दुनिया का सारा सुकून पहाड़ों और समंदर के हिस्से नहीं आया है, कुछ सुकून तो लिखने वालों ने भी चुराया है। कुछ ऐसा ही लगता है जब आपकी निगाहें गुलज़ार की कविताओं, नज़्मों और कहानियों पर जाती हैं। इन्हें पढ़कर ऐसा सुकून मिलता है जैसे मानो किताब के काले अक्षरों में ही पहाड़ की ठंडक हो और समंदर की शांति भी। जैसे इनके लिखे में एक चुंबकीय आकर्षण हो जो हमारे अंदर की सारी परेशानी और बेचैनी को सोख लेती हो।
आप गुलज़ार को जितना अधिक पढ़ेंगे, आपको उतनी बार लगेगा कि वो ‘कलम के जादूगर’ हैं। एक ऐसा जादूगर, जो कई सालों में एक बार जन्म लेता हो। उनके लिखे में जितनी सादगी है, उतनी ही गहराई भी। कोई चाहे तो पढ़कर खुश हो जाए और कोई चाहे तो पढ़कर शब्दों में डूब जाए।
कवि गुलज़ार की कविताएं ज्यादातर ‘प्यार’ पर होती हैं। गुलज़ार पोएट्री के शौकीन रहें हैं। आपने फिल्मों में ‘प्यार’ पर उनके लिखे गीत, नज़्म आदि कई बार पढ़े और सुने होंगे। लेकिन, आज हम उनकी उन कविताओं को पेश करने जा रहें हैं, जो उन्होनें प्रकृति के प्रेम में लिखीं हैं।
झरने से लेकर कुएं तक, उनकी लिखी कविताओं में प्रकृति से जुड़ी कई चीजों का जिक्र है। इन्हें पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि गुलज़ार सिर्फ ‘प्यार’ को समझते हैं, अब चाहे वो इंसान से हो या प्रकृति से। उनकी प्यार पर लिखी और प्रकृति पर लिखी कविताओं के शब्दों में अंतर जरूर है, लेकिन शब्दों में छिपे प्यार में कोई अंतर नहीं है।
गुलज़ार की कविताएं, जिनमें दिखता है प्यार और प्रकृति का मेल:
सितंबर
सितंबर के दिनों में..
आसमां हर साल बीमार रहता है
एलर्जी है कोई शायद
सितंबर आते ही बारिश का पानी सूखने लगता है और
बादल के टुकड़े, मैले गंदे पोतड़ों
जैसे पड़े रहते हैं, रूखी चिड़चिड़ी सी धूप में दिन भर…
छपाकी सी निकल आती है, शाम होते ही सारी पीठ पर
और लाल हो जाता है इक हिस्सा फलक का जैसा जहरीले
किसी बिच्छू ने काटा हो।
कई दिन खांसता है आसमां और लाल, काली आंधी चलती है
बहुत बीमार रहता है सितंबर के दिनों में आसमां मेरा!
चलो इन बादलों की सारी परतें छील के देखें
चलो इन बादलों की सारी परतें छील के देखें
ज़रूर इन के लबादों में
कहीं पोशीदा जेबें भी लगी होंगी
टटोलें इनकी जेबें…और देखें
कहां पानी की बूंदें हैं?
कहां ओले छुपाए हैं?
कहां रखते हैं डमरू? जब बजाते हैं तो बच्चे चौंक जाते हैं
किसी इक ‘बेल्ट’ में बिजली का हंटर भी छुपा होगा
हवाओं के गुब्बारे भी भरे होंगे
तुम्हें लगता नहीं बादल बड़े शातिर मदारी हैं।
दरख्त सोचते हैं जब, तो फूल आते हैं
दरख्त सोचते हैं जब, तो फूल आते हैं
वो धूप में डुबो के उंगलियां
ख्याल लिखते हैं, लचकती शाखों पर
तो रंग रंग लफ्ज चुनते हैं
खुशबुओं से बोलते हैं और बुलाते हैं
हमारे शौक देखिए…
कि गर्दनें ही काट लेते हैं
जहां कहीं महकता है कोई
फ़िज़ा ये बूढ़ी लगती है
फ़िज़ा ये बूढ़ी लगती है
पुराना लगता है मकां…
समंदर के पानियों से नील अब उतर चुका
हवा के झोंकें छूते हैं तो खुरदुरे से लगते हैं
बुझे हुए बहुत से टुकड़े आफताब के,
जो गिरते हैं ज़मीं की तरफ तो ऐसा लगता है
कि दांत गिरने लग गए हैं बुड्ढे आसमां के!
