पौराणिक काल की बात है, जब जंगल में मल्ल नामक राक्षस और महाभारत में पांडवों में से एक अर्जुन के बीच लड़ाई हो रही थी। ऐसे में शंकर भगवान ने शिकारी का वेष अपनाकर राक्षस मल्ल का वध किया था। इस पूरे वाक्ये ने भोले भंडारी को मल्लिकार्जुन के अवतार में जीवंत किया। जहां पर यह वाक्या हुआ उस स्थान के आसपास ही कोंकण मराठों के लिए सबसे खास मल्लिकार्जुन मंदिर का निर्माण किया गया। इसी मंदिर को लोग सदियों से मल्लिकार्जुन मंदिर के नाम से जानते हैं।
माना जाता है कि मल्लिकार्जुन मंदिर (Mallikarjuna Temple) का निर्माण 16वीं शताब्दी में किया गया था। वर्तमान में यह गोवा राज्य में है और भारत के पौराणिक मंदिरों में से एक है। मंदिर के आसपास की खूबसूरती देखते ही बनती है, ये पहाड़ों से घिरा होने से साथ-साथ इसके आसपास काफी हरियाली है। यह मंदिर गोवा के कोनकोण जिले के श्रीस्थल गांव के पास है।
आसपास के लोग भगवान मल्लिकार्जुन को अद्वैत सिंहासनाधिश्वर महापति कानकोण के नाम से जानते हैं। यहां की खास बात यह है कि शिवलिंग पर धातु मानव वाले चेहरे की आकृति बनी हुई है। लोगों की ऐसी धारणा है कि शिवलिंग पर मौजूद मुखौटा उसी शिकारी का है, जिसका रूप भगवान शंकर ने धरा था।
कलाकृतियों को समेटे हुए है मल्लिकार्जुन मंदिर (Kalakriti ko samete hue hai Mallikarjuna Mandir)
मंदिर में 60 से अधिर हिंदू देवी-देवताओं की कलाकृतियां हैं, जिसे लकड़ी, पत्थरों व धातु पर उकेरा गया है। मुख्य हॉल में महाभारत की कहानियों का वर्णन करते हुए कुल 6 पिल्लर हैं, जिनपर नक्काशी की हुई है। लोगों की ऐसी धारणा है कि इन पिलर्स में से एक में दैवीय गुण हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जो लोग अपनी इच्छाओं की कामना के लिए यहां भगवान से वर मांगते हैं वो पूरे भी होते हैं। इसके लिए श्रद्धालु पिल्लर पर पीले फूल भी चढ़ाते हैं। वहीं अपनी मनोकामनाओं को मंदिर के पुजारी को भी बताते हैं। इसके बाद पुजारी श्रद्धालुओं से हल साझा करते हैं।
मुख्य मंदिर तक जाने वाले रास्ते से पहले काफी बड़ा मैदान है। यहीं से होकर श्रद्धालुओं को वहां जाना पड़ता है। यहां के माहौल में श्रद्धालु साफ तौर पर शांति महसूस कर सकते हैं। त्योहार के दौरान यहां की खूबसूरती व लोगों की भीड़ देखते ही बनती है।
जात्रा के दिन विशेष स्नान की है परंपरा (Jatra ke din vishesh snan ki hai parampara)
जात्रा यानि वार्षिकोत्सव के समय भगवान मल्लिकार्जुन की मूर्ति को श्रद्धालु समुद्र के तट पर ले जाते हैं। जिसे किंडलबाग कहते हैं। यहीं पर प्रभु को विशेष स्नान कराने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। इसी दौरान श्रद्धालु भी समुद्र में डुबकी लगाते हैं। यहां किया जाने वाला अनुष्ठान जिसे शिशरणी अनुष्ठान कहते हैं, वो काफी खास है। यही वजह भी है कि इस अनुष्ठान के कारण यह मंदिर देश के अन्य मंदिरों की तुलना में अलग है। दो साल में एक बार पारंपरिक शिग्मो उत्सव के दौरान इस अनुष्ठान का आयोजन किया जाता है। आम धारणा है कि ऐसा करने से भगवान शिव का आशीर्वाद भक्तों पर बना रहेगा। शिशरणी यानि शीशम की लकड़ी पर खाना बनाने के रस्म को तीन भक्तों के सिर पर चावल पकाकर पूरा किया जाता है।
इस रस्म को अदा करने के लिए तीन पुरुष श्रद्धालु पारंपरिक वेशभूषा पहनने के साथ पगड़ी पहनते हैं। वहीं एक दूसरे के सिर को छूते हुए जमीन पर लेट जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे ईंटों से चूल्हे का निर्माण किया जाता है। इसके बाद श्रद्धालुओं के सिर को केले के खाम और गीले कपड़ों से ढका जाता है। फिर चावल के बर्तन को श्रद्धालुओं के सिर पर रखते हैं। इसके बाद चावल को पकाने के लिए शीशम की लकड़ी से आग को जलाया जाता है। यह चावल बनने के बाद परिसर में मौजूद तमाम श्रद्धालुओं के बीच इसे छिड़का जाता है। ताकि ईश्वर का आशीर्वाद भक्तों पर बना रहे।
खास पर्व-त्योहार को छोड़ दें, तो सामान्य दिनों में भी काफी संख्या में श्रद्धालु यहां भोले बाबा के दर्शन करने के लिए आते हैं। वहीं मल्लिकार्जुन मंदिर के वातावरण में मौजूद शांति की अनुभूति करते हैं।