हयग्रीव का अर्थ है वह जिसका अश्व का सिर है। कहते हैं कि एक बार ऐसे एक जीव ने वेद चुराए और वह समुद्र के नीचे छिप गया, जिस कारण विष्णु को मछली का रूप लेकर उसे ढूंढ़कर नष्ट करना पड़ा।
दूसरी कहानी के अनुसार, इस दानव को मिले वरदान के बल पर अश्व के सिर वाला दूसरा जीव ही उसे मार सकता था। इसलिए विष्णु इस जीव के साथ भीषण लड़ाई के बावजूद उसका वध नहीं कर सकें और थककर विश्राम करने अपने निवासस्थान वैकुंठ लौट गए। अपनी ठुड्डी को अपने धनुष की एक ओर रखकर वे दानव के वध करने की योजना बनाने लगें।
देवताओं ने विष्णु को नींद से जगकर हयग्रीव से फिर से लड़ने का अनुरोध किया। लेकिन ध्यान करने में तल्लीन विष्णु की आँखें बंद ही रहीं। इसलिए, देवताओं ने दीमकों का रूप धारण कर प्रत्यंचा खा लिया। तंग प्रत्यंचा टूटते ही, धनुष का डंडा तुरंत सीधा हो गया। प्रत्यंचा इतने बल से घूमा कि वह विष्णु की गर्दन को लगकर उसे चीर गया।
भयभीत होकर देवता विष्णु की सहचरी लक्ष्मी से मदद मांगने गए। देवी ने उन्हें शांत करते हुए समझाया कि जो कुछ भी होता है वह किसी उद्देश्य से ही होता है। उन्होंने देवताओं को अश्व का सिर काटकर उसे विष्णु के कटे हुए गरदन पर रखने के लिए कहा। ऐसा करने पर विष्णु ने अश्व के सिर वाले हयग्रीव के रूप में अश्व के सिर वाले दानव को हराया और वेदों को सुरक्षित कर लिया।
विष्णु का यह रूप दक्षिण भारत में कई जगहों पर पूजा जाता है। इस रूप में वे शंख, चक्र, जपमाला और पुस्तक धारण किए हुए होते हैं। यह मान्यता है कि ज्ञान और शिक्षा से जुड़े इस रूप में विष्णु ने ज्ञान की देवी सरस्वती के साथ अपना सभी ज्ञान बांटा।
हयग्रीव को ज्ञान के स्रोत के रूप में पूजा जाता है। वे सूर्य के साथ भी जुड़ें हैं। कहते हैं कि सूर्य ने अश्व के सिर वाले जीव का रूप लेकर याज्ञवल्क्य को वेदों का रहस्य बताया। यह धारणा कि अश्व के सिर वाला जीव अपना ज्ञान बांट रहा है हिंदू पुराणशास्त्र में दोहराई गई है।
अक्सर, हयग्रीव की छवि लक्ष्मी के साथ जोड़ी जाती है और फिर उन्हें लक्ष्मी हयग्रीव कहते हैं। कहते हैं कि उडुपी, कर्नाटक के श्री कृष्ण मठ में वदिराजतीर्थ नामक महाभक्त हयग्रीव की प्रशंसा में मंत्र जपता था और अपने सिर पर जई का प्रसाद रखता था। हयग्रीव एक सुंदर श्वेत अश्व का रूप लेते और पीछे से आकर जई खा जाते।
एक और कहानी दधीचि ऋषि की है जिन्होंने जुड़वां अश्विनों के साथ वैदिक विद्या बांटी। इंद्र ने ऋषि से कहा था कि ऐसा करना वर्जित था और उन्हें चेतावनी दी थी कि यदि वे ऐसा करेंगे तो उनका सिर हज़ार टुकड़ों में फूट जाएगा। जब जुड़वां अश्विन, वेदों का रहस्य जानने के लिए उत्सुक होकर पहली बार दधीचि से मिलें तब ऋषि ने उन्हें इस शाप के बारे में बताया।
जुड़वां अश्विनों ने इसका हल निकाला – उन्होंने दधीचि का सिर काटकर उसकी जगह एक अश्व का सिर लगाया। अश्व के सिर से दधीचि ऋषि ने उन्हें वैदिक विद्या दी। रहस्योद्घाटन समाप्त होते ही अश्व के सिर के हज़ार टुकड़े हुए और इंद्र का शाप पूरा हुआ। फिर अश्विनों ने ऋषि का सिर उनके शरीर को जोड़ दिया और दधीचि ऋषि फिर से जीवित हुए। इस प्रकार वैदिक विद्या फैली, इंद्र का शाप पूरा हुआ और सिवाय एक अश्व के किसी को चोट नहीं पहुंची।
कई मूर्तियों में जुड़वां अश्विनों को अश्वों के सिर होते हैं। कहते हैं कि सूर्य–देव की पत्नी को उनकी रौशनी इतनी तेज़ लगी कि वे उनसे भागकर एक घोड़ी के रूप में छिप गई। इसलिए सूर्य-देव ने अश्व का रूप धारण करके उनके साथ संबंध बनाए। इस प्रकार, अश्व और सूर्य के बीच गहरा संबंध है। यह मान्यता है कि सूर्य–देव का बेटा रेवंत श्वेत अश्व पर सवार होता है और शिकारियों का देवता है।
पुराणशास्त्र में तुम्बुरु नामक एक और अश्व के सिर वाला जीव है, जो गंधर्व और संगीतकार है। उसे अक्सर विष्णु और नारद के निकट खड़े दिखाया जाता है। उसमें और नारद में विश्व के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पद के लिए अक्सर स्पर्धा होती।
देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।