बचपन की यादें जब चुभती हैं

बचपन की यादें जब सताती हैं

बच्चों का बचपन संवारने की जिम्मेदारी हमारी होती है। हमें अपने मतभेद, आक्रामकता, हिंसा, क्रोध से बच्चे का बचपना कड़वी यादों से नहीं भरना चाहिए।

बच्चे कुम्हार की गीली मिट्टी जैसे होते है, उन्हें जो भी आकार देंगे उसमें ढल जाएंगे। एक नवजात शिशु इस दुनिया में चमकीली आंखों के साथ मासूमियत लेकर आता है, जिसके बाद माता-पिता उसकी देखभाल करते हैं। उसे सुरक्षा, प्यार और भरोसे का एहसास कराते हैं। माता-पिता से ही बच्चे भाषा और ज्ञान पाते हैं। बच्चे हर अनुभव को आत्मसात करते हैं। वे अनुभव सकारात्मक या नकारात्मक हो सकते हैं। फिर धीरे-धीरे वे बड़े होते हैं और आपके द्वारा सिखाए गए व्यवहार को ही दोहराते हैं।

बचपन में बच्चे जिस भी दौर से गुज़रते हैं, वह उनके मस्तिष्क में आत्मसात हो जाता है। वे जो देखते हैं, वैसे बन जाते हैं। जब माता-पिता प्यार से बच्चे की परवरिश एक स्वस्थ माहौल में करते हैं, तो बच्चा उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ता है और उनके प्रति जिम्मेदार होता है। वहीं दूसरी तरफ, अगर एक खराब नकारात्मक माहौल में बच्चा बड़ा हो रहा है, तो वयस्क होने के बाद एक खराब व्यवहार वाला व्यक्ति बनेगा। ऐसा भी हो सकता है कि उसे मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़े।

कई वयस्क लोगों के पास तो अपने बचपन की बुरी यादें भी होंगी, जो दर्द देती होंगी। उन दर्दनाक यादों ने ही हमारा भविष्य तय किया है। इसके दूसरे पक्ष को समझें, तो जिन्होंने अपने जीवन को जीने के लिए संघर्ष किया है, उपेक्षा या दुर्व्यवहार को सहा है, वे या तो वैसे ही बन गए या खुद के अंदर सकारात्मकता लेकर आए। चाइल्ड न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट डॉ. अकिला सदासिवन इस बात पर अपने विचार रखते हुए कहती हैं कि, “जब किसी दंपति में लड़ाई-झगड़े होते हैं, तब इसका सीधा प्रभाव बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है, जिससे पूरा परिवार प्रभावित होता है। जाने-अनजाने यह बीमारी (शारीरिक या मानसिक), बुरी आदतों, आदि का कारण बनते हैं। माता-पिता द्वारा इस तरह का व्यवहार बच्चे को सामान्य माहौल देने में नकारात्मक भूमिका निभाते हैं, जो बच्चे के भविष्य के लिए काफी नुकसानदायक साबित हो सकता है।

वयस्क अपनी नासमझी के कारण नन्हें-मुन्ने बच्चों के मन में ज़हर घोल देते हैं। जब भी कभी घर का माहौल (Ghar ka mahol) खराब होता है, तो इसका असर परिवार के हर सदस्य के ऊपर पड़ता है। लेकिन, सबसे पहले बच्चे प्रभावित होते हैं, क्योंकि उनकी कच्ची उम्र सही और गलत के बीच में फर्क नहीं कर पाती है। इसके बाद बच्चों में गुस्से की भावना दिखना एक सामान्य बात होती है। न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट डॉ. सदासिवन बताती हैं कि, “हिंसा, मारपीट, गुस्से या आक्रामक व्यवहार का सामना करने के बाद बच्चे या तो हिंसक व्यवहार करते हैं या फिर वे डिप्रेशन में चले जाते हैं। उनमें आत्मविश्वास कम होने लगता है। उपेक्षित होने के कारण वे खुद को तुच्छ समझने लगते हैं। ये भावनाएं वयस्क होने के बाद भी उनमें बनी रहती हैं।”

लावण्या नारायण, 25 वर्षीय एक मीडिया प्रोफेशनल हैं। वह बताती हैं कि उनकी परवरिश एक खराब माहौल में हुई थी। टीनएजर होने के बाद भी वह अपने पिता के गुस्से व हिंसा की शिकार हुई हैं। वह अपने बारे में बताती हैं कि, “जब वह सिर्फ 12 साल की थी, तब पहली बार अपने पिता के गुस्से का सामना किया था। मेरे पिता ने मुझे मारा था, क्योंकि उन्हें पता चला था कि मैं एक लड़के को पसंद करती हूं। इसके बाद से परीक्षा में मार्क्स कम आने पर या वेस्टर्न ड्रेस पहनने पर या कोई टीवी शो देखने पर भी मार पड़ जाती थी।”

एक टीनएजर होने के बावजूद उनके पेरेंट्स ने उनके साथ हिंसा की, जिसके बाद से लावण्या हमेशा चिंता और डर में रहने लगी। इसके परिणामस्वरूप वह अपने ही माता-पिता से झूठ बोलने लगी और कुछ भी शेयर करने से डरने लगी। फिर जब वह अपने घर से बाहर निकलीं, तब उन्होंने अपनी मानसिक समस्या को हल करने के लिए चिकित्सा का सहारा लिया।

लावण्या अकेली नहीं है, उसके जैसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं। लावण्या के केस में, भावनात्मक नुकसान हिंसा के कारण स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था, लेकिन उनका क्या जिनके साथ कोई शारीरिक हिंसा नहीं हुई, फिर भी वे भावनात्मक क्षति को सहते हैं। एक भजन में कहा गया है कि ‘भर सकता है घाव तलवार का, बोली का घाव भरे ना’, जिसका अर्थ है कि शारीरिक हिंसा तो वक्त बीतने के साथ भर जाते हैं, लेकिन भावनात्मक नुकसान की भरपाई नहीं हो पाती है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, रिवरसाइड ने एक स्टडी पाया कि भावनात्मक तौर पर क्षति का सामना करने वाले व्यक्ति का व्यवहार हमेशा के लिए तनाव से भरा हो सकता है। ऐसे लोग चिंता, अवसाद और उदासीनता का भी सामना कर सकते हैं।

वयस्कों में तो तनाव की स्थिति को संभाला जा सकता है, लेकिन बच्चों के जीवन में इस प्रकार की उदासीनता बहुत हानिकारक होती है। ऐसी स्थिति में माता-पिता के सिर पर दोष मढ़ना उचित नहीं है। माता-पिता कभी-कभी अनजाने में बच्चे के जीवन को सुधार नहीं पाते हैं और स्थिति उनके हाथ से बाहर निकल जाती है। हर्षिका उदासी के पास एक 10 साल का बेटा है। हर्षिका ने देखा है कि बेटा हमेशा उनकी नकल करता है। एक माता होने के नाते वह अपना विचार साझा करते हुए कहती हैं कि, “जब कभी भी मेरी नोक-झोंक पति के साथ होती है, तब न चाहते हुए भी हमारी आवाज़ ऊंची होने लगती है। अगले ही पल हमें अपने गलत होने का एहसास होता है। क्योंकि हमारा आक्रामक व्यवहार हमारा बेटा आत्मसात करके हम जैसा ही बन सकता है। इसलिए, मैं हर दंपती को सुझाव दूंगी कि वे अपने बच्चे के सामने कभी भी गंभीर संवाद न करें। यदि आपसे ऐसी गलती हो भी जाए, तो अपने साथी से बच्चे के सामने तुरंत माफी मांगें।”

