स्कन्द, कार्तिकेय

देवताओं के सेनापति

हरियाणा के कुरुक्षेत्र के इलाके में स्थित एक छोटे-से मंदिर में कार्तिकेय को बिन मांस के रूप में पूजा जाता है। इस रूप में उनकी केवल हड्डियां हैं, जिसके पीछे भी एक रोचक कहानी है।

प्राचीनकाल में स्कंद नामक युद्ध के देवता हुआ करते थे। विद्वानों के अनुसार स्कंद और सिकंदर, जो अलेक्ज़ेंडर का फ़ारसी नाम था, इन नामों में संभवतः कोई संबंध जरूर है। चौथी सदी ईसवी पूर्व में सिकंदर की निर्दयी सेना ने उत्तर-पश्चिम भारत के लोगों को इतना आतंकित किया कि वे सिकंदर को हिंसा और युद्ध से जोड़ने लगे। संभवतः उत्तर से आने वाले स्कंद नामक सेनापति की धारणा यहीं से आई होगी।

600 वर्ष बाद अर्थात 300 ईसवी में गुप्त काल के समय तक स्कंद बहुत लोकप्रिय बन गए थे। राजा उनकी पूजा करने लगे थे और उनके लिए कई मंदिर स्थापित किए गए थे। लोग मानने लगे थे कि वे ही इंद्र की सेनाओं के तेजस्वी सेनापति थे, जिन्होंने देवताओं को जीत दिलाई थी। उन्हें शिव के पुत्र ‘कार्तिकेय’ से भी जोड़ा जाता था।

स्कंद के जन्म की कई कहानियों से हमें पता चलता है कि कैसे उन्होंने जनजातीय लोकसाहित्य से लेकर वैदिक और अंत में शैव लोकसाहित्य में प्रवेश किया। महाभारत में पाईं जाने वाली प्रारंभिक कहानियों के अनुसार उनका शिव के साथ कोई संबंध नहीं था। सप्त-ऋषियों की पत्नियों के साथ अग्निदेव अंतरंग संबंध बनाना चाहते थे। अग्निदेव को इस भूल से बचाने के लिए उनकी पत्नी ‘स्वाहा’ ने ऋषियों की पत्नियों का रूप धारण करके स्वयं अग्निदेव के साथ अंतरंग संबंध बनाए। स्वाहा छह पत्नियों का रूप लेने में सफल रहीं। इस संबंध से छह देवताओं की शक्ति वाले देवता ने जन्म लिया। कार्तिकेय को कुमार अर्थात बाल-देवता के नाम से भी जाना जाता है। उनके कई पौरुष चिह्न हैं- उनके ध्वज पर मुर्गा बना है, मोर उनका वाहन है और उनके हाथ में भाला है। ज्योतिष शास्त्र में उन्हें मंगल ग्रह से जोड़ा जाता है। वे लाल रंग से भी जुड़े हैं जो आमतौर पर मंगल ग्रह का रंग है। मंगल ग्रह आक्रामकता से जुड़ा है, एक ऐसी विशेषता जो युद्ध से जुड़े पौरुष देवता को शोभा देती है। यूनानी-रोमन मायथोलॉजी में भी मंगल ग्रह युद्ध के देवता हैं। उनके देवालय की दीवारें केवल युद्ध के समय खोली जाती थीं; शांति के समय वे बंद रहती थीं।

स्कंद या कार्तिकेय युद्ध से इतनी निकटता से जुड़े थे कि महिलाओं के लिए उनके मंदिर में जाना वर्जित था। यह इसलिए कि कार्तिकेय उनके बेटों या पतियों को युद्ध में ले जाते, जहां बहुधा उनका वीरगति को प्राप्त होना तय था। हरियाणा के कुरुक्षेत्र के इलाके में स्थित एक छोटे-से मंदिर में कार्तिकेय को बिन मांस के रूप में पूजा जाता है। इस रूप में उनकी केवल हड्डियां हैं, जिसके पीछे भी एक रोचक कहानी है। कार्तिकेय ने महिलाओं के साथ सारे संबंध तोड़ दिए थे। इससे क्रोधित होकर देवी ने श्राप देकर कहा कि कार्तिकेय शरीर के वे भाग खो देंगे, जो मां से मिलते हैं। साधारणतः शरीर के नरम और तरल भाग मां से आते हैं। इसलिए कार्तिकेय ने अपना मांस और खून खो दिया और बची रहीं केवल उनकी हड्डियां और मांसपेशियां। लेकिन कार्तिकेय की यह लगभग नारी-द्वेषी विशेषता उत्तर भारत की कहानियों तक ही सीमित है। दक्षिण भारत में कहानी कुछ अलग ही है।

तमिलनाडु में पलनी के पहाड़ों में कार्तिकेय बाल-देवता हैं, जिन्होंने पहाड़ के शिखर पर भाला लिए खड़े होकर आस-पास के क्षेत्र की रक्षार्थ पहरा दिया। यहां वे बाल-देवता ‘मुरुगन’ कहलाए, जो उत्तर में कैलाश में अपने रहस्यमयी वैरागी पिता को छोड़कर दक्षिण आए थे। जैसे ब्राह्मणवाद उत्तर से दक्षिण तक फैला, वैसे उत्तर के योद्धा देवता दक्षिण के संरक्षक देवता के साथ मिलकर एक हो गए। वे पुजारियों के परोपकारी देवता ‘सुब्रमण्य’ बन गए, जिनकी आराधना शुभ मानी जाती थी, क्योंकि उससे विवेक में बढ़ोतरी होती थी। वे लगभग दिव्य बन गए, कृष्ण की तरह। उनकी दो पत्नियां थीं- इंद्रदेव की बेटी सेन और स्थानीय जनजातियों की बेटी वल्ली।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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