छोटी-छोटी आदतें

चप्पलें

सुलेखा को देख कर लड़के ने चप्पलें ज़मीन पर रख दीं। ये बात सुलेखा वो बहुत अजीब लगी, पर घर पहुंचने की जल्दी में उसने चप्पलें पहनी और लड़के से बिना कुछ बोले ही आगे बढ़ गई।

आज सुलेखा के बड़े बेटे का जन्मदिन था। बेटा तो दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था, पर हर साल उसके जन्मदिन पर मंदिर जा कर भगवान से बेटे की खुशी के लिए पूजा करना सुलेखा का सबसे पसंदीदा काम था। तो बस उसी काम को करने के लिए सुलेखा जल्दी-जल्दी घर से निकल गई, क्योंकि वापस आकर बेटे को वीडियो कॉल पर बर्थडे विश भी करना था। इसी खुशी और जल्दबाज़ी के साथ सुलेखा मंदिर पहुंची और मंदिर के बाहर इतनी सारी उल्टी- सीधी पड़ी चप्पलों के बीच अपनी चप्पलें उतार कर पूजा करने चली गई।

ये नौ देवियों के दिन थे, मंदिर में हर रोज़ सुबह- शाम कीर्तन हुआ करते थे। कीर्तन में शामिल होने बहुत से लोग आते और बाहर अपनी चप्पलें उतार कर अंदर चले जाते। देखते ही देखते वहां बहुत सारी बड़ी-छोटी और अलग-अलग डिज़ाइन की चप्पलें बिखर जातीं। कीर्तन खत्म होते ही सब लोग एक दूसरे की चप्पलों को रौंदते हुए और अपनी-अपनी चप्पल पहन कर चले जाते।

सुलेखा भी अक्सर इस कीर्तन में आया करती थी, पर आज उसके पास इतना वक्त नहीं था की वो पूरा कीर्तन खत्म करके जाये, इसलिए उसने जल्दी जल्दी पूजा की और मंदिर से निकल गई। बाहर निकल कर जैसे ही वो अपनी चप्पलों की तरफ बढ़ी तो उसने देखा कि उसकी चप्पलें एक लड़के के हाथ में हैं, जिसकी उम्र करीब 14-15 साल होगी।

सुलेखा को देख कर लड़के ने चप्पलें ज़मीन पर रख दीं। ये बात सुलेखा वो बहुत अजीब लगी, पर घर पहुंचने की जल्दी में उसने चप्पलें पहनी और लड़के से बिना कुछ बोले ही आगे बढ़ गई। सुलेखा ने पीछे मुड़कर उस लड़के के कपड़ों की तरफ देखा और सोचा, “कपड़ो से तो चोर जैसा नहीं लगता, फिर भी ऐसी क्या मजबूरी जो चप्पलें चुरा रहा है!… खैर, मेरी चप्पलें तो बच ही गई!”  भगवान का शुक्र करते हुए सुलेखा घर चली गई।

दूसरे दिन के कीर्तन में सुलेखा आई, पर उसने बाहर पड़ी चप्पलों में चप्पलें उतारने से संकोच किया, और चप्पलों के ढेर में अपनी चप्पलें सबसे नीचे दबा कर रख दीं। इतनी अच्छी तरह छुपाने के बाद भी सुरेखा को अपनी चप्पलें चोरी हो जाने का डर सताता रहा। और जब कीर्तन खत्म हुआ तब सुलेखा जल्दी से चपलें पहनने को बाहर निकल गई। बाहर निकल कर ये देख कर चौंक गई कि वहां बिखरी सारी चप्पलें बड़े सही तरीके से एक लाइन में लगी हुई थीं, और सारी चप्पलें उनकी जोड़ी के साथ रखी हुई थीं, यानी अब किसी को भी अपनी बिखरी चप्पलों के बीच से एक चप्पल इधर और एक उधर से ढूढ़ने की ज़रूरत नहीं थी।

सुलेखा ने अपनी चप्पल पहनी और चली गई।

अगले दिन जब सुरेखा कीर्तन के लिए आई तो उसने देखा कि वही लड़का जिसे सुरेखा चोर समझ रही थी, सबकी चप्पलों को लाइन से लगा कर रख रहा है। ये देख कर सुरेखा ने उससे पूछ ही लिया कि वो ऐसा क्यों करता है?

तब उस लड़ने ने कहा, “इन बिखरी चप्पलों को लाइन से रखने से मुझे खुशी मिलती है, सभी लोग जल्दीबाज़ी में इधर-उधर चप्पले रख देते हैं और लौटते वक्त उनका बहुत सा वक्त इन्हें ढूढ़ने में ही बीत जाता है। जबकि सही से व्यवस्थित चीज़ हमारे मन को भी सुकून देती है और वक्त भी बचाती है।” उस छोटे लड़के की बात सुलेखा के दिल में घर कर गई।

उसने अगले दिन से कीर्तन में आने से पहले मंदिर के बाहर खुद ही अपनी चप्पलों को सही से लाइन से लगा के रख दिया। और धीरे- धीरे जब सभी को अपनी-अपनी चप्पलें लाइन से लगी मिलने लगीं तो उन्होंने भी आते वक्त अपनी चप्पलों को सही से लगाना शुरू कर दिया।

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