दक्षिण भारत में ही क्यों पूजे जाते हैं कार्तिकेय?

दक्षिण भारत में ही क्यों पूजे जाते हैं कार्तिकेय?

दक्षिण भारत में कार्तिकेय को मुरुगन भी कहा जाता है। प्राचीन तमिल संगम साहित्य में उनका उल्लेख मिलता है।

उत्तर भारत का संभवत: एकमात्र कार्तिकेय का मंदिर हरियाणा में कुरुक्षेत्र के पास पेहवा शहर में है। यहां पर शिव के बेटे कार्तिकेय को ब्रह्मचारी के रूप में पूजा जाता है। कहते हैं कौरवों को युद्ध में मारने का पश्चाताप करने के लिए युधिष्ठिर ने इस मंदिर की स्थापना की थी।

आजकल कार्तिकेय की पूजा उत्तर भारत में इतनी नहीं की जाती। उनकी अधिकांश मूर्तियां शिव के मंदिरों में या बंगाल में दुर्गा पूजा में मां दुर्गा के पास ही पाई जाती हैं। इसके विपरीत दक्षिण भारत में वे बहुत महत्वपूर्ण देवता हैं। तमिलनाडु में पलणि के पहाड़ों पर एक भव्य मंदिर है। यहां पर वे ब्रह्मचारी नहीं हैं। उनके बगल में दो पत्नियां हैं- पहली हैं इंद्र की बेटी सेना और दूसरी हैं धरती की बेटी वल्ली। दक्षिण भारत में कार्तिकेय को मुरुगन भी कहा जाता है। प्राचीन तमिल संगम साहित्य में उनका उल्लेख मिलता है। यहां वे पहाड़ पर खड़े, भाला पकड़े, लाल रंग के एक ऐसे सुंदर युवक के रूप में मौजूद हैं, जो स्वर्ग और धरती दोनों से जुड़े हुए हैं। इस प्रकार उत्तर भारत के ब्रह्मचारी कार्तिकेय और दक्षिण भारत के विवाहित, गृहस्थ मुरुगन का बहुत निकट का संबंध है।

भारतीय आख्यानशास्त्र की कहानियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलती हैं और जगह-जगह भी। वेद से लेकर पुराणों तक हम प्रथाओं में भी बदलाव देखते हैं। इसलिए जबकि वेदों में कार्तिकेय की इतनी बात नहीं की गई, पुराणों में उन्हें शिव के परिवार का सदस्य माना गया है।

कार्तिकेय को 2300 साल पहले मौर्य काल में महत्व दिया जाता था और कुशान काल में भी। मोर पर बैठे कार्तिकेय को मंगल ग्रह से जोड़ा गया था। युद्ध के देवता और देवताओं के सेनापति कार्तिकेय की बहुत सारी मूर्तियां पाई जाती थीं। वे राजाओं के साथ भी जुड़े हुए थे, लेकिन धीरे-धीरे राजाओं के साथ दुर्गा जोड़े जाने लगीं और कार्तिकेय का महत्व कम होता गया।

कालिदास लिखित कुमारसंभव की कहानी के अनुसार ताड़कासुर को मारने के लिए देवता एक महान योद्धा चाहते थे। ब्रह्माजी ने कहा कि ऐसा योद्धा केवल शिव के बीज से जन्म ले सकता है। लेकिन शिव तो ब्रह्मचारी थे जो कामदेव को भी जला चुके थे। इसलिए यदि देवी, पार्वती के रूप में उन्हें यह बात समझाकर रिझाती तो उनके विवाह से जन्मा पुत्र आगे जाकर ताड़कासुर को मार सकता था। इस प्रकार कार्तिकेय शिव के गृहस्थ जीवन में आने का प्रतीक हैं।

लेकिन पुराणों में कहानी बहुत अलग है। पुराणों के अनुसार शिव और पार्वती के संबंध के बाद शिवजी का बीज अग्नि में गिर गया। लेकिन बीज का तेज इतना था कि अग्नि भी उसे स्वीकार नहीं कर पाया और उसने बीज वायु को सौंप दिया। वायु भी उस तेज को संभाल नहीं सका, इसलिए उसने बीज गंगा नदी में डाल दिया। लेकिन बीज के तेज से गंगा का शीतल जल भी उबलने लगा और गंगा के तट का सरह वन जलने लगा। आग थम जाने पर तट पर कमल के फूल में छह बच्चे दिखाई दिए।

प्रभा मंडल के क्रितिका नक्षत्र से छह क्रितिकाएं नीचे आईं और उन्होंने उन बच्चों को अपने बेटों के रूप में स्वीकारा। फिर पार्वती वहां पर आईं और उन्होंने छह बच्चों को जोड़कर एक बना दिया। इस बच्चे के छह सिर थे और उसमें छह लोगों की शक्ति थी। इस बच्चे ने ताड़कासुर को मार दिया।

दक्षिण भारत में कहते हैं कि उसने सुरपद्म को भी मारा। वहां उसे महान योद्धा माना जाता है। लेकिन कहानी में यह भी बताया जाता है कि कार्तिकेय और शिवजी के बीच में मतभेद हुआ, जिसके कारण कार्तिकेय कैलाश पर्वत छोड़कर अगस्त्य मुनि के साथ दक्षिण भारत चले गए। इसलिए आजकल उनकी पूजा उत्तर भारत में नहीं, दक्षिण भारत में होती है।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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