवा रहे थे, परंतु ये जो आप सुनी-सुनाई बात का प्रचार कर रहे हो, क्या इससे भारत अस्वच्छ नहीं हो रहा? जिस बात का पुख्ता प्रमाण आपके पास नहीं, आपने अपनी आंखों से देखी नहीं, उस अस्वच्छ बात को दूसरों को सुनाकर उनके चित्त को भी अस्वच्छ कर रहे हो, यह कितना बड़ा अपकार है। किसी की कमी-कमजोरी को बढ़ा-चढ़ाकर बताना, उसे फैलाना, यह बहुत बड़ा अपराध है। पहले हमने उसे अपने चित्त पर रखा, फिर दूसरों को सुनाया, यह गंदगी का व्यापार ही तो है। होना तो यह चाहिए कि जैसे हम कूड़े को कूड़ेदान में डालकर ढक देते हैं ताकि उसकी बदबू न फैले, ऐसे ही बुराई को भी दबा दें, समा लें, ढककर रखें ताकि उसकी बदबू न फैले और अच्छाई को इत्र की तरह छिड़क दें ताकि उसकी खुशबू चारों ओर फैले। आप तो अप्रमाणित बुराई को फैलाने में लगे हो, बुराई यदि प्रमाणित भी हो, तो भी फैलाने योग्य नहीं होती। हां, यदि उस बुराई को मिटाने में हम योगदान दें, तो हम शुभचिंतक की श्रेणी में आ सकते हैं, नहीं तो अपने, दूसरों के और इस देश की दुश्चिंतक ही तो हुए। मेरी बात से वह भाई दिल से सहमत हुआ और उसने स्वच्छ भारत अभियान में इस मानसिक स्वच्छता को भी जोड़ने की प्रतिज्ञा की।

भगवान शिव कहते हैं, ‘जब कोई व्यर्थ समाचार सुनाता है, तो कई आत्माएं उसे रुचि से सुन लेती हैं। कर कुछ नहीं सकते और सुन लेते हैं, तो वह समाचार बुद्धि में चला जाता है। फिर समय व्यर्थ जाता है इसलिए बाप की आज्ञा है, सुनते हुए भी मत सुनो। अगर कोई सुना भी दे, तो आप फुल स्टॉप लगाओ। जिस व्यक्ति का सुना उसके प्रित दृष्टि व संकल्प में भी घृणा भाव नहीं हो, तब कहेंगे परमत से मुक्त।’

जैसा करेंगे वैसा ही फल पाएंगे

यदि हम किसी की बुराई संभालकर रखते हैं, तो यह तो ऐसे ही हुआ कि किसी का फेंका हुआ कूड़ा सहेज रहे हैं। किसी व्यक्ति के फोड़े से मवाद निकला और हमने उसे बर्तन में रखकर अपने सिरहाने रख लिया। उसका फोड़ा तो ठीक हो गया पर हमें दिन-रात बदबू आती रहती है, तो घाटे में कौन रहा? फायदे में कौन रहा? ये कमी-कमजोरियां भी तो आत्मा पर उभरे विकारों रूपी फोड़ों की मवाद ही तो हैं। कोई उन्हें किसी भी तरीके से बाहर निकाले और हम उन्हें संभाल कर रख लें, तो हमारी मंजिल का क्या होगा? वो हमें कभी मिल भी पाएगी? आप किसी को ऊंचा नहीं उठा सकते, कोई बात नहीं, अपनी ऊर्जा को किसी को गिराने में तो न लगाएं। यह संसार पाप के अंधकार से भरा पड़ा है। कहीं कोई पुण्य का दीया टिमटिमाने की कोशिश करता है। अपने पुराने संस्कारों के कारण उस टिमटिमाते दिए पर फूंकों का प्रहार तो न करें। यदि हमारे पास समय और शक्ति है तो, पाप में डूबे किसी दीए को पुण्य का प्रकाश दें। संसार का नियम है, जो देंगे वही लौटेगा। गिराएंगे तो गिरने का ही फल पाएंगे।

चीज़ की तरह बात को भी पहले चख लो

यदि कोई व्यक्ति हमें कहता है, मैंने यह खाने की चीज़ आपके लिए बनाई है या कहीं से लाई है, तो हम पूछते हैं, स्वादिष्ट है क्या, मीठी है क्या, कड़वी तो नहीं है, मुंह बेस्वाद तो नहीं हो जाएगा? तब यदि वह व्यक्ति जोर देकर कहता है, नहीं, नहीं, बहुत स्वाद है, खा लो, कुछ नहीं होगा, तो भी हम उसको कहते हैं, देखो भाई, मुख सबके अलग-अलग प्रकार के हैं, पहले मैं थोड़ी-सी चख कर देखूंगा, यदि अच्छी लगी तो ही खाऊंगा, नहीं तो छोड़ दूंगा।

इसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति हमें कहता है, एक नई बात है मेरे पास आपको सुनाने के लिए, सुनाऊं क्या? तो खाद्य पदार्थ की तरह उसकी बात के लिए भी हम पूछ सकते हैं, बात बढ़िया है क्या, उसे सुनकर मेरा मन कड़वा या भारी या चिंतातुर या नकारात्मक तो नहीं हो जाएगा। यदि वो कहता है, नहीं, नहीं, बात बहुत मज़ेदार है, तो खाद्य पदार्थ की तरह हम कह सकते हैं कि रुचियां सबकी भिन्न-भिन्न होती हैं, आवश्यक नहीं कि जो बात आपको रुचे, वह मुझे भी रुचे, पहले आप मुझे थोड़ा हिंट दो, किसके बारे में है, कैसी है, फिर यदि अच्छी लगी तो पूरी सुन लूंगा

बात रूपी भोजन सोच-समझकर अंदर डालें

जैसे अस्वाथ्यकर पदार्थ खाने से हाजमा बिगड़ जाता है, इसी प्रकार असत्य, अशिष्ट, अनर्गल बातें सुनने से आत्मा का हाजमा बिगड़ जाता है। खाद्य न पचे तो उल्टी हो जाती है, बात न पचे तो भी यहां-वहां उल्टी होती रहती है। बार-बार उल्टी करने से जैसे शरीर कमजोर हो जाता है, ऐसे ही आत्मा भी कमजोर हो जाती है, इसलिए बात रूपी भोजन को बहुत सोच-समझकर अंदर डालें। निरर्थक बातों से आत्मा को बोझिल न करें क्योंकि बोझ वाला कभी उड़ नहीं सकेगा।

बातों को नहीं, खुद को संवारों

कुछ लोगों को साज-श्रृंगार का बहुत शौक होता है। वे बात रूपी गुड़िया को पकड़ कर उसे खूब सजाते हैं। कभी अनुमान की चुनरी ओढ़ाते, कभी असत्य की मिलावट रूपी बड़ा घाघरा पहनाते, कभी बदले की भावना का जूड़ा लगाते, कभी नीचे गिराने रूपी पाजेब पहनाते, कभी नफरत सना पाउडर लगाते, इस प्रकार सजा-सजा कर उसका रूप बड़ा और आकर्षक बनाने की कोशिश करते। इतने भारी साज-श्रृंगार वाली बात को मन में रखे-रखे जब बोझिल होने लगते, तो बोझ को हल्का करने का साधन ढूंढ़ते। फिर यदि ज्ञान के सागर में बहाते हैं, तो भी पिता परमात्मा कहते हैं, बच्चे, श्रृंगार करने में इतना समय व्यर्थ करने की क्या ज़रुरत थी, पहले दिन ही ना बहाकर हल्के हो जाते? और यदि किसी मानव को सुनाकर उसके मन को बोझिल करने की कोशिश करते हैं तो कर्मों का ऐसा खाता उलझा लेते हैं कि जितना बोझ दिया उससे कई गुणा बोझ वापस झेलते हैं क्योंकि जो देंगे वही लौटेगा इसलिए बातों को श्रृंगारने की आदत छोड़, खुद को सद्गुणों से श्रृंगारने में समय लगाओ।

बातों को पकड़ो मत, काल-चक्रों में लिपट जाने दो

बातों को, घटनाओं को, समस्याओं को पकड़ो मत, उन्हें समय के साथ बह जाने दो। काल-चक्रों में लिपट जाने दो। काल की धारा उन्हें दूर बहा ले जाएगी और आपके चित्त को हलका और स्वच्छ कर देगी। उस बात में, घटना में, परिस्थिति में कुछ सीखने योग्य है, कुछ प्रेरक है, कुछ काम का है, उतना ही पकड़ कर रख लो, बाकी जाने दो, बहने दो। जैसे एक स्वच्छ जलधारा की नदी निरंतर बह रही है। कोई उसके किनारे कपड़े धोता है और कपड़ों का मैल नदी में गिरता है। बहती नदी मैल को बहा ले जाती है और स्वच्छ बनी रहती है। यदि नदी उस मैल को बहाव के सुपुर्द न करे और पकड़ कर रख ले तो क्या होगा? वहां ठहरा गंदा, बदबूदार जल स्वच्छ नदी की छवि बिगाड़ेगा, उस गंदे जल का विस्तार होकर बाकी स्वच्छ जल को भी वह अपनी चपेट में लेने लगेगा। यदि कोई दूसरा भी, दूसरी तरफ कपड़ों का गंद नदी में घोल जाए तो नदी उस गंद को भी अपनी पुरानी आदत के कारण पकड़ लेगी और इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी स्वच्छता को ग्रहण लगता जाएगा। एक दिन वह पूरा का पूरा गंदा नाला बन जाएगा।

सुनी-सुनाई बातों को पकड़ना, याद करना, जिसके संबंध में वो बातें थी, उसे घृणा की दृष्टि से देखते हुए ताने देकर सुनाना, यह अपने चित्त रूपी उजली नदी को गंदा नाला बना लेने के समान ही है। फिर इस गंदे नाले रूपी चित्त के पास कोई आना पसंद नहीं करता अर्थात हम अपने शुभचिंतकों को दूर करते जाते हैं और अकेले जीने पर या बहुत कम संगठन में जीने को मज़बूर हो जाते हैं।

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