दान, दक्षिणा और भिक्षा में भेद

पुराणों में दानवीर कर्ण की कई कहानियां हैं। उन्हें सुनकर यह विचार करना स्वाभाविक है कि परोपकारी होने के बावजूद कर्ण का जीवन इतना दुःखद क्यों था। यह इसलिए कि हम दान को भिक्षा समझ रहें हैं। दान में बदले में कुछ भी अपेक्षित नहीं है।

हिंदू समाज में किसी को देने के तीन प्रकार हैं: दक्षिणा, दान और भिक्षा। दक्षिणा कुछ चुकाने के लिए दी जाती है। भिक्षा भीख देने को कहते हैं। और जब हम परोपकारी बनकर किसी को कुछ देते हैं तब उसे दान कहते हैं। लेकिन लोग इन धारणाओं में गड़बड़ा जाते हैं, और अलग-अलग संदर्भों में एक ही शब्द के अलग-अलग प्रयोग करते हैं। आइए इन शब्दों के सही अर्थ समझें।

वैदिक काल में कवियों को दान दिया जाता था। और बदले में वे दाता के आदर में ‘दान-स्तुति’ रचते थे। इसलिए, हम इसे दान नहीं बल्कि दक्षिणा कह सकते हैं। प्राचीन काल में राजा अपने राजत्व को वैध बनाने के लिए गो-दान करते थे। किसी मृत व्यक्ति के जीवित संबंधी मृतकों के लिए अच्छा भविष्य निश्चित करने के लिए भी गो-दान करते थे। दोनों उदाहरणों का यह गो-दान वास्तव में भिक्षा था, जो आध्यात्मिक पुण्य प्राप्त करने के लिए दी जाती थी।

दक्षिणा वस्तुओं और सेवाओं के बदले में किया गया भुगतान है। जबकि वस्तुएं मूर्त हैं, सेवाएं अमूर्त हैं। इसलिए उनका मूल्य निर्धारित करना हमेशा से ही कठिन रहा है। प्राचीन काल के सामंतवादी समाजों में ब्राह्मण लोगों के लिए अनुष्ठान करने, मंदिर बनाकर उन्हें चलाने, यहां तक की गांव स्थापित करने और कर इकठ्ठा करने में राजाओं की मदद करने जैसी अपनी तरह-तरह की सेवाओं के लिए भुगतान मांगते थें। एक बार राजा हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र ऋषि के यज्ञ में बाधा डाली। इसका प्रायश्चित करने के लिए राजा ने ऋषि को अपना राज्य प्रदान किया। लेकिन विश्वामित्र नहीं चाहते थे कि लोग इसे दान समझें। इसलिए उन्होंने हरिश्चंद्र से कहा कि यज्ञ में बाधा डालने के पाप से मुक्त करने की सेवा के लिए उन्हें अतिरिक्त ‘दक्षिणा’ देनी होगी।

भिक्षा प्राप्त करने वाला भिक्षा देने वाले का ऋणी बन जाता है। इसलिए वह यह ऋण आशीर्वाद अर्थात कार्मिक पुण्य देने जैसे अमूर्त तरीक़ों से चुकाता है। बौद्ध और जैन धर्मों जैसे मठवासी धर्मों में भिक्षा को बहुत महत्त्व दिया गया। आज भी बौद्ध देशों में, लोग भिक्षुओं को उनके कटोरों में भोजन देने के लिए सड़कों पर प्रतीक्षा करते हैं। इस अनुष्ठान में भिक्षा देने वाला पुण्य अर्जित करता है। युवा ब्राह्मण छात्र भी भिक्षा में भोजन मांगते थें और भोजन देने वालों को आशीर्वाद देते थें। हिंदू मंदिरों में तीर्थयात्री मंदिरों और पुजारियों तथा मंदिर के आस-पास भिखारियों को धन देते हैं। वे मानते हैं कि वे दान दे रहें हैं, लेकिन वे बदले में पुण्य की अपेक्षा रखते हैं। इसलिए वह दान नहीं भिक्षा बन जाता है।

दान देने वाला ऋण को माफ़ करता है। दान प्राप्त करने वाले को ऋण नहीं चुकाना पड़ता है। इसलिए, दान देना दक्षिणा या भिक्षा देने से श्रेष्ठ माना जाता है।

पुराणों में दानवीर कर्ण की कई कहानियां हैं। उन्हें सुनकर यह विचार करना स्वाभाविक है कि परोपकारी होने के बावजूद कर्ण का जीवन इतना दुःखद क्यों था। यह इसलिए कि हम दान को भिक्षा समझ रहें हैं। दान में बदले में कुछ भी अपेक्षित नहीं किया जाता है। इसलिए, परोपकारी होने के बावजूद कर्ण को कोई लाभ नहीं हुआ। इंद्र को अपना कवच दान में देकर वो रक्षाहीन रह गया। उसने न पुण्य कमाया और न कुछ और पाया। दान करने में निहितार्थ यह है कि आप बदले में कुछ भी अपेक्षित न करें। और अपेक्षाओं तथा भौतिक वस्तुओं के स्वामित्व से पूर्णतः तटस्थ रहें।

एक बार तीनों लोकों के स्वामी बलि ने घोषणा की कि वे उनके पास आने वाले सभी लोगों की सभी आवश्यकताएं पूरी करेंगे। इसलिए, विष्णु ने वामन का रूप लेकर उनसे तीन कदम भूमि मांगी। जैसे ही बलि ने हां कह दिया, विष्णु विशालकाय बन गए। केवल दो कदमों में तीनों लोकों को पार कर उन्होंने बलि से पूछा कि तीसरा कदम कहा रखा जाए। तब बलि ने तीसरे कदम के लिए अपना सर प्रदान कर विष्णु को अपना गुरू मान लिया।

विष्णु ने उन्हें देने के बारे में यह महत्त्वपूर्ण सीख दी थी – विश्व में संसाधन या खाद्य पदार्थ सीमित हैं, लेकिन भूख असीम है। इसलिए, सभी जीव खाद्य पदार्थों के लिए संघर्ष करते हैं। खाद्य पदार्थों की मात्रा बस उतनी ही होती है जितनी की उससे जीवों की भूख मिट सकें। और कई बार पेड़-पौधें और प्राणी खाद्य पदार्थ न मिलने के कारण मर भी जाते हैं। यह मानना कि कोई सभी जीवों की भूख मिटा सकता है मूर्खता के बराबर है। क्योंकि, जैसे बलि विष्णु के ‘कदम’ का अनुमान नहीं लगा पाए, हम किसी मनुष्य की भूख का अनुमान नहीं लगा सकते हैं। बौने वामन विशाल बन गए और दो कदमों में उन्होंने बलि के तीनों लोक पार कर दिए। दूसरे की भूख को कोई मिटा नहीं सकता है।

यही विचार कुबेर और गणेश की कहानी में भी समझाया गया है। एक बार कुबेर को लगा कि शिव इतने दीन थे कि वे अपने पुत्र, गणेश, को पेटभर खिला नहीं सकते थे। इसलिए कुबेर ने गणेश को अपने घर भोजन पर आमंत्रित किया और उन्हें जी भर के खाने के लिए कहा। इसलिए गणेश ने इतना खाया कि कुबेर के रसोईघर में सारा खाना ख़त्म हो गया। फिर भी वे कहते रहें कि उनका जी नहीं भरा था।

गणेश कुबेर को ये सीख दे रहें थे कि जीवन में भूख को मिटाने के बजाय उसके पार जाना आवश्यक है, क्योंकि जब खाने की मात्रा बढ़ती है तब भूख भी बढ़ती है। इसलिए हम शिव से प्रार्थना करते हैं। उनके निवास कैलाश पर्वत पर कोई भूखा नहीं होता है – शिव का नाग गणेश के मूषक को नहीं खाता और कार्तिकेय का मोर शिव के नाग को नहीं खाता है।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।