असंक्रामक रोग और राजयोग

असंक्रामक रोग और राजयोग

तनाव आधुनिक जीवनशैली का अविभाज्य भाग बन गया है। इसके फलस्वरूप कुछ अनोखी बीमारियों का जन्म हुआ है. जिन्हें एनसीडी अर्थात् नॉन कम्युनिकेबल डिजीज (असंक्रामक रोग) के नाम से जाना जाता है।

गरुड़ पुराण में हर पाप के लिए एक विशेष प्रकार की सजा निश्चित की गई है, जिसे पढ़कर दिल दहल जाता है और मनुष्य को पापभीरु बना देता है। आज कलियुग के अंत के भी अंत में, मनुष्य पैसों के मोह के सामने परमेश्वर तक से नहीं डरता है और बिना झिझक के विकर्म किए जा रहा है। मुम्बई के विश्व में प्रख्यात सर जेजे अस्पताल में सेवा के दरम्यां ऐसा अनुभव हुआ कि यहां भगवत गीता के कर्मों के सिद्धांत को भी एक ढकोसला माना जा रहा है। ऐसे लोगों को उनकी सीमा बताने के लिए प्रकृति ने एनसीडी की रचना की है।

एनसीडी की भीषण यातनाएं

एनसीडी बीमारी बड़ी भयानक होती है और जीवन के अंत तक मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती है। तिल-तिल जर्जर बनाती जाती है। इसकी यातनाएं कभी-कभी इतनी भीषण होती हैं कि मनुष्य इच्छा मरण की याचना करने लग जाता है। इन बीमारियों का आघात अचानक होता है। एक अच्छा-खासा, चलता-फिरता, हट्टा-कट्टा मनुष्य गलितगात्र हो जाता है, रुग्ण शय्या पर लेट जाता है और शर शय्या की भांति यातनाओं का अनुभव करता है। कैंसर की अंतिम अवस्था में तो सबसे शक्तिशाली वेदना शामक भी काम नहीं करते। अल्जाइमर नामक बीमारी में रोगी के रिश्तेदारों का नरकवास होता है।

प्रचंड तनाव

आज भारत में कैंसर का प्रमाण 45 प्रतिशत बढ़ गया है। हर तीसरा भारतीय मधुमेह और अतिरिक्त रक्तदाब का शिकार है। डॉक्टर और हृदयरोग विशेषज्ञ आहार और समुचित व्यायाम को अपनी दिनचर्या में विशेष स्थान देते हैं, फिर भी अचानक हृदयरोग के तीव्र झटके से उनकी जीवन-लीला समाप्त हो जाती है। इसका मुख्य कारण प्रचंड स्वरूप का तनाव है। इसके कारण रैडिकल्स नामक भयानक परमाणुओं का निर्माण होता है। ये अतिरेकी परमाणु मानवी शरीर में पेशियों में और अवयवों में घातपात मचाते हैं। युवा पीढ़ी में व्यसन, बर्न आऊट और आत्महत्या का प्रमाण भयानक रीति से बढ़ रहा है। अंदर आनंद, संतोष और समाधान नहीं। बहुत ही पॉश मुहल्ले में, झूठी शान से करोड़ों का फ्लैट लेना और फिर कर्ज की किश्तें चुकाने के लिए मर-मर कर, मरते दम तक काम करना, बहुत साधारण-सी बात हो गई है। इसी बीच शरीर छूट गया, तो मेहनत का फल कोई और खाएगा, इसका विचार तक आज के मनुष्य के मन में नहीं आता। इसका मतलब साफ है। सार-असार बुद्धि का अभाव है।

