बात 2,500 वर्ष पुरानी है। उस दौरान भटकने वाले तपस्वी ने किशोरी से एक कटोरा चावल लिया था। ऐसा करने पर तपस्वी को एहसास हुआ कि सिर्फ तपस्या के बल पर निर्वाण यानि शून्य स्थिति को हासिल नहीं किया जा सकता। इसके बाद गौतम बुद्ध ने अपने तपस्वी जीवन को छोड़कर आगे बढ़े। वो विशालकाय पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए, वहां पर कई दिन, महीनों तक ध्यान करते रहे। यहीं पर उन्हें अपनी आत्मा का ज्ञान यानि आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई, कुल मिलाकर कहें तो यहीं पर सिद्धार्थ बुद्ध बने थे।
एक व्यक्ति के इस प्रयास ने इतिहास को बदलकर रख दिया। यह वही पल था जब मध्यम मार्ग की उत्पत्ति हुई।
पूर्वी भारत के बिहार राज्य में गया है। वहां से 17 किलोमीटर दूर उसी पीपल के पेड़ का पांचवां सक्सेशन मौजूद है। यह वही पेड़ है जहां गौतम बुद्ध ने ज्ञान की प्रात्पि की थी। यह बात अलग है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ने इस जगह को छोड़कर लोगों को मध्यम मार्ग का ज्ञान देने निकल पड़े थे। लेकिन इसके साथ ही बोधगया बौद्ध धर्म से जुड़े लोगों के लिए खास स्थान या यूं कहें जन्म स्थान बन गया।
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक बोधि वृक्ष को देखने आए, उन्होंने इसके बाद निर्णय लिया कि इस स्थान पर महान मंदिर बनाया जाए। वो प्राचीन मंदिर आज भी वहां मौजूद है। आज के दौर में इस महान मंदिर को महाबोधि मंदिर के रूप में जाना जाता है। यह मंदिर बौद्ध धर्म को मानने वालों के लिए 4 प्रमुख स्थलों में से एक है। पौराणिक कथाओं की मानें तो सम्राट अशोक की पत्नियों में से एक ने इस पेड़ को जलन के मारे काट दिया था। ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि सम्राट अशोक अपना ज्यादातर समय यहीं पर बिताया करते थे।
देश व दुनिया में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग बोध गया को अपने पवित्र स्थलों में से एक मानते हैं। यही वजह भी है कि यहां पर देश-दुनिया से सैलानी आते हैं। आज के समय में यहां पर थाईलैंड, जापान, भूटान, श्रीलंका और तिब्बत के बौद्ध धर्मावलंबियों ने महाबोधि परिसर के पास मंडिर और मठ बनाए हैं।
इस स्थान पर कमल तालाब के साथ मुख्य मंदिर, बोधि वृक्ष और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से 6 अन्य स्थल हैं। इन्हें काफी अच्छे से सुरक्षित रखा गया है। यहां मौजूद हर जगह का अपना धार्मिक महत्व है साथ ही उससे जुड़ी कथाएं भी प्रचलित हैं। ये पौराणिक कहानियां इतनी सही हैं कि लोग अपनी आध्यात्मिक यात्रा में गौतम बुद्ध के चरणों के पीछे खुद ब खुद ही चलने लगते हैं। माना जाता है कि जब गौतम बुद्ध ने निर्वाण की प्राप्ति की थी, सिद्धार्थ बुद्ध बने थे उसके पहले सप्ताह में उन्होंने बोधि वृक्ष के नीचे ही समय व्यतीत किया था। इसके बादे दूसरा सप्ताह उन्होंने अनिमेश लोचन चैत्य में गुजारा था, अब इस स्थान को प्रार्थना कक्ष कहा जाता है। तीसरा सप्हाह उन्होंने रत्नाचक्रमा क्षेत्र में और अपना चौथा सप्ताह रत्नाघर चैत्य में भ्रमण कर गुज़ारा था। 5वें सप्ताह में उन्होंने अजपाला निग्रोध वृक्ष के नीचे बैठकर मेडिटेशन किया व 6ठें सप्ताह में कमल के तालाब के पास बिताया। मनुष्य की आध्यात्मिक खोज के भविष्य को लिखने से पहले, गौतम बुद्ध ने राजतिन वृक्ष के नीचे 7वें और अंतिम सप्ताह को बिताया।
जब आप इस मंदिर कक्ष में जाएंगे तो वहां काफी शांति का एहसास करेंगे। इस दौरान आप देखेंगे कि बौद्ध धर्मावलंबी शांतिपूर्वक मंदिर की परिक्रमा कर रहे हैं, प्रार्थना करने के साथ मेडिटेशन में लीन हैं। यहां आने वाले सैलानियों के लिए पत्थर का वो स्टेज जहां पर बुद्ध ध्यान में बैठे थे, उसे छूने पर मनाही है। लेकिन उस लम्हे को भांपने के लिए कि बुद्ध ध्यान मुद्रा में पलथी मारकर बैठे हैं व ध्यान में लीन है। इस शांतिपूर्ण चित्रण को यहां महसूस किया जा सकता है।
बौद्ध धर्मावलंबी हर साल 8 दिसंबर को इस खास जगह पर बोधि दिवस मनाते हैं। धार्मिक संगम में इस खास दिन देश-दुनिया से लोग यहां जुटते हैं। जैसे ही महाबोधि मंदिर बुदू सरनाई की ध्वनि से गूंजता है, यहां का वातावरण शांतिमय हो जाता है और आपको यहां का मकसद और इसके बारे में बताता है।
यह धार्मिक स्थल न सिर्फ इतिहास को समेटे हुए है बल्कि यह वो स्थान है जहां बुद्ध जैसे गाइड ने लोगों को मुक्ति का मध्यम मार्ग दिखाया। बल्कि ये ऐसा स्थान है जहां पर आकर आप आध्यात्मिकता को करीब से महसूस कर सकेंगे व जीवन में बुद्ध के मार्ग पर चलने की प्रेरणा हासिल कर सकेंगे।