जब उसकी मां उसे कक्षा में लेकर आती तो वह खुद को व्हीलचेयर पर ऐसा महसूस करता मानो जैसे सिंहासन पर बैठा हो। वह हर किसी को देखकर मुस्कुराता भी था।
मैंने पूछा, ‘आपको आज देर कैसे हो गई?’ मुझे पता था कि विशेष स्कूल में आने से वह कितना खुश था। मेरे सवाल के साथ ही उसकी मुस्कुराहट गायब हो गई। उसने धीरे से मुड़कर अपनी मां की ओर देखा। मां ने उससे नज़रें मिलाते हुए कहा, ‘स्कूल के लिए तैयार होते वक्त हमारा झगड़ा हो गया था।’
मैंने पूछा, ‘कौन जीता?’। यह दोनों के बीच का तनाव कम करने की मेरी अपनी कोशिश थी।
मां ने जवाब दिया, ‘वास्तव में, मैं हार गई और मुझे लगता है कि आपको उससे बात करनी चाहिए। मैं उसे समझाने में विफल रही हूं।’
मैंने फिर पूछा, ‘मैं उसे समझाऊं?’। मां ने शिकायती लहज़े में कहा, ‘हां। आप देखें, वह सब कुछ अपने दम पर (On his own) करना चाहता है। मैं उसकी मदद करना चाहती हूं पर वह मुझे करने नहीं देता है। इसमें बहुत समय बर्बाद होता है और स्कूल के लिए देर हो जाती है। वह कोई भी मदद लेने से इनकार कर देता है।’
अपनी मुस्कान को छिपाते हुए मैंने गर्व के साथ अपने छात्र को देखते हुए कहा, ‘तुम स्वतंत्र रहना पसंद करते हो और यहां हम स्कूल में यही सिखाते हैं। इसके लिए मेरी ओर से पूरे अंक मिलते हैं। लेकिन अब आपको स्कूल में आधे घंटे देरी से आने के लिए प्रिंसिपल से अनुमति लेनी चाहिए? ऐसा करने से आपके और आपकी मां के बीच का तनाव भी कम होगा।’ यह मेरा अपना सुझाव था।
विशाल की मां ने पूछा, ‘क्या इसका मतलब यह है कि मैं विशाल को अपने दम पर तैयार होने का समय दे सकती हूं’ मैंने विशाल के लिए कुछ कागज़ और पेंट बाहर रखते हुए जवाब दिया, ‘बिलकुल’।
एक बार फिर विशाल ने मदद के लिए आगे आए मेरे हाथ को नज़रअंदाज कर दिया। पेंट और ब्रश लेने के लिए वह खुद मेरे पास आया उसने कहा, ‘मैं पकड़ता हूं’। फिर उसने धीरे से ब्रश उठाकर उसे पेंट में डाला और कागज़ पर उत्साह के साथ फेरने लगा।
अकेले अपने दम पर।