अपनी व्यस्त ज़िंदगी से समय निकाल मैंने अप्रैल के महीने में महाबलेश्वर (Mahabaleshwar) जाने का प्लान किया। सोचा काफी दिनों के बाद दोस्तों से मुलाकात भी हो जाएगी और मैं महाबलेश्वर भी घूम आउंगा। मैंने टिकट कटाकर ट्रैवल बैग पैक किया और निकल गया, महाबलेश्वर के सफर पर।
मुंबई में दोस्तों से मिलने के बाद मैंने सड़क के रास्ते से ही महाबलेश्वर जाने की सोची। 6 घंटे में 260 किलोमीटर का ये सफर कैसे बीता मुझे खुद पता नहीं चला। ऐसा इसलिए है क्योंकि जैसे-जैसे मैं शहर से दूर होता जा रहा था, ठीक वैसे-वैसे मैं खुद को प्रकृति के बीच महसूस कर पा रहा था। ऐसा लग रहा था मानो इतनी हरियाली एक लंबे समय से देखने को न मिली हो।
पहाड़ों, नदियों और हरियाली को देखते-देखते सफर का पता ही नहीं चला। होटल के कमरे में कदम रखते ही मेरी नज़र यहां की बालकनी पर गई, जो खास थी। जहां से पहाड़ों और जंगल को खुली आंखों से देखकर जो सुकून मुझे मिला, वो सुकून कंक्रीट के जंगलों में भला कहां था। यह बिल्कुल किसी खूबसूरत सपने की तरह लग रहा था।
सबसे पहले मैं निकल पड़ा ओल्ड महाबलेश्वर की ओर, जहां मेरा पहला पड़ाव था ‘शिव मंदिर’। ये मंदिर काफी ऐतिहासिक था। मंदिर के अंदर जाने के बाद मुझे पता चला कि यहां करीब 5 हजार साल पुराना शिवलिंग स्थापित है। इसे महाबलेश्वर के नाम से क्यों जाना जाता है, इसकी कहानी भी सालों पुराने शिव मंदिर (Shiv Mandir) से जुड़ी हुई है।
मंदिर की खास बात है कि यहां कदम रखते ही आपको अपने आस-पास एक सकारात्मक ऊर्जा का एहसास होने लगता है। मंदिर में गूंजती घंटियों की आवाज पर अगर आप गौर करें तो आपको लगेगा कि आवाजों की कोई उम्र नहीं होती। मंदिर की दीवारें भले ही पुरानी लगने लग जाएं, लेकिन पूजा और घंटी की आवाज सालों से वैसी की वैसी ही है।
शिवलिंग के दर्शन के बाद अब मैं निकल पड़ा उस जगह की तलाश में जहां से महाबलेश्वर की खूबसूरती देखते ही बनती है। मैं पहुंच चुका था आर्थर सीट प्वाइंट (Arthur seat point) पर। यहां पहाड़ के ऊपर चढ़ा तो तेज़ हवाएं चल रही थीं। इसके अलावा यहां पर आप एको प्वाइंट, सावित्री प्वाइंट, मैलकम प्वाइंट जैसी जगहों पर भी जाकर और ऊंचाई पर चढ़कर प्रकृति की खूबसूरती का आनंद ले सकते हैं।
आर्थर सीट प्वाइंट पर जाने के लिए, मैं करीब डेढ़ किलोमीटर तक सीढ़ियों से चढ़कर गया और ऊपर पहुंचते ही मेरी सारी थकान गायब हो गई। ऊपर से काफी दूरी पर बादलों से घिरे पहाड़ साफ दिखाई दे रहे थे। ऐसा लग रहा था कि मानो थोड़ा ऊंचा जाने पर आप बादलों को छू सकते हैं। हम जिस धरती पर रहते हैं, उसकी खूबसूरती हमें तब अच्छी तरह दिखती है जब हम पहाड़ पर चढ़कर इसकी ओर देखते हैं।