हर्षिका का ये सुझाव बच्चों के बचपन को बेहतर करने के लिए एक अच्छा कदम है। ऐसा करके माता-पिता न सिर्फ एक सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं, बल्कि अपने बच्चे को भविष्य के लिए एक अच्छे इंसान के रूप में तैयार कर रहे हैं। लेकिन, दुख की बात तो यह है कि, ज्यादातर परिवारों में बहस खुलेआम बच्चों के सामने होती है, जिसमें माता-पिता के बीच सर्वश्रेष्ठ होने की बहस छिड़ी होती है। जो बच्चे के अचेत मन में भी घर कर जाती है और बच्चों का व्यक्तित्व भी वैसा ही हो जाता है।

बालमन स्पंज की तरह होता है, किसी भी चीज़ को अवशोषित कर लेता है। किसी भी प्रकार की संवेदना को बच्चे आसानी से आत्मसात कर सकते हैं। इसलिए, घर हो या बाहर, कहीं भी बच्चों को नकारात्मक अनुभव से बचा पाना नामुमकिन है। लक्ष्मी एस, 6 साल के बेटी की मां हैं, उन्होंने इस तरह की नकारात्मकता से अलग तरीके से निपटना सीखा है। वह बताती हैं कि, ‘हमारी उम्मीद से परे, बच्चे अधिक बुद्धिमान और होशियार होते हैं। हमारी सारी बातों को वे बखूबी समझते हैं। इसलिए हम अपने संवाद बेटी के सामने करते हैं, जिसमें हम अपनी बेटी को अपनी राय देने के लिए कहते हैं। हमारी यह प्रैक्टिस उसे जिम्मेदार बना रही है और अब वह किसी भी काम के लिए अपनी जिम्मेदारी समझती है।

इससे यह साफ होता है कि पारिवारिक समस्याओं को खत्म तो नहीं किया जा सकता है, लेकिन उसका एक समाधान ज़रूर निकाला जा सकता है। खासकर के अपने व्यवहार पर ध्यान देकर, जिसका प्रभाव बच्चे के बचपन पर ना पड़े। इसलिए छोटी बातों को लेकर परिवार में एक सामूहिक विचार-विमर्श होना चाहिए, जिसमें बड़ों के साथ बच्चे भी शामिल हो। लेकिन इस बात का ज़रूर ध्यान रखें कि आप किस मुद्दे पर बात कर रहे हैं? मुद्दा बड़ा है या छोटा है? बच्चों के सामने विचार करने लायक है या नहीं? यदि मुद्दा बड़ा है, तो आपको एकांत में बात या बहस करनी चाहिए, ताकि इसका असर बच्चे पर ना पड़े। आप एक बच्चे को बेहतर भविष्य तब ही दे सकते हैं, जब आप स्वयं को कुछ परिधियों में बांध लें कि आपको कहां, कब कैसे बात करनी है। लेकिन, यदि आपसे गलतियां हो चुकी हैं, तो आप अपने बच्चे की बुरी यादों को खत्म करने की कोशिश करें। हो सके तो चिकित्सा की मदद लें।

हर अंधेरी रात के बाद एक उजली सुबह होती है। इसलिए हमारे अतीत का अंधेरा हमारे वर्तमान से कोसों दूर होना चाहिए। यदि आपके जीवन में कुछ कड़वी यादें जुड़ी हैं, तो उनसे उबरने की कोशिश करें। माफ करने वाला हमेशा बड़ा होता है, इसलिए अपने बड़ों को माफ करें। जीवन की नई शुरुआत करें। ध्यान रखें शुरुआत चाहें कहीं से भी हो, हमेशा नई होती है।

एक स्वस्थ भविष्य के लिए आपको अपने अतीत से आने वाली बुरी यादों के दरवाजों को बंद कर लेना चाहिए और अच्छे जीवन के उम्मीद की खिड़की खोल देनी चाहिए। जीवन का आनंद लें (Jeevan ka anand) और स्वस्थ रहें।

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