अष्टावक्र लगभग 2500 वर्ष पहले, उपनिषदों के काल के प्रसिद्ध ऋषि हैं। राजा जनक के साथ उनके संभाषण (शास्त्रार्थ) जाने-माने हैं। इनमें अष्टावक्र ने हमारे भीतर की आत्मा और हमारे चारों ओर स्थित आत्मा अर्थात जीवात्मा और परमात्मा के बीच संबंध पर प्रकाश डाला है। सरल शब्दों में कहना हो तो उन्होंने आत्मा और ब्रह्मन में संबंध की बात की। ये संभाषण अष्टावक्र गीता के भाग हैं। अष्टावक्र की कहानी हमें उनके दर्शनशास्त्र से अधिक पिता और उनके पुत्रों के बीच संबंध पर सोचने में विवश करती है।
अष्टावक्र के पिता कहोड़ और उनकी माता सुजाता महान ऋषि आरुणि के आश्रम में उनसे वेद सीखते थे। सुजाता आरुणि की बेटी भी थीं। एक दिन कहोड़ और सुजाता ने विवाह किया। कुछ समय बाद जब सुजाता गर्भवती थी, तब अजन्मे भ्रूण ने गर्भ में ही वेदों का सही जप सुना और उनका पाठ सीखा। एक दिन कहोड़ सुजाता को वेदों का रहस्य या कम से कम वेदों की उनकी समझ समझा रहें थे। भ्रूण गर्भ से उनकी बातचीत सुन रहा था। जब कहोड़ ने ग़लती की, तब उसने अपने पिता की ग़लती सुधारी। कहोड़ ने आठ ग़लतियां की और भ्रूण ने हर बार उन्हें सुधारा।
इससे कहोड़ इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने अपने ही पुत्र को शाप दिया। “चूँकि इस बच्चे ने अपने पिता को आठ बार सुधारने का ढीठपन दिखाया है, वह शरीर में आठ मोड़ लिए जन्म लेगा।” इस प्रकार, बच्चे ने विकृत अवस्था में आठ मोड़ों के साथ जन्म लिया, जिस कारण उसका नाम अष्टावक्र रखा गया।
अष्टावक्र बड़े होकर वेदों के विद्वान बनें। बालपन से वे सबसे अपने पिता के बारे में पूछते। लोग उन्हें बताते कि कहोड़ शास्त्रार्थ में स्वयं को वेदों के विद्वान सिद्ध करने के लिए जनक के दरबार गए थे। बड़े होकर अष्टावक्र अपने पिता की खोज में मिथिला में जनक के दरबार गए। वहां वे ये जानकर दंग रह गए कि वंदिन नामक विद्वान ने उनके पिता को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। वंदिन से तर्क-वितर्क करने की शर्त यह थी कि हारने वाले को उनका ग़ुलाम बनना पड़ता। इस तरह कहोड़ भी वंदिन के ग़ुलाम बन गए थे।
फिर अष्टावक्र ने वंदिन को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और उन्हें आसानी से हराकर अपने पिता को मुक्त करवाया। इस प्रकार, जिस कहोड़ ने अपने ही पुत्र को उनसे अधिक बुद्धिमान होने के लिए शाप दिया था, उन्हें उसी पुत्र ने उसी बुद्धिमत्ता के प्रयोग से ग़ुलामी से बचाया। कहोड़ समझ गए कि उनके आडंबर ने उन्हें कितना दुःख पहुंचाया था। अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उन्होंने अस्टावक्र को समंग नदी में डुबकी लगाने के लिए कहा। नदी से निकलते ही अष्टावक्र की विकृतियां ठीक हो गईं।
इस कहानी से हमें पता चलता है कि पिता भी अपने पुत्रों से ईर्ष्या कर सकते हैं। यह हिंदू माइथोलॉजी में किसी विकलांग ऋषि की पहली कहानी है। उनके विकृत शरीर से हमें उनकी बुद्धिमत्ता का संकेत नहीं मिलता था।
लगभग 500 वर्ष पहले बंगाली में कृत्तिवास रामायण रचा गया। उसमें एक कहानी के अनुसार एक दिन अष्टावक्र को मांस का ढेर दिखा जो धरती पर इधर-उधर घूम रहा था। उन्हें लगा कि वह कोई पुरुष होगा जो उनकी विकलांगता की ठठ्ठा कर रहा था। लेकिन ध्यान से देखने पर उन्हें पता चला कि वह बिन हड्डियों वाला मनुष्य था।
इस मनुष्य को दो महिलाओं ने किसी पुरुष के सहभाग के बिना जन्म दिया था, जिस कारण अष्टावक्र ने उस बालक को भगीरथ नाम दिया। फिर अपनी सिद्ध शक्तियों से अष्टावक्र ने उसे हड्डियां देकर पूर्ण किया। बाद में, गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाने में भगीरथ की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वह राम का पूर्वज भी था।
इस कहानी से पता चलता है कि भारतीय ऋषि कितने ग़ैर-आलोचनात्मक थे। उन्हें इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी कि दो महिलाएं संभोग करके बच्चे को जन्म दे रहीं थी। आपत्ति केवल व्यावहारिक थी – बच्चे की हड्डियां नहीं थी, जिसकी पूर्ति ऋषि ने किया। इसके बावजूद, आधुनिक भारत दो महिलाओं की पालक बनकर बच्चे की परवरिश करने की क्षमता पर संदेह करता है।
देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।