एक दिन सुबह कॉलेज जाते वक़्त मुझे कोई भी टैम्पो खाली नहीं मिला। किसी दूसरे टैम्पो का इंतज़ार करने का भी वक़्त नहीं था, इसलिए मैंने रिक्शा ले लिया। ज़्यादातर लोगों की तरह मैं भी रिक्शा लेने से इसलिए भी कतराती थी, क्योंकि रिक्शा चालक को रिक्शा खींचने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है, वक्त भी बहुत लगता है।
“बेटा कितने बजे छुट्टी होती है तुम्हारी?” रिक्शे वाले अंकल ने पूछा, “बता दो लेने आ जाऊंगा” उन्होंने आगे कहा।
“दो बजे।” मैंने जबाव दिया। मैं कॉलेज से तीन बजे फ्री होती थी, पर फिर भी मैंने उनसे झूठ कह दिया। मुझे लगा कि, “कौन फिर से रिक्शा में घसीटते हुए आए। इससे अच्छा तो टैम्पो लूंगी और आराम से घर पहुंचूंगी।
मैं तीन बजे कॉलेज से निकली तो वो रिक्शे वाले अंकल वहीं खड़े थे। उन्हें देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि ये सच में मेरा एक घंटे से इंतज़ार कर रहे हैं। तभी मेरे सामने एक टैम्पो आकर रुका और एक नज़र उस रिक्शे वाले को देखते हुए, मैं टैम्पो में बैठ गई।
दूसरे दिन पता चला कि, टैम्पो वालों की हड़ताल है और मुझे उसी रिक्शा में बैठना पड़ा।
“बेटा लोग आजकल रिक्शा नहीं लेते, जिससे हमारी आमदनी मुश्किल हो जाती है।” उन्होंने कहा, तो मैंने “हम्म” में जवाब दे दिया।
कॉलेज से लौटते वक़्त भी मुझे उन्हीं ने घर तक छोड़ा।
दूसरे दिन भी मुझे उन्हीं के रिक्शा में बैठना पड़ा। उन्होंने मुझसे कहा कि वो रोज़ मुझे मेरे कॉलेज से घर और घर से कॉलेज छोड़ दिया करेंगे। मैंने भी सोचा सही ही है, रोज़-रोज़ टैम्पो-रिक्शा ढूंढने के झंझट से ही बचूंगी और मैंने हां कर दी। फिर वो रोज़ मुझे लेने आ जाते थे।
एक बार, मैं कुछ दिनों तक बीमार रही और कॉलेज नहीं जा पायी।
ठीक होकर जब कॉलेज के लिए निकली तो वो अंकल कहीं नहीं दिखे। और एक चौदह या पंद्रह साल का लड़का रिक्शा लेकर मेरी तरफ आ गया।
“दीदी प्लीज़ मेरे रिक्शा में बैठ जाओ। मुझे कल से कोई सवारी नहीं मिली।” उसने इतने प्यार से विनती की कि मैं खुदको रोक नहीं पायी और उसके रिक्शे में बैठ गई।
वो छोटा सा लड़का रिक्शा खींचने में अपनी पूरी जान लगा रहा था, जो मुझसे देखा नहीं जा रहा था।
“तुम कब से रिक्शा चला रहे हो” मैंने पूछा तो उसने रिक्शा रोक कर एक गहरी सांस ली। “मैं रिक्शा नहीं चलाता, स्कूल जाता हूं। वो तो दो दिन से मेरे पापा ने रिक्शा चलाना बंद कर दिया है, इसलिए मैं रिक्शा ले आया हूं।” उसने अपनी सर्ट उतार कर उससे अपना पसीना पोंछा और सर्ट को मेरे बगल में सीट पर रख दिया।
“तो तुम्हारे पापा ने रोका नहीं तुम्हें रिक्शा लाने से?” मैंने पूछा।
“हां रोका था ना। पर भूख और ज़रुरत भी कोई चीज होती है। यहां रिक्शे वालों को दिन में दो सवारी भी नहीं मिलती, क्योंकि लोग टैम्पो से जाना पसंद करते हैं। मेरे पापा कॉलेज जाने वाली किसी लड़की को रोज़ उसके घर और कॉलेज पहुंचाते थे। जिससे हमारे घर का खर्चा और मेरी स्कूल की फीस निकल जाती थी, पर उस लड़की ने भी कॉलेज जाना बंद कर दिया। अब मेरी फीस नहीं भरी तो स्कूल वालों ने भी स्कूल से निकाल दिया है। पापा टेंशन ले लेकर बीमार हो गए थे, इसलिए मैं रिक्शा ले आया।” उस लड़के ने कहा, तो मैंने पूछा, “कितनी फीस देनी है तुम्हारी?”
“आठ सौ रुपए। जबकि पांच सौ पापा ने जमा कर दी है, लेकिन स्कूल वाले कहते हैं, पूरी फीस भरेंगे तब स्कूल में घुसने देंगे।” लड़के ने कहा और रिक्शा खींचने लगा।
उस वक्त मेरे पर्स में 500 रूपए पड़े थे, जो मेरे भाई ने मुझे रक्षाबंधन पर दिए थे। मैंने वो पैसे चुपचाप उस लड़के की सर्ट में रख दिए और कॉलेज चली गई।