हिंदी साहित्य (Hindi literature) को तो वैसे तो सैकड़ों लेखकों ने अपनी लेखनी से समृद्ध किया है, लेकिन इन रचनाकारों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (Ramchandra Shukla) का विशेष योगदान रहा है। देश के जाने-माने साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी लेखनी से साहित्य जगत में नई क्रांति लाई थी। 20वीं शताब्दी के दौर में हिंदी साहित्य के इतिहास के लेखक के रूप में इनकी ख्याति अतुलनीय है। प्रसिद्ध साहित्यकार के साथ-साथ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार और अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पैदाइश उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना गांव में एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में हुई थी। उनके पिता चन्द्रबली अपने ज़जमाने के जाने-माने राजस्व निरीक्षक (Revenue Inspector) यानी कानूनगो थे। नौकरी के दौरान उनकी तैनाती उत्तर प्रदेश के ही मिर्जापुर में हुई थी। लिहाजा, पिता की नौकरी के चलते उनका पूरा परिवार गांव से निकलकर मिर्जापुर में आकर रहने लगा। जब रामचन्द्र शुक्ल महज नौ साल के थे, तभी उनकी माता का निधन हो गया। छोटी उम्र में ही सिर से मां का साया उठने से उनके बालमन पर गहरा असर पड़ा। वे काफी मायूस हो गए थे। लेकिन, किसी तरह उनके परिवारवालों ने उन्हें हिम्मत दी।
उसकी प्रारंभिक शिक्षा घर में ही पूरी हुई,। क्योंकि, उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने-लिखाने के लिए घर पर ही एक शिक्षक की व्यवस्था कर रखी थी। घर आने वाले शिक्षक से ही उन्होंने न केवल हिंदी, बल्कि अंग्रेजी और उर्दू भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। बाद में उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए मिर्जापुर के जुबली स्कूल में दाखिला ले लिया। फिर मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से साल 1901 में उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा पास की। बाद में उच्च शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद आ गए।
उनकी दिली ख्वाहिश थी कि वे भी कानून की पढ़ाई कर वकालत के पेशे को अपनाएं। लेकिन, उनका मन ज़जरा-सा भी वकालत में नहीं लगता था। साहित्य की तरफ उनका गहरा रुझान था। इसका नतीजा यह हुआ कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल एलएलबी की प्रवेश परीक्षा में असफल रहे।
लंदन मिशन स्कूल में की आर्ट टीचर की नौकरी (London mission school mein ki art teacher ki naukari)
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रथम रचना साल 1896 में ‘आनंद कादंबिनी’ में भारत और बसंत नाम से प्रकाशित हुई थी। वहीं, उनकी कहानी महज़ज 11 साल की उम्र में साल 1903 में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी, जो हिंदी की प्रारंभिक सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से है। उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ी बोली में फुटकर कविताएं लिखीं। वहीं, 17 साल की उम्र में उनकी एक कविता और ‘प्राचीन भारतीयों का पहिरावा’ लेख हिंदी में और अंग्रेजी में ‘वाट हैज इंडिया टू डू’ लेख प्रकाशित हुआ। इसके बाद वे लेखन के क्षेत्र में पूरी तरह समर्पित हो गए।
साल 1903 से 1908 तक उन्होंने आनंद कादंबिनी पत्रिका के सहायक संपादक के रूप में कार्य किया। इसके साथ-साथ उन्होंने 1904 से 1908 तक मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल में आर्ट टीचर के रूप में नौकरी भी की। वे इतने प्रतिभावान थे कि वेउन्होंने नायब तहसीलदार यानी सब डिविजनल मजिस्ट्रेट की नौकरी के लिए भी चुन लिए गए। हालांकि, जल्द ही उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। उनके जीवन का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। यह वही समय था, जब उनके लेख देश के प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। साल 1908 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें हिंदी शब्दसागर के सहायक संपादक की ज़िम्मेदारीजिम्मेवारी सौंपी, जिसे उन्होंने बखूबी पूरा भी किया।