फ़िज़ा ये बूढ़ी लगती है
पुराना लगता है मकां…!
कभी कभी यूं भी होता है ऊंचे पहाड़ों पर
कभी-कभी यूं भी होता है ऊंचे पहाड़ों पर
चांद निकल कर देखता है अब कितनी बर्फ गिरी है
मौसम ठीक लगे तो एक एक कर के तारों को बुलवाता है
कुछ ऊन पहन कर आते हैं, कुछ कुछ कांपते कांपते,
उसकी आंख से ओझल होकर छुप भी जाते हैं!
आधी रात होते होते जब आसमान भर जाता है
“हुश हुश” की आवाजें आने लगती हैं
और गड़रिया हांक के ले जाता है अपने तारों को!
पहाड़ों से बिछड़ के लौटता हूं तो
पहाड़ों से बिछड़ के लौटता हूं तो
कई दिन तक उतरता रहता हूं उनसे,
खला में लटका रहता हूं
कहीं पांव नहीं पड़ते!
बहुत से आसमां बांहों में भर जाता है
वो नीचे नहीं आता
हवाएं फूल जाती हैं, पकड़ के पसलियां मेरी
कभी राते उठा लेती हैं बगलों से
कभी दिन ठेल देते हैं हवा में…
कई दिन तक मेरे पांव नहीं लगते ज़मीं से!!
आदतन
आदतन
झूठ बोलता है ‘रेन ट्री’
सर पे खुश्क आसमान है मगर
उसके नीचे की ज़मीन, भीगी रहती है!
गुज़र चुका है मौसमे बहार भी
खिज़ां गिराती फिर रही है पत्ते दौड़ दौड़ कर
और ये, कैसे इत्मीनान से
रंग में डुबो डुबो के
फूल रख रहा है शाख शाख पर
इस की शायराना आदतों का कोई क्या करे
आदतन…झूठ बोलता है रेन ट्री!!
नए नए ही चांद पे रहने आए थे
नए नए ही चांद पे रहने आए थे
हवा न पानी, गर्द, न कूड़ा
न कोई आगाज, न हरकत
ग्रेविटी बिन तो पांव नहीं पड़ते हैं कहीं
अपने वजन का भी अहसास नहीं होता!
चलते हैं
जो भी घुटन है, जैसी भी हो
चल के ज़मीं पर रहते हैं!!
धूप की उंगलियां जब शाखों से छन कर
धूप की उंगलियां जब शाखों से छन कर
पेड़ की जांघों को सहलाती है झुक कर
मैंने देखा है उन्हें शर्म से नम और शिकायत करते
लोग बदलफालियां भी करते हैं, और…
नाम लिख जाते हैं चाकू से मेरी जांघों पर!
भ, च, बाज़ नहीं आते उन्हें लाख कहे!!
इतनी छोटी दुबली-पतली सी पगडंडी
इतनी छोटी दुबली-पतली सी पगडंडी
रोज़ पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाती है!
और इतनी चौड़ी तारकोल के पक्की सड़क है
कितने बल खाती है लेकिन
ऊपर तक वो जा नहीं सकती!!
बारिश
पानी का पेड़ है बारिश, जो पहाड़ों पे उगा करता है
शाखें बहती है, उमड़ती हुई, बल खाती हुई
बर्फ के बीज गिरा करते हैं
झरने पकते तो झुमकों की तरह झूलने लगते हैं कोहस्तानों
बेलें गिरती हैं छतों से
मौसमी पेड़ है मौसम में उगा करते हैं!
ऊपर लिखीं गुलज़ार की कविताएं उनकी किताब Green Poem से ली गईं हैं जो अंग्रेजी में है। इनका अनुवाद पवन.के.वर्मा ने किया है। ऐसी ही और खूबसूरत कविताएं पढ़ते रहें सोलवेदा हिंदी पर।