हार न मानें

हार क्यों मानना?

अंशुल ने फिर से शुरुआत करने का फैसला किया। लेकिन यह आसान नहीं था। जब भी वह स्टेज पर जाने की सोचता, पिछली हार की यादें उसे डरा देतीं।

अंशुल स्टेज के पीछे खड़ा था, उसके हाथ पसीने से भीग रहे थे। दिल तेज़ी से धड़क रहा था। आज उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा दिन था, राष्ट्रीय डिबेट प्रतियोगिता का फाइनल। उसके सामने हज़ारों लोग बैठे थे, और कुछ ही देर में उसे स्टेज पर जाना था। लेकिन उसके मन में एक ही सवाल घूम रहा था, “क्या वह यह कर पाएगा?”

उसने आंखें बंद कीं और पीछे मुड़कर बीते साल की यादों में झांकने की कोशिश की।

एक वक्त था जब वह अपने स्कूल का सबसे अच्छा डिबेटर माना जाता था। हर प्रतियोगिता में उसकी जीत तय मानी जाती थी। स्कूल के सभी शिक्षक और छात्र उसे ‘बेस्ट डिबेटर’ कहते थे।

अंशुल की खासियत थी कि वह सिर्फ शब्दों से नहीं, बल्कि अपनी सोच और तर्कशक्ति से भी लोगों को प्रभावित करता था। उसकी आवाज़ में आत्मविश्वास था, तर्क इतने मजबूत होते कि सामने वाला जवाब तक नहीं दे पाता। हर प्रतियोगिता में जीतना उसकी आदत बन गई थी। लेकिन एक साल पहले कुछ ऐसा हुआ जिसने उसका आत्मविश्वास पूरी तरह तोड़ दिया।

अंतर-राज्यीय डिबेट प्रतियोगिता का फाइनल था। हॉल खचाखच भरा हुआ था। जज, टीचर्स, स्टूडेंट्स, हर कोई अंशुल को सुनने के लिए तैयार था। वह पूरे जोश के साथ स्टेज पर पहुंचा। लेकिन बोलना शुरू करते ही उसका दिमाग अचानक खाली हो गया।

उसने शब्दों को याद करने की कोशिश की, लेकिन कुछ भी याद नहीं आ रहा था। उसकी आवाज़ कांपने लगी, माथे पर पसीना आ गया। हॉल में बैठे कुछ लोग फुसफुसाने लगे, कुछ हंस पड़े।

“अरे, ये तो बोल ही नहीं पा रहा!” किसी ने कहा।

“इसे बेस्ट डिबेटर किसने कहा?” किसी दूसरे ने कहा।

अंशुल का सिर झुक गया। उसने किसी तरह अपनी बात खत्म की, लेकिन वह जानता था कि उसने हार मान ली है। जब रिजल्ट घोषित हुआ, तो वह कहीं भी नहीं था। उसकी यह हार उसे अंदर तक तोड़ चुकी थी।

उस दिन के बाद, अंशुल ने डिबेट से खुद को दूर कर लिया। उसे डर लगने लगा था कि अगर वह फिर स्टेज पर गया और फिर फेल हो गया तो?

“अब मैं डिबेट नहीं कर सकता,” उसने अपने पिता से कहा।

पिता ने उसके सिर पर हाथ रखा और मुस्कराकर बोले, “असली जीत गिरने के बाद दोबारा खड़े होने में है।“

“लेकिन पापा, अगर फिर से वही हुआ तो?” अंशुल ने कहा।

और अपने कमरे में चला गया। उसके पीछे पीछे इसके पापा भी आये और उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा।

“अगर हारने का डर जीतने की कोशिश से बड़ा हो जाए, तो जीत कभी मिलेगी ही नहीं।” पापा ने समझाया।

उनकी बातें अंशुल के मन में गूंजने लगीं। उसने सोचा, “अगर मैं अभी रुक गया, तो क्या सच में हार नहीं जाऊंगा?”

अंशुल ने फिर से शुरुआत करने का फैसला किया। लेकिन यह आसान नहीं था। जब भी वह स्टेज पर जाने की सोचता, पिछली हार की यादें उसे डरा देतीं। वह हर बार सोचता कि अगर फिर से वही हुआ तो? अगर फिर से शब्द अटक गए तो?

लेकिन उसने हार नहीं मानी। उसने हर दिन खुद को तैयार किया। शीशे के सामने खड़े होकर घंटों प्रैक्टिस करता। अपनी आवाज रिकॉर्ड करता और गलतियां सुधारता।

फिर उसी डिबेट प्रतियोगिता में पूरे एक साल बाद भाग लिया। डिबेट को शुरू करने से पहले उसके टीचर ने उससे पूछा, “क्या तुम सच में इस डिबेट में हिस्सा लेने के लिए तैयार हो?”

अंशुल ने भी पूरे कॉन्फिडेंस के साथ हामी भरी और डिबेट शुरू की।

इस बार वो अपने अंदर के पुराने अंशुल को याद कर रहा था। उसकी मेहनत रंग लाई और वह डिबेट जीत गया। उससे जीतता देखकर उसके पापा को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने अंशुल को शाबाशी देते हुए कहा, “देखा बेटा! फिर से कोशिश करना इतना भी मुश्किल नहीं है!”

उसने खुद से कहा, “अगर उस दिन हार मान लेता, तो आज ये जीत नहीं मिलती।”

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