वे नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भी संपादक रहेंरहे। संपादन के क्षेत्र में नाम कमाने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय स्तर पर भी अध्यापन का कार्य किया। साल 1919 में वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय से जुड़ गए और वहां अध्यापन करने लगे। अध्यापन के दौरान वे साल 1937 में हिंदी विभाग के अध्यक्ष पर भी रहेंरहे।
1939 में पहली बार की निबंधात्मक ग्रंथ की रचना (1939 mein pahli baar ki nibandhatmak granth ki rachna)
रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य के एक आलोचक के साथ-साथ प्रख्यात निबंधकार भी थे। साल 1939 में उन्होंने ‘चिंतामणि’ की रचना की। यह काव्य की व्याख्या करने वाला निबंधात्मक ग्रंथ है। इसके अलावा उन्होंने कुछ अन्य निबंध की भी रचना की, जिनमें मित्रता, अध्ययन आदि प्रमुख हैं। निबंधों के अलावा आचार्य जी ने ऐतिहासिक रचनाएं भी कीं की। इसमें हिंदी साहित्य का इतिहास उनका अनूठा ऐतिहासिक ग्रंथ है। उन्होंने इतिहास लेखन में रचनाकार के जीवन और पाठ को समान रूप से महत्व दिया।
शुक्ल जी के निबंधों की यह खासियत रही है कि उनके निबंधों में सुगठित विचार- परंपरा स्पष्ट तौर पर देखने को मिल जाती है। पाठक निबंध को पढ़ते समय एक विचार से दूसरे विचार तक सहज रूप से पहुंच जाते हैं। इसकी वजह यह है कि उनके निबंधों के विचार शृंखलावत सुसंबद्ध हैं। कहीं पर कोई बिखराव नहीं दिखता है।
आचार्य जी को रहा है प्रकृति से अत्यधिक लगाव (Acharye ji ko raha hai prakriti se atyadhik lagav)
आचार्य जी को प्रकृति से खासा प्रेम था। उन्होंने अपने विभिन्न रचनाओं में जहां कहीं भी अवसर मिला है, प्रकृति का मनोहारी वर्णन किया है। उन्होंने पर्वत की ऊंची चोटियों की भव्यता का भी बखूबी वर्णन किया है। साथ ही वायु से विलोड़ित जल प्रसार का भी, आकाश के घने काले बादल, सान्ध्यकालीन-चालिमा का सौंदर्य, ग्रीष्म ऋतु से तिलमिलाती धरा, बिजली की कांपने वाली कड़क आवाज़ आदि प्रकृति के विभिन्न रूप उनको काफी आकर्षित करते रहेंहैं।
आचार्य जी की प्रमुख रचनाएं (Acharye ji ki pramukh rachnayein)
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की अनुवादित कृतियों में शशांक बांग्ला से अनुवादित उपन्यास और अंग्रेजी से आदर्श जीवन, मेगस्थनीज का भारतवर्षीय वर्णन, कल्पना का आनंद, आदि रचनाएं प्रमुख हैं। आचार्य शुक्ल ने एडविन अर्नोल्ड की ‘द लाइट ऑफ एशिया’ का बुद्ध चरित और जर्मन विद्वान अर्नस्ट हेकेल की प्रसिद्ध ‘कृति द रिडल्स ऑफ यूनिवर्स’ का विश्व प्रपंच नाम से अनुवाद किया।
संपादित ग्रंथों में हिंदी शब्दसागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भ्रमरगीत सार, सूर, तुलसी, जायसी ग्रंथावली उल्लेखनीय हैं। हिंदी में पाठ आधारित वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात्र उन्हीं ने किया। हालांकि, आचार्य रामचंद्र शुक्ल नियमित कहानीकार नहीं थे। इसके बावजूद उन्होंने हिंदी में लंबी-लंबी कहानियां लिखीं। उनकी रचनाएं आज भी विभिन्न विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिंदी के पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जाती हैं। लेकिन, दुर्भाग्यवश हृदय गति रुकने से हिंदी साहित्य के महान रचनाकार का निधन हो गया। इनकी साहित्यिक उपलब्धियों को देखते हुए साल 1972 में उनके नाम पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य शोध संस्थान की नींव रखी गई, जहां हज़ारोंहजारों शोधार्थी शोध कार्यों और उनके कार्यों को पढ़ने-समझने के लिए आते हैं।
इस आर्टिकल में हमने बीसवीं शताब्दी के प्रमुख साहित्यकार रामचन्द्र शुक्ल और उनकी रचनाओं के बारे में बताया है। इसी तरह और भी आर्टिकल पढ़ने के लिए पढ़ते रहें सोलवेदा हिंदी पर बनें रहें।