बृहन्नला के लिए ट्रैफिक सिग्नल पर यह एक मुश्किल दिन था। तेज धूप में राहगीरों से मिलने वाला तिरस्कार और उपहास (Ridicule) उसकी हताशा को और भी बढ़ाता जा रहा था। एक किन्नर का जीवन ऐसा ही होता है। हालांकि वह उपहासों की परवाह किए बगैर रात में होने वाले अपने नाटक पर ध्यान दे रही थी। विक्रोली, जहां वह रहती थी वहां की तंग गलियों से गुजरते हुए उसने अपनी लाइनों को याद किया, “एक क्षत्रिय अपने दुश्मनों से कभी भागता नहीं है। युद्ध में मिलने वाली मौत, युद्ध के मैदान से भागने से कहीं ज्यादा बेहतर होती है।”
बचपन से ही थिएटर उसका पैशन था। वह इस क्षेत्र में अपनी योग्यता साबित करने का एक और मौका गंवाना नहीं चाहती थी। उसे वह दृश्य अच्छी तरह याद है जब जात्रा समूह के निदेशक ने उसे एक भूमिका के लिए चुना था तो उसे देखकर कैसे उसके सहयोगी कलाकारों के चेहरों पर अविश्वास और घृणा के भाव आ गए थे। जात्रा ग्रुप के लिए पार्ट टाइम लाइटमैन का काम करते हुए उसने न जाने कितने ही नाटकों को अपनी आंखों के सामने साकार और आकार लेते हुए देखा था।
सब कुछ तय समय पर हो रहा था। अचानक अर्जुन की भूमिका निभाने वाले कलाकार का एंकल (टखना) विराट पर्व के सीन की रिहर्सल करते हुए टूट गया। शो से ठीक 15 दिन पहले एक नए कलाकार को खोजना असंभव था और शो को रद्द करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। तभी निर्देशक को याद आया कि उसने बृहन्नला को अपने दोस्तों के सामने नाटक के कुछ दृश्य पर अदाकारी करते हुए देखा था।
‘हे राजकुमार उत्तरा, राजा के समक्ष मेरी पहचान स्पष्ट न करें। युद्ध जीतने का श्रेय तुम ले लो, क्योंकि मैं तो एक किन्नर के भेष में छुपा योद्धा हूं। किसी को यह पता न चले कि मैं कुंती पुत्न अर्जुन हूं। मेरा निर्वासन शांतिपूर्ण रहे।’ जब अंतिम दृश्य के बाद परदा गिरा तो हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
अर्जुन के रूप में पेश हुई ‘बृहन्नला’ अपनी आंखों में खुशी के आंसू महसूस कर सकती थी। अब वह महसूस कर सकती थी कि जिस उपहास और मजाक का वह रोजाना शिकार होती थी, उसके स्वर धीमे पड़ते जा रहे थे। उनकी जगह अब गर्व के अहसास लेते जा रहे थे जो उसे नायक बना रहे थे। हकीकत में वह नायक ही तो थी।