ओल्ड महाबलेश्वर रोड के बाद मैं निकल पड़ा पंचघनी रोड की तरफ। मैं पहुंच चुका था केट्स प्वाइंट, जिसे लोग ‘शूटिंग प्वाइंट’ के नाम से भी जानते हैं क्योंकि यहां पर कई फिल्मों के सीन को फिल्माया गया है। यह जगह इतनी खूबसूरत है कि इसे देखने पर आपको लगेगा कि आप किसी फिल्म के खूबसूरत सीन को देख रहे हैं। इतनी ऊंचाई से नीचे बहती हुई नीली नदी भी साफ दिखाई देती है।
इसके बाद मैं पहुंचा ‘इको प्वाइंट’, ये वही जगह है जिसके बारे में मैंने किताबों में पढ़ा था कि पहाड़ों के बीच यदि तेज़ आवाज़ लगाई जाए, तो आवाज़ की ध्वनि पहाड़ से टकराकर वापस आती है। ऐसी जगहों पर आकर हम सब बच्चे बन जाते हैं। मैं तेज़ आवाज़ लगाकर इको का एहसास किया।
दिन घूमने-फिरने में निकल गया और शाम ढलने से पहले मैं पहुंच चुका था यहां के लोकल मार्केट में। आप जहां भी घूमने जाएं, लेकिन वहां से कुछ सामान खरीदकर ज़रूर लाएं, क्योंकि बाद में ये सामान ही उन खास जगहों की याद दिलाते हैं। इन यादों को ताजा रखने के लिए, मैंने भी बाजार से एक दो चीजें खरीदीं।
दिन के दूसरे दिन मैं होटल में ही नाश्ता करने के बाद निकल गया घूमने के लिए। मुझे नए लोगों से बात करना बहुत पसंद है… ऐसे में होटल वालों से बात करने के दौरान ही उन्होंने मुझे स्ट्रॉबेरी की खेती को करीब से देखने के लिए कहा।
फिर क्या था उनके बताए पते पर मैं चला गया। यहां पर काफी संख्या में लोग स्ट्रॉबेरी की खेती करते हैं। यहां जाकर किसानों के साथ मैंने भी स्ट्ऱॉबेरी को पौधों से निकाला। किसानों के साथ मिलकर एक खेत में थोड़ी देर काम करने के बाद ही ऐसा लगता है असल खुशी तो ऐसे कामों में ही मिलती है।
इसके बाद मैं गया ‘वीना लेक, जहां लोग बोटिंग कर रहें थे। बोटिंग के अलावा यहाँ घुड़सवारी भी होती है। यहां पर घोड़ों के नाम भी क्रिकेटर्स के नाम पर थे, जैसे धोनी, युवराज, सचिन। यहां शाम बिताने के बाद मैं वापस आ पहुंचा होटल और अगले दिन मैंने प्रतापगढ़ जाने की प्लानिंग की।
महाबलेश्वर से प्रतापगढ़ की दूरी 23 किलोमीटर है, लेकिन यह सफर आसानी से यहां की खूबसूरत वादियों को देखते हुए गुजर जाता है। यहां पर मैं पहुंचा ‘शिवकालीन खेडेगांव’। जो अपनी हस्तकला म्यूज़ियम के लिए जाना जाता था। यहां मुझे ग्रामीण संस्कृति देखने को मिली। मूर्तिकला के रूप में औरतें जहां अनाज पीसते हुए नज़र आ रही थीं, वहीं पुरुषों को गाय को चारा खिलाते हुए दिखाया गया था।
आधुनिकता की इस दौर में समय-समय पर जरूरी है कि हम अपने अतीत की ओर जरूर देखें। इस जगह पर आने के बाद आपको एहसास होगा कि पहले की जिंदगी कितनी साधारण और कितनी खूबसूरत थी। हालांकि, भारत देश में ग्रामीण जिंदगी आज भी बड़ी तादाद में है। लेकिन, अक्सर शहरों में रहने वाले लोगों को इस जिंदगी की जानकारी भी नहीं होती।
यह ट्रिप मेरे यादों के पन्नों में शामिल हो चुका है। फिर मिलते हैं अगले सफर पर, तब तक आप पढ़ते रहें सोलवेदा पर आर्टिकल्स और पॉजिटिविटी की तरफ बढ़ाते रहें अपने कदम।