मैं क्यों डरूँ?

मैं क्यों डरूँ?

जिस परिणाम में हमारी इच्छा, उस ईश्वर की इच्छा के अनुरूप हो जाएगी, उसी परिणाम में हम ईश्वरत्व प्राप्त कर जाएंगे।

यह कई वर्ष पहले की ऐसी हृदयस्पर्शी घटना है, जिसे याद करते ही मेरे सामने वह सुंदर, हंसमुख बच्चा आ खड़ा होता है, जो मुझे एक जहाज यात्रा के दौरान मिला था। मैं वरसोवा जहाज से, मुम्बई से कराची जा रहा था। मैं जहाज़ के डेक पर खड़ा था। अचानक समुद्र में तूफानी लहरें उठने लगीं। आकाश काले बादलों से घिर गया। सूरज कहीं छिपा गया… और चारों ओर फैला अंधकार रात के साये की तरह डरावना लगने लगा। हमारा विशाल जहाज़ उन महाकाय लहरों में कागज़ की नाव की तरह डोलने लगा। सारे यात्री डर से कांपने लगे… सब सोच रहे थे कि हम इस सागर में हम जल समाधि लेने ही वाले हैं। सारे यात्री असहाय और बेचैन थे। परंतु इस सबके बीच बैठा था एक हंसमुख, शांत और बेफिक्र बच्चा! उफनती लहरों और जानलेवा तूफान का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।

उस समय मैं दस वर्ष का था। उस बच्चे के चेहरे पर फैली प्रसन्नता… साक्षात मृत्यु के सामने भी… अविचलित थी। मैं हैरान था… अतः उससे पूछ बैठा– यह जहाज़ तो डूबने ही वाला है, क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा है?

उसने अपनी प्यारी मुस्कान से जवाब दिया– नहीं! मेरी माँ जब मेरे पास है तो… फिर मैं क्यों डरूँ?

उसके वे शब्द मैं कभी भूल नहीं पाया। जब कभी मैं दुःख और निराशा से घिर जाता हूं, तो मैं उस बच्चे के निर्भीक शब्द दुहराता हूं… मेरी माँ जब मेरे पास ही है, तो फिर मैं क्यों डरूँ? और बस मैं एक सांत्वना और तसल्ली से भर जाता हूं।

हमारी माँ जगत् जननी भी हम सबके पास सदा ही रहती है, वह तो हमारी सांसों से भी ज्यादा नजदीक है। वह हमारे अपने अंगों से भी ज्यादा करीब है। फिर हम इस सत्य से क्यों मुंह मोड़ लेते हैं? हम इस संसार की भीड़ में अपने व्यवसाय और व्यापार में भटक कर इस शाश्वत सत्य को भूल चुके हैं। अब हमारे अंदर बच्चों जैसी सरलता और मासूमियत नहीं है। बच्चे कभी किसी की आलोचना नहीं करते। वे सदैव खुश और आनंदित रहते हैं। उनके पास जो कुछ होता है उसे आपस में बांट लेते हैं। उनका हंसना, हंसाना प्यार करना, और खुशियां लुटाना।

हम जब बड़े हो जाते हैं, तो ये समझने लगते है कि, अब हमें हमारी माँ की ममता भरी निगरानी की जरूरत नहीं है। हमें एक बार फिर से अपने बचपन की ओर लौटना है। सरल, निष्कपट, मासूम, जो सबसे प्यार करे। सबसे दोस्ती करे, किसी में भी दोष न देखें। अब हमें निडर बनकर माँ की निकटता प्राप्त करनी होगी।

हम उस जगत् जननी माँ की निकटता, चिंतन, प्रार्थना और नाम स्मरण के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। हम बार-बार पावन नाम लिख कर इसकी शुरुआत कर सकते हैं। इससे मन की एकाग्रता बढ़ेगी और हमारे अंदर एक अवर्णनीय आनंद का उद्गम होने लगेगा। इस तरह बार-बार ईश्वर का नाम लिखने से एक दिन आप स्वयं को भूल कर, माँ जगत् जननी से मिल सकोगे।

यही एक सत्य है कि आपके प्रयत्नों की सफलता माँ की कृपा के बिना संभव नहीं है। हमें प्रेम और श्रद्धा से, सेवा और त्याग से, इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा है– तुम अकेले नहीं हो, मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ। मैं तो तुम्हारे अंदर ही समाया हुआ हूं। तुम जो कुछ भी खाते हो, देते हो, करते हो, सब मुझे ही अर्पण कर दो।

इसलिए हमारी छोटी-छोटी इच्छाएं भी उस सर्वव्यापी परमात्मा की इच्छा में समा जानी चाहिए। जिस परिणाम में हमारी इच्छा, उस ईश्वर की इच्छा के अनुरूप हो जाएगी, उसी परिणाम में हम ईश्वरत्व प्राप्त कर जाएंगे। फिर हमारी सारी सोच ईश्वर की मर्जी के अनुसार होगी। हम वही बोलेंगे, वही करेंगे जो वह हमसे करवाना चाहेगा। हमारे जीवन से भय कुछ इस तरह गायब हो जाएगा, जैसे सूर्य के प्रखर प्रकाश से कोहरा लुप्त हो जाता है। हमारी जिंदगी फिर सूर्य की हर किरण में, बरसात की हर बूंद में, फूलों की खुशबू में, कांटों में, पत्थरों में, नदी, चांद तारों, तूफानों में सृष्टि के हर ज़र्रे में समा जाएगी, और सभी में अपना ही विस्तार प्रतीत होगा। सब पर प्रेम, श्रद्धा और गहरा विश्वास होगा।

संत फ्रांसिस ने भी कहा है– जहां कहीं भी इस भूतल पर दया है, ज्ञान है, वहां डर और अज्ञान का अस्तित्व नहीं ठहर पायेगा।

निर्भयता का, सहानुभूति, हमदर्दी, सब प्राणियों पर दया और स्नेह पर अधिपत्य है। स्नेह और प्यार का बसेरा जिस दिल में होगा, वहां से डर मीलों दूर भागेगा।

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