मानव समाज का अस्तित्व

मानवता का मूल पाप

प्रकृति का विनाश मानव समाज के अस्तित्व के कारण होता है। और जब तक समाज का विस्तार होगा, प्रकृति का विनाश भी होते रहेगा। यह बात हमारे ग्रंथों में भी दोहराई गई है।

समय-समय पर अख़बारों में पर्यावरण नष्ट करने, जनजातीय लोगों को अपने निवासस्थानों से निकालने, उनका स्वास्थ्य ख़राब करने और अनुचित सामाजिक व्यवहार के लिए लालची खनन कंपनियों पर निंदनीय लेख छपते हैं। इन लेखों के अनुसार ये सब राजनीत्तिज्ञों, नौकरशाहों और कंपनियों की मिलीभगत है।

पढ़ने में आता है कि अपनी आजीविका और निवासस्थान बचाने हेतु ग़रीब या जनजातीय लोग भी कभी-कभार हिंसा का सहारा लेते हैं। पिछले साल हॉलीवुड की फ़िल्म, अवतार, में प्रेक्षकों ने ना’वी लोगों का समर्थन किया। लेकिन यही प्रेक्षक इन ग़रीबों का समर्थन नहीं करेंगे। हम खनन कंपनियों से असहमत हैं। हम उनका विरोध कर रहें ग़रीबों से भी असहमत हैं। हम बस दोनों की निंदा करते हैं और चुपचाप विश्व को नष्ट होते हुए देखते हैं।

लेकिन सच्चाई तो ये है कि प्रकृति का विनाश मानव समाज के अस्तित्व के कारण होता है। और जब तक समाज का विस्तार होगा, प्रकृति का विनाश भी होते रहेगा। यह बात हमारे ग्रंथों में भी दोहराई गई है। महाभारत में, इंद्र-प्रस्थ स्थापित करने के लिए पांडवों ने खांडव-प्रस्थ को जला डाला, जिससे नागाओं सहित उसके अन्य निवासी मारे गए। नागों का राजा, तक्षक इस आग से बच निकला। उसने अपने परिवार के संहार का बदला कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन के बेटे, परीक्षित, की हत्या करके लिया।

जंगल जलाए बिना शहर नहीं बनाए जा सकते। पेड़ काटे बिना खेत और बाग़ नहीं स्थापित किए जा सकते। पहाड़ तोड़ें बिना ग्रेनाइट नहीं खोदा जा सकता। और धरती का खनन किए बिना धातु नहीं प्राप्त हो सकते। प्रकृति को साधने से ही संस्कृति का निर्माण होता है। और यह प्रक्रिया हिंसक है – सांड को बधिया करने से उसे बैल बनाया जा सकता है ताकि उसका खेती में उपयोग हो सके और नदी के मार्ग को बदलकर ही उसका पानी खेतों तक लाया जा सकता है।

दुर्गा द्वारा महिषासुर के वध की प्रतिमा प्रकृति को नष्ट करने की धारणा की सबसे प्रभावशाली और भयंकर अभिव्यक्ति है। शरद ऋतु में भारतभर और विशेष रूप से बंगाल और ओडिशा में शेर पर सवार दुर्गा के महिषासुर का भाले से वध करने की भव्य प्रतिमाएं सजाईं और पूजी जाती हैं। यह प्रतिमा फसल कटाई के त्यौहारों का भाग क्यों है? बच्चों को ये हिंसात्मक प्रतिमा दिखाकर उन्हें उसे पूजने के लिए क्यों कहा जाता है?

परंपरागत उत्तर यह है कि देवी खलनायक का वध कर रहीं हैं। लेकिन यह एक एकपक्षीय, लघुकारक और सुविधाजनक उत्तर है, जो हिंसा का समर्थन करता है बशर्ते हमपर अत्याचार नहीं किया जा रहा है। अपने राजनीतिक झुकाव के अनुसार हम मानते हैं कि खनन कंपनियां और/ या ग़रीब महिषा हैं और या तो देवी हमारे पक्ष में हैं या हम उनके पक्ष में हैं। यह करना आसान है। लेकिन क्या इसकी और कोई व्याख्या हो सकती है?

महिषा प्रकृति का प्रतीक भी तो हो सकता है, जिसे नष्ट किए बिना मां अपने बच्चों का पोषण नहीं कर सकती। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो महिषसुर का वध एक बलि समान है। फसल प्राप्त करने के लिए रक्त का बहना आवश्यक है। एक और व्याख्या यह हो सकती है कि देवी संस्कृति के स्रोत, मनुष्य, का वध कर रहीं हैं। प्रकृति संस्कृति से बदला ले रही है। चूंकि यदि खनन चलता रहा, और जनजातीय लोग अपने निवासस्थानों से निकालें जाते रहें, तो प्रकृति बदला लेगी, जैसे सूनामी के समय हुआ। प्रकृति का क्रोध एक न एक दिन अवश्य रूप लेगा।

क्या प्रकृति के विनाश से संस्कृति का निर्माण वह मूल पाप है जिसका उल्लेख बाइबिल में किया गया है? क्या शैतान ने हमें प्रकृति में बदलाव करने के लिए लुभाया और प्रकृति को नष्ट करने के लिए विवश किया? क्या यही मानवता का आदिम अपराध है? ओडिशा, कर्णाटक, आंध्र प्रदेश और झारखंड में ‘विकास’ के नाम कच्चे धातु का खनन हो रहा है। अचानक से हम विकास की क़ीमत चुकाना नहीं चाहते हैं।

संभवतः विकास पर ग़ौर करने का समय आ गया है। हम विकास क्यों चाहते हैं? क्या हम भौतिक विकास से भावनात्मक विकास की ओर बढ़ सकते हैं, जिससे हम अधिक दयालु और कम असुरक्षित बनेंगे? हमारे बच्चों को सिखाए जाने वाले मूल सिद्धांतों का पुनरावलोकन करना आवश्यक बन गया है।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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