कबीर दास के दोहों और रचनाओं में छिपा है जीवन का सार

घर में और आसपास के धार्मिक स्थलों पर कबीर दास के दोहों (Kabir Das ke Dohe) को सुनते ही मन खो सा जाता है। इनके दोहों की बात ही अलग है, इसमें जीवन की सच्चाई नज़र आती है। कबीर दास उन लोगों में से थे, जिन्हें सभी धर्मों के लोग पसंद करते थे, वहीं उनकी रचनाएं न केवल सीख देती हैं, बल्कि आध्यात्मिक व इंसानियत का भी पाठ पढ़ाती हैं।

यदि आप भारतीय हैं, तो आपके साथ भी ये ज़रूर हुआ होगा। घर में या फिर कहीं बाहर जाने पर कबीरवाणी सुनते-सुनते आप बड़े हुए होंगे। आज भी जब भी हमारे कानों में कबीर दास के दोहे सुनाई देते हैं, तो बरबस ही ध्यान उस ओर खींचा चला जाता है। कबीर दास न केवल भारत के महान कवियों में से एक थे, बल्कि वे संत थे। यही वजह भी है कि उनके नाम के आगे संत लगाए जाने की परंपरा है। वहीं उनकी रचनाओं व बातों से जो लोग प्रभावित हुए व उनके मार्गदर्शन की दिशा में बढ़ रहे हैं उन्हें कबीर पंथी कहते हैं। कबीर दास की रचनाओं की बात करें, तो इन्होंने सखी ग्रंथ, कबीर ग्रंथावली, बीजक, अनुराग सागर जैसी महान ग्रंथों की रचनाएं की हैं। इनकी लिखी पुस्तकों में दोहों और गीतों का संग्रह है, इनके प्रसिद्ध रचनाओं की बात करें, तो उनमें रेख्ता, सुखनिधान, पवित्र आगम, सखियां, सबदास, मंगल, वसंत सहित अन्य हैं। कहा जाता है कि कबीर दास अनपढ़ थे, उन्होंने जो कुछ भी सीखा अपने गुरु महात्मा रामानंद से ही सीखा।

कबीर दास ने बेहद ही सरल भाषा में बातों को पहुंचाया (Kabir Das ne behad hi saral bhasha main baton ko pahnuchaya)

कबीर दास ने सरल भाषा में ही अपने संदेश के देश-दुनिया तक पहुंचाया था। उनकी भाषा में अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी, पंजाबी, ब्रज की झलक देखने को मिलती है। ऐसे में विद्वान उनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी और सधुक्कड़ी भाषा कहते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा का नाम दिया है। वहीं श्याम सुंदर दास ने उनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी का नाम दिया।

संत कबीर दास का जन्म 1440 में उत्तर प्रदेश के मघर में हुआ था। वहीं लखनऊ के पास महगर में इनकी मृत्यु 1518 में हुई, इनकी मृत्यु को लेकर कई कहानियां है। उस समय में माना जाता था कि जिसकी मृत्यु काशी (Kashi) में होती है, वो सीधे स्वर्ग जाता है। लोगों की इसी धारणा को तोड़ने के लिए उन्होंने एक दोहा भी लिखा, जो कबीरा काशी मुए को रमे कौन निहोरा। इसका अर्थ ये है कि काशी में ही मृत्यु होने मात्र से स्वर्ग जाया जा सकता है, तो फिर अपने ईष्ट देव व भगवान की पूजा करने की क्या आवश्यकता है। इनके अन्य प्रसिद्ध दोहे और उनके अर्थ को जानते हैं।

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।

कबीर दास जी इस दोहे के ज़रिए ये बताना चाहते हैं कि खजूर का पेड़ बड़ा तो होता है, लेकिन उसके बड़े होने का लाभ नहीं मिलता। क्योंकि उसकी पत्तियां इतनी घनी नहीं होती कि किसी को छाया दे पाएं, वहीं उसका फल भी बहुत ऊंचा होता है। ऐसे में बड़े होने का तबतक कोई फायदा नहीं है, जबतक हम दूसरों को कोई फायदा न दे पाएं।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोए।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।

कबीर दास जी अपने इस दोहे के ज़रिए ये संदेश देना चाहते हैं कि लोगों को हमेशा दूसरों के साथ प्यार से बात करना चाहिए। लोगों को हमेशा इस तरीके से बोलना चाहिए, जिससे सामने वाला जो हमारी बात को सुन रहा है उसके मन को अच्छा लगे। इससे न केवल सामने वाला व्यक्ति खुश होगा, बल्कि आप भी खुशी का एहसास करेंगे।

सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज।
सात समुद्र की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाए।।

कबीर दास जी ने इस दोहे के ज़रिए गुरु का बखान किया है। इस दोहे के ज़रिए उनका कहना है कि जितनी बड़ी ये धरती है उतना बड़ा कागज़ ही क्यों न बना लें, इस दुनिया में जितने भी पेड़ हैं उनसे कलम ही क्यों न बना लें, पृथ्वी पर सात समुद्रों के बराबर स्याही ही क्यों न बना लें फिर भी गुरु के गुणों को शब्दों में लिख पाना असंभव है। गुरु के गुण को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता मान।।

इस दोहे के ज़रिए कबीर दास जी ये संदेश देना चाहते हैं कि गुरु की शिक्षा अनमोल है। बताते हैं कि शरीर जहर से भरा हुआ है, वहीं दूसरे ओर गुरु अमृत की खान के समान हैं। अगर आपको अपना सिर देने पर भी गुरु मिल रहे हैं, तो उसकी कीमत भी गुरु की शिक्षा के आगे कुछ भी नहीं। सिर कटाने पर भी यदि गुरु मिलते हैं, तो वो भी उनकी शिक्षा के आगे सस्ता है।

गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय।।

इस दोहे के ज़रिए कबीर दास जी ने गुरु के दर्जे की व्याख्या की है। बताते हैं कि यदि एक स्थान पर गुरु और भगवान दोनों ही खड़ें हैं, तो उस स्थिति में आप किसके पैर छूएंगे। गुरु ही वो हैं, जो हमें ज्ञान देकर भगवान से मिलाते हैं, ऐसे में गुरु का दर्जा भगवान से भी ऊपर है, ऐसे में हमें पहले गुरु के पैर ही छूने चाहिए।

ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि कबीर दास के दोहों में जीवन का सार छिपा है।