नाराज़गी नहीं ताज़गी

नाराजगी और ताजगी

इस कलिकाल में हम देखते हैं कि हरेक व्यक्ति किसी एक-न-एक से जरूर नाराज अथवा असन्तुष्ट है।

शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा मिलेगा, जो सबसे पूर्णतया सन्तुष्ट हो और जिससे अन्य सभी भी सन्तुष्ट हों। इस बात को देखकर किसी लेखक ने यह कह दिया कि संसार में आज तक कोई ऐसा मनुष्य पैदा ही नहीं हुआ जो सारी दुनिया को सन्तुष्ट कर सका हो।

अब क्या किया जाए! क्या लोगों को असन्तुष्ट ही रहने दिया जाए और उनकी दशा को उन्हीं पर छोड़ दिया जाए या कोई ऐसा उपाय है जिससे कि अधिकाधिक लोगों को सन्तुष्ट किया जा सकता है? फिर अपनी असन्तुष्टता का क्या इलाज है? हमारी अपनी नाराजगी कैसे दूर हो और हम में ताजगी कैसे आए?

योगी के लिए सन्तोष और सन्तुष्टता महत्वपूर्ण

योगी का ध्यान अपने चित्त और वृत्तियों पर होना स्वाभाविक है। हरेक योग-शास्त्र में संतोष और सन्तुष्टता को विशेष स्थान दिया गया है और उसकी विशेष व्याख्या की गई है। यदि हम योग-स्थिति का विश्लेषण करें, तो इस परिणाम पर पहुंचेंगे कि योग और सन्तुष्टता सहगामी हैं। संसार की स्थिति से असन्तुष्टता, प्रारंभ में कई धर्म-प्रेमी लोगों को योग मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करती है, परन्तु जब मनुष्य योगयुक्त हो जाता है तब वह असन्तुष्टता नामक चित्त-वृत्ति से अवश्य ही ऊंचा उठा हुआ होता है।

नाराजगी और असन्तुष्टता में अन्तर

यहां हम नाराजगी और असन्तुष्टता में अन्तर को स्पष्ट कर देना चाहते हैं। हमारे विचार में असन्तुष्टता, नाराजगी की जननी है परन्तु असन्तुष्टता से नाराजगी अधिक उग्र और क्लेशकारी है। यह एक मानसिक ताप है। जैसे किसी व्यक्ति का तापमान सदा 99 प्रतिशत रहता हो, वैसे ही नाराजगी वाले मनुष्य का मन भी थोड़ा-बहुत तपा हुआ ही रहता है, गोया यह एक मानसिक ज्वर है, एक प्रकार का तपेदिक रोग है। यदि हमारे साथ किसी का व्यवहार मर्यादापूर्ण न हो अथवा हमारे साथ कोई कार्य करने वाला ठीक प्रकार से कार्य न करता हो, तो इस परिस्थिति में असन्तुष्टता का उद्रेक होने की सम्भावना तो होती है परन्तु, उस व्यक्ति से नाराज हो जाना स्वयं अपनी ही कमजोरी के कारण होता है। असन्तुष्टता को जागृत करने में तो दूसरा व्यक्ति भी भागीदार होता है क्योंकि उसी की रीति-नीति और उसी की स्थिति-कृति अथवा उसी की बातचीत मर्यादा का उल्लंघन करने वाली होती है, परन्तु नाराजगी का होना या न होना स्वयं हम पर अर्थात हमारे स्वभाव पर निर्भर करता है।

नाराजगी और असन्तुष्टता का कारण और निवारण

अब प्रश्न यह है कि नाराजगी अथवा असन्तुष्टता का इलाज क्या है? हमारा यह विचार है कि किसी मनुष्य में मुख्य रूप से दो कारणों से ही असन्तुष्टता होती है। एक कारण तो प्रायः यह हुआ करता है कि आप जिस व्यक्ति से सहयोग, सहायता, सहानुभूति, सहकारिता, स्नेह और सम्मान की आशा करते हैं, वह उस आशा के अनुसार पूरा नहीं उतरता और दूसरा कारण यह हुआ करता है कि आप जिस व्यक्ति से सभ्य-व्यवहार, मर्यादा, शालीनता, अनुशासन, सरलता और सच्चरित्रता की आशा करते हैं, आपकी वह आशा उससे पूरी नहीं होती। इन कारणों से हमारे मन में असन्तुष्टता और उससे उद्भूत होने वाली नाराजगी तभी पैदा होती है जब हम अग्रिलखित तीन बातों को समय पर अपने मन में स्थिर नहीं कर पाते –

यह कि हरेक मनुष्य स्वयं कई उलझनों में उलझा हुआ है, चिन्ताओं में डूबा हुआ है, परिस्थितियों से पीड़ित है, कमियों और कमजोरियों से जकड़ा हुआ है। उसके अपने विचार अस्थिर हैं और तन से, मन से, धन से तथा बुद्धि से उसके सामर्थ्य की सीमा है। जब हम उसकी इन परिस्थितियों की उपेक्षा करके उससे आशा करते हैं, तो मानो जान-बूझकर अपने को असन्तुष्टता का शिकार बनाते हैं।

हम यह भूल जाते हैं कि इस समय सभी मनुष्यों की तमोप्रधान, मर्यादाविहीन, माया-अधीन, मानसिक चंचलता, अस्थिरता तथा संस्कारों की अशुद्धता की अवस्था है। जो इससे ऊंचे उठ चुके हैं वे भी अभी सम्पूर्ण नहीं बने हैं। यदि वर्तमान समाज तथा उसके व्यक्तियों की दशा का ज्ञान हमारी बुद्धि में स्थिर रहे, तो हम नाराजगी से बचे रह सकते हैं।

यदि हमें यह बात विस्मृत न हो कि हमारा हरेक व्यक्ति से कर्म-फल भी है और हमारा व्यक्तिगत कर्म-फल भी हमारे साथ है और कि हरेक मनुष्य शुद्ध रूप से, अशुद्ध रूप से तथा शुद्ध एवं अशुद्ध मिश्रित रूप से किसी न किसी अंश में स्वार्थी भी है, तो फिर हम नाराजगी के उग्र रूप से स्वयं को बचाए रख सकते हैं।

हम एक-दो उदाहरणों द्वारा इस बात को और अधिक स्पष्ट करते हैं –

एक उदाहरण

मान लीजिए, किसी सेवाकेन्द्र की कोई शिक्षिका, किसी ज्ञानवान भाई को कहती है, ‘आज सायं शिवरात्रि से सम्बन्धित कार्यक्रम है। उसके लिए व्यवस्था करनी है। आज आप सायं 5.30 बजे अवश्य अमुक हॉल में पहुंच जाना।’ वह भाई कहता है, ‘बहनजी, आज तो मैं जल्दी नहीं आ सकता। हमारे दफ्तर में कार्य बहुत है। मुझे जल्दी छुट्टी मिलेगी ही नहीं। अतः 6  या 6:30 बजे तक पहुंच सकता हूं।’ इस पर यदि वह बहन उससे असन्तुष्ट अथवा रुष्ट हो जाती है और कहती है कि ‘वर्षभर में एक दिन ही तो शिवरात्रि का त्योहार हम मनाते हैं। आप तब भी थोड़ा जल्दी छुट्टी नहीं कर सकते तो बाकी फिर आप क्या सेवा कर सकते हो अथवा आपका निश्चय क्या हुआ?’ बहन को असन्तुष्टता से व्यवहार करते देख वह भाई भी नाराज हो जाता है। वह कहता है कि ‘बहन जी, मेरी परिस्थिति को तो आप मापती नहीं हैं, यों ही रुष्ट हो रही हैं, यह कोई ठीक थोड़े ही है।’

इस तरह की बात तभी होती है, जब दोनों एक-दूसरे की परिस्थिति को ध्यान में नहीं रखते। जब उस व्यक्ति को दफ्तर से छुट्टी ही नहीं मिल सकती, तो उससे असन्तुष्ट होने का कारण ही नहीं है। हां, यदि हमें शत-प्रतिशत सही मालूम है कि यह व्यक्ति छुट्टी ले सकता है और यों ही टरका रहा है तब हम मान सकते हैं कि वह सहयोग नहीं देना चाहता। परन्तु, एक-दूसरे की आवश्यकता एवं परिस्थिति को ठीक प्रकार न मापने के कारण परस्पर असन्तुष्टता होती है।