आध्यात्मिक शून्यता

डॉ वीग नामक चंडीगढ़, पीजीआई के प्रख्यात मनोचिकित्सक ने बताया कि आज समाज में विद्यमान ‘आध्यात्मिक शून्यता’ विवेक शून्यता को जन्म दे रही है। कुछ वर्षों पूर्व, वानप्रस्थ अवस्था आते ही ढलती उम्र के लोग रामायण, भगवद् गीता इत्यादि पढ़ते थे, पूजा-पाठ करते थे, मंदिरों में जाते थे और कीर्तन-भजन में मन लगाते थे। आज के बूढ़े ‘मेंस ब्यूटी पार्लर’ में जाते हैं, स्टायलिश बाल कटवाते हैं या फिर विग लगाकर या हेयर ट्रांसप्लांट कर युवा होने का नाटक करते हैं। षोडषवर्षीय बालिका पर फिदा हुसैन होते हैं। जब प्रण-शक्ति, धन और अच्छे कर्मों का खाता समाप्त हो जाता है, तो घर से निकाल कर, किसी वृद्धाश्रम में आखिरी सांसें गिनने के लिए उनको छोड़ दिया जाता है। यहीं से आत्मा का अंतिम युद्ध शुरू हो जाता है। शेष बचे हुए विकर्मों का खाता विभिन्न प्रकार के भोग दिलाता है।

शातिर इंसान की दलीलें

भोग चार प्रकार के होते हैं – तन, मन, जन और धन। इनमें से एक या अनेक आत्मा को घेर लेते हैं और वार करना आरंभ कर देते हैं। मनुष्य अभिमन्यू की भांति दुख और यातना के चक्कर में फंस जाता है। ऐसी आत्माएं, जीवनभर परमेश्वर ने जो मदद का हाथ बढ़ाया, उसको पकड़ना नहीं चाहती। अहम और वहम के कारण खुद को चलाती हैं, फिर आत्मा के अंत समय के युद्ध में इनका चिल्लाना आरंभ हो जाता है। धन के कारण आया हुआ इनका रोब कहीं गुम हो जाता है। कुरान में भी लिखा है कि कयामत के समय अल्ला ताला जान फूंककर कब्र से बाहर निकालते हैं। उस समय आत्मा सिर्फ सुन सकती है, देख सकती है और अल्ला ताला के बरसाए हुए कोड़े सह सकती है। इसके पहले अल्ला ताला किए हुए जुर्म और कृतघ्नता का हिसाब सुनाते हैं। प्रत्येक इंसान के कंधों पर दो फरिश्ते होते हैं, जो हर सेकंड का आलेख रखते हैं। शातिर इंसान कहता है, ‘ये तो खरीदे हुए गवाह हैं।’ तब अल्ला ताला सम्पूर्ण जीवन की रील या सीसीटीवी बनाते हैं। शातिर इंसान कहता है, ‘किसी ने मेरा चेहरा नकल किया है।’ तब वह अवयव जिससे विकर्म किया था, गवाही देने लगता है। अब शातिर इंसान के पास कोई भी दलील शेष नहीं बचती। सजा भोगने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं बचता, चाबुक बरसने शुरू हो जाते हैं।

एनसीडी बीमारी माना अल्ला ताला के चाबुक। अमाप धन, रिश्तेदार और महंगी दवाइयां कुछ भी काम नहीं आते। ब्रह्माकुमारीज राजयोग में इसी को ही धर्मराज का ट्रिब्युनल बताते हैं। सम्पूर्ण पवित्रता और शुभकामना नहीं अपनाया, तो दो नुकसान हो जाते हैं, एक, पदभ्रष्ट होकर निचला पद पाते हैं और दूसरा, सजा खाकर ही जीवन-मुक्ति में माना सुख और शांति वाले सतयुग में जा सकते हैं। संगमयुग में विधिपूर्वक किए हुए पुरुषार्थ के आधार पर सतयुग या त्रेतायुग में पद पाते हैं, नहीं तो फिर द्वापर या कलियुग में जन्म लेते हैं। इतनी अवधि को बिन्दू रूप में, परमधाम में शिव परमात्मा के साथ बिताते हैं। तब परमात्मा के साथ की भासना नहीं होती। क्रिकेट के 12वें खिलाड़ी की भांति सिर्फ पैड बांधकर बैठे रहते हैं। करतब-कमाल दिखाने का मौका तक प्राप्त नहीं होता।

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