बारिश के देवता

वैदिक काल में परजन्य वर्षा और आंधी के देवता थे। आज सभी उन्हें भूल चुके हैं। लेकिन ऋग्वेद के पांचवें मंडल का 83वां पद्य उनकी प्रशंसा में लिखा एक सुंदर विवरण है।

मुंबई या भारत के अन्य बड़े शहर या कस्बों में जब भारी बारिश होती है, तो अक्सर लोग कहते हैं कि यह वर्षा के देवताओं का प्रकोप होगा। पर यह वर्षा के देवता हैं कौन? क्या इंद्र उनमें से एक हैं? बिलकुल, पर क्या इंद्र को समर्पित कोई मंदिर आपने कभी देखा है? वास्तव में वर्षा ऋतु में तो हिंदू धर्म के देवता सो जाते हैं।

चातुर्मास के इन चार महीनों में असुर और राक्षस देवताओं से ज़्यादा शक्तिशाली बन जाते हैं। घने बादलों का रूप लेकर ये असुर आकाश में छाकर ख़ुद में पानी रोककर रखते हैं। वर्षा तब होती, जब इंद्र उनपर अपने वज्र से वार करते हैं। वैदिक काल में ग्रीष्म ऋतु में लोग यज्ञ करते थे ताकि इंद्र को वर्षा ले आने का सामर्थ्य मिल सके। वैदिक कवियों ने वर्षा के गरजते बादलों को चिंघाड़ते हुए जंगली हाथियों के झुंड जैसे समझा। कवियों की कल्पना में इंद्र सफ़ेद हाथी पर सवार होते। सफ़ेद हाथी सफ़ेद बादलों का प्रतीक था, जो ख़ुद खुले आकाश से जुड़े थे। यक्ष भी पानी के साथ जोड़े गए। उनकी तोंद के कारण उन्हें वर्षा के मोटे बादलों जैसे समझा गया।

वैदिक काल में परजन्य वर्षा और आंधी के देवता थे। आज सभी उन्हें भूल चुके हैं। लेकिन ऋग्वेद के पांचवें मंडल का 83वां पद्य उनकी प्रशंसा में लिखा एक सुंदर विवरण है। कवि पेड़ों को विध्वंस करने वाली गरजती, कड़कड़ती बिजली को किसी सारथी द्वारा घोड़े को हिंसापूर्ण चाबुक मारने जैसा मानते हैं। ऐसी कल्पना की गई है कि वर्षा पौधों के बीज धरती में बोती है। चूंकि वर्षा का पानी धरती को समतल बनाता है, परजन्य को उलटी रखी हुई पानी की बालटी जैसे वर्णित किया गया है। वर्षा से तालाब भर जाते हैं और घास व पेड़्-पौधे भी रस से परिपूर्ण हो जाते हैं।

लेकिन अंतिम पद्य कुछ अलग है। वर्षा से धरती तरोताज़ा बन जाती है। लोग इससे ख़ुश होकर वर्षा के आभारी होते हैं, जबकि अत्यधिक वर्षा असहनीय हो जाती है और वे चाहते हैं कि वर्षा रुक जाए। तीन हजार वर्ष से भी पुरानी, वैदिक संस्कृत में लिखी कविता लोगों की यही भावना समझाती है। सातवें मंडल में परजन्य को समर्पित और भी कविताएं हैं- 101वां विस्तृत पद्य और अगला पद्य जो बिलकुल सरल है।

परजन्य का स्वरूप बदलते रहता है। जब बादल नहीं बरसते, तब परजन्य को बंजर कहा गया है और जब बरसते हैं तब बीज बोने वाले कहा गया है। वे चर (प्राणी) और अचर (पेड़), दोनों विश्वों के स्वामी हैं। रूपक के माध्यम से समझना हो तो उनके कारण सभी पेड़-पौधों और प्राणियों से दूध, शहद और बीज उभर आते हैं।

वर्षा ऋतु में बने वातावरण से पेड़-पौधे और अन्य चौपाये निषेचित हो जाते हैं। चरागाह और धरती को नया जीवन मिल जाता है। इनके आनंद में रचा 102वां पद्य परजन्य की प्रशंसा करता है। चौथे मंडल के 103वें पद्य में ग्रीष्म ऋतु से रूखे बने मेंढक पुनरुज्जीवित होकर कैसे टरटराते हैं, इसका सजीव विवरण किया गया है। टरटराने से मादा मेंढक नर मेंढक की ओर आकर्षित होती हैं और उनके मिलन से नया जीवन शुरू होता है। उसी तरह मनुष्यों के जीवन में भी नई खुशहाली आती है।

इन पद्यों में कवि वर्षा का जीवनदायी स्वरुप समझाते हैं। मैथुन के लिए मेंढक एक साथ लयबद्ध टरटराते हैं। उधर खेत खलियानों का उपजाऊपन बढ़ाने के सोम रिवाज़ में पुजारी, उनके शिष्य और उनके बालक स्तोत्र एक सुर में बोलते जाते हैं। कवि मेंढक और मनुष्यों की तुलना तो करते हैं, पर केवल हलके मज़ेदार रूप में। इन सजीव पद्यों से समझ में आता है कि ऋग्वेद के कवि प्रकृति का गुण गाकर उसे वैदिक लोगों के हेतु दैवीय रूप दे रहे थे और साथ-साथ वे देवताओं को भी पूज रहे थे।

यहां कविता और रूपक के माध्यम से भौतिक और मानसिक विश्वों को जोड़ा गया है। लोगों को प्रेरित कर उनमें देवताओं की याद जगाई गई है। यहां बताने जैसी कोई कथा तो है नहीं, केवल जीवन और प्रकृति का सजीव विवरण है। वर्षा ऋतु का चारों ओर ताज़गी ले आना हमें पसंद हैं, फिर भी उसकी तीव्रता से हम डरते हैं। पेड़ के नीचे या गुफ़ाओं से वर्षा की शान देखते हुए कवियों को भी यही लगा होगा।