मेरी दादी, जिन्हें मैं ‘अम्मा’ कहकर पुकारती थी, काफी जिद्दी और अड़ियल थी। उन्होंने कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया था और वहां से हटने को तैयार नहीं थी। कोई भी उन्हें रामदास को पुलिस के हवाले करने के लिए मना नहीं सका। जाहिर है, वह दया भाव  (Sense of pity) के कारण उसे बचाने पर अड़ी थी।

10 वर्षीय रामदास उस वक्त अम्मा के साथ आया था, जब उनकी शादी हुई थी। वह तब से वे उसकी अभिभावक थीं। रामदास यहां पर ही उनके बच्चों के साथ खेलकर घर के छोटे-मोटे काम करते हुए बड़ा हुआ था। अम्मा ने उसे अच्छा खाना, कपड़े, खिलौने और शिक्षा दी थी।

रामदास भी उनके प्रति समर्पित था, ऐसा उस दिन तक लगा था जिस दिन रामदास को मेरी मां की सोने की चेन की चोरी करते हुए नहीं पकड़ा गया था। इस बात का पता चलते ही हंगामा मच गया और रामदास की उस वक्त तक जमकर बेरहमी से पिटाई की गई, जब तक अम्मा उसे बचाने नहीं आई। अम्मा उसे बचाकर खींचते हुए एक कमरे में ले गई और बंद कर दिया। अब वह दरवाजे पर खड़ी थी और किसी को दरवाजा खोलने नहीं दे रही थी।

मेरे माता-पिता का विरोध भी काम नहीं आया और उन्होंने हार मान ली। दोनों ने उस वक्त कार्रवाई करने का निर्णय लिया, जब अम्मा सुबह के वक्त सो रही हो। हालांकि, अगले दिन उन्हें रामदास नज़र नहीं आया। अम्मा ने विस्मृत दिखाई दे रहे मेरे माता-पिता से ज़ोर देते हुए कहा, ‘‘मैंने उसे मुक्त कर दिया है। वह एक चोर पैदा नहीं हुआ था, आवश्यकता ने उसे ऐसा काम करने पर मजबूर किया है।’

सभी उस शाम अचरज में पड़ गए जब रामदास हमारे दरवाज़े पर फिर से प्रकट हुआ। उसकी आंखों में ग्लानि के आंसू थे। रोते हुए अपनी गलती को मानते हुए वह बोला, ‘मुझे माफ कर दें, अम्मा, मैं आपे से बाहर हो गया था। मैं अपनी बेटी का दाखिला एक अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में कराना चाहता था। मुझे आप के यहां चोरी करने की बजाय, कड़ी मेहनत करनी चाहिए थी।’

विजयी मुद्रा में दिखाई दे रही अम्मा ने मेरे माता-पिता से कहा, ‘लोग अच्छे या बुरे नहीं होते, परिस्थितियां उन्हें ऐसा बनने पर मजबूर कर देती हैं। दया भाव ही व्यक्ति को सही मार्ग पर वापस लाने का एकमात्र मानवीय तरीका है।’