दूसरा उदाहरण

मान लीजिए, एक महिला को अपने भाई से सहायता चाहिए परन्तु उतनी सहायता न मिलने पर वह असन्तुष्ट होकर कहती है, ‘अब इस भाई का मुझ से कुछ भी स्नेह नहीं रहा। जबसे इसने विवाह किया है, तब से यह बदल गया है। यह अपनी जोरू का गुलाम बन गया है।’ बहन का ऐसा दृष्टिकोण देखकर भाई भी बहन से नाराज हो जाता है। इसका कारण क्या है? यही कि बहन यह नहीं देखती कि भाई की परिस्थिति बदल गई है और उसका स्नेह-भाजन भी बदल गया है। स्वाभाविक बात है कि पहले बहन छोटी थी और भाई भी अकेला था। अब विवाहित हो जाने पर भाई अपनी पत्नी की ओर भी जिम्मेदारी महसूस करता है और सोचता है कि बहन की जिम्मेदारी कुछ तो उसके पति तथा ससुराल वालों पर भी है ही। अतः सीमित सामर्थ्य होने के कारण अब वह बहन के कार्यों पर उतना धन और समय खर्च नहीं कर सकता जितना पहले किया करता था। यह बात बहन की समझ में आनी चाहिए। यदि इस पर उसका ध्यान रहता, तो वह नाराजगी से बच जाती।

अधिकाधिक लोगों को सन्तुष्ट कैसे करें?

अभी हमारा यह प्रश्न रहा हुआ है कि हम अधिकाधिक लोगों को सन्तुष्ट कैसे करें? इस बारे में हमारा विचार है कि नम्रता, मधुरता, स्नेह, सहयोग, सेवा और त्याग रूपी गुणों की धारणा ही अधिकाधिक लोगों को सन्तुष्ट करने की साधक है। हमारी अपनी असन्तुष्टता लोगों से स्नेह, सहयोग इत्यादि न मिलने के कारण होती है, वैसे ही लोग भी हमसे इसलिए असन्तुष्ट होते हैं कि हम स्नेह, सहयोग, सम्मान इत्यादि से युक्त होकर उनसे व्यवहार नहीं करते।

क्या हम असन्तुष्टता को व्यक्त करें?

अन्त में, हम इस बात पर भी विचार कर लें कि क्या हमें अपनी असन्तुष्टता अथवा नाराजगी अभिव्यक्त करनी चाहिए या चुप ही साध लेनी चाहिए? कुछ लोग कहेंगे कि नाराजगी अथवा फीलिंग एक प्रकार का मनोविकार है। अतः इसको मन तक ही सीमित रखना चाहिए वर्ना वचन द्वारा इसकी अभिव्यक्ति से विकर्म बन जाएगा। इस विषय में हमारा विचार है कि हम असन्तुष्टता एवं नाराजगी रूपी अशुद्ध संकल्प का निवारण कर सकेंगे, तो सर्वश्रेष्ठ है। परन्तु यदि हम इस वृत्ति का निरोध नहीं कर पा रहे हैं, तो हमें मर्यादा, शालीनता, नम्रता और लोक संग्रह को साथ रखते हुए, इसे सम्बन्धित व्यक्ति अथवा दोनों के किसी श्रद्धेय व्यक्ति के साथ बैठ कर परस्पर हित-भावना से इसका हल कर लेना चाहिए। निस्सन्देह, अपनी नाराजगी अथवा असन्तुष्टता का स्थान-स्थान पर वर्णन करना योग-अनुशासन के विरुद्ध है और दैवी मर्यादा के विपरीत है। मन के अन्दर परेशान रहने, ईश्वरीय पुरुषार्थ से पीछे हटने और अनबन का वातावरण पैदा करने की बजाय शिष्टतापूर्वक उसकी अभिव्यक्ति करके उसका यथासम्भव उपाय ढूंढ़ निकालना ही श्रेष्ठ है। इस पर भी यदि कोई हल नहीं होता, तो हमें उसे अपने पूर्व कर्मों का फल मान, योग की मस्ती में मस्त रहना चाहिए। योगी को कभी भी ऐसे क्रूर साधन नहीं अपनाने चाहिए जैसे कि आज के सामान्य जन अपना असन्तोष प्रगट करने के लिए अपनाते हैं।

असन्तुष्टता और नाराजगी के अतिरिक्त एक स्थिति और भी होती है। मान लीजिए, कोई व्यक्ति आपके साथ निजी तौर पर अमर्यादा से व्यवहार करता है अथवा संगठन या सभा में अपनी सीमा का अतिक्रमण करता है। यदि बार-बार ऐसा हो तो आप आगे के लिए उस व्यक्ति से केवल उतना ही सम्बन्ध रखते हैं, जितना कि सेवार्थ आवश्यक है अथवा उस संगठन में उतना ही भाग लेते हैं जितना कि लोक संग्रहार्थ जरूरी है। इसे असन्तुष्टता या नाराजगी की संज्ञा देना गलत है क्योंकि अपने इस कृत्य द्वारा आप अपनी नाराजगी का नहीं बल्कि अस्वीकृति-मात्र का प्रकटीकरण चाहते हैं अर्थात इस बात की अभिव्यक्ति करना चाहते हैं कि आप उस व्यक्ति की उस व्यवहार विधि को अथवा उस संगठन की कार्यविधि को सही नहीं मानते। इसमें आप किसी से अपना मित्रभाव नहीं गंवाते, न ही किसी से विरोध करते हैं।

कुछ लोग इतने तो नाराज हो जाते हैं कि परस्पर बोलना ही बन्द कर देते हैं। उनके मन में एक-दूसरे के लिए घृणा घर कर जाती है। राह जाते हुए वे एक-दूसरे को दुआ-सलाम भी नहीं करते या मुंह फेरकर निकल जाते हैं। योगी के लिए इस वृत्ति का पोषण हानिकारक है। शुभचिन्तक और शुभचिन्तन, इस सुभाषित के विरुद्ध ही यह व्यवहार है। हमें अपने सौजन्य को नहीं छोड़ना चाहिए और लोक-संग्रह तथा ईश्वरीय सेवा को प्रमुख स्थान देना चाहिए। इसमें तो अपनी ही आध्यात्मिक उन्नति में स्वयं बाधा डाल कर अपना शत्रु आप बनना है।

इस लेख में हम दो शब्द और जोड़ना चाहते हैं। कुछ लोग मन में होते तो असन्तुष्ट अथवा नाराज हैं, परन्तु पूछने पर मुस्करा कर कहते हैं, ‘नहीं, नहीं, हम आपसे नाराज कैसे हो सकते है?’ हमारे विचार में आज नहीं तो कल हमें वस्तु-स्थिति को मानसिक सन्तुलन के साथ कल्याण-भावना से और प्रिय वचनों में स्पष्ट कर ही देना चाहिए वर्ना अनबन की खाई बढ़ती है और अपने स्वभाव में भी कृत्रिमता आती है।

ऐसे भी कुछ लोग देखे जाते हैं कि उनके व्यवहार में विषमता पाकर जब आप उनसे पूछते हैं, ‘क्यों जी, आप हमसे नाराज हैं?’ तो वे झट से कहते हैं, ‘नहीं, नहीं, हम नाराज तो कभी किसी से होते ही नहीं।’ यदि वे सचमुच में नाराज नहीं होते या होकर भी बात को भुला देते हैं या न भुलाकर भी सद्व्यवहार करते ही रहते हैं, तो वे सचमुच हमारे लिए अनुकरणीय और मान्य हैं। परन्तु ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो इस विचार से अपने नाराज होने की बात इनकार करते हैं। यह तो अपनी कमजोरी को छिपाना, आलोचना से भयान्वित होना और सत्य से इनकार करना है, जो कि योगाभ्यासी को अभी भले ही किसी परिस्थिति से छु़ड़ा देता हो परन्तु अन्ततोगत्वा हानिकर है